हम पतियों को पत्नियों से बलात्कार की इजाजत कैसे दे सकते हैं?
मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के विचार का विरोध क्यों हो रहा है? सेक्स और जन्म देने के अधिकार पर चल रही बहस के बीच अचानक मैरिटल रेप चर्चा में आ गया है.
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मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के विचार का विरोध क्यों हो रहा है? सेक्स और जन्म देने के अधिकार पर चल रही बहस के बीच अचानक मैरिटल रेप चर्चा में आ गया है. और जब भी इस पर सार्वजनिक चर्चा होती है, अतिसंवेदनशीलता ही इसके हिस्से में आती है कि चूँकि विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता.
गृह राज्य मंत्री हरिभाई परथीभाई चौधरी ने सरकार का रुख बताया कि क्यों वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार कानूनों के दायरे में नहीं लाया जा सकता. उन्होंने यही दलील दी कि भारतीय विवाह एक पवित्र संस्था है इसलिए कुछ मायनों में अपराध की दुनिया से परे है.
हिंसाविवाह को जब जीवनभर के बंधन के रूप में बदल दिया गया है तो सहमति-असहमति की अवधारणा ही समाप्त हो जाती है. विवाह वह संस्था है जिसमें लोग सहमति से उस सेक्स संबंध की ओर बढ़ते हैं, जो इसके अलावा समाज द्वारा प्रतिबंधित है.विवाह जैसी इस संस्था के आदर्श रूप को बीते सालों में तलाक, घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों, और LGBT समूहों को बराबरी के संबंध रखने की आजादी और विवाह का अधिकार जैसी बातों से चुनौतियाँ मिल रही है. हालाँकि वैवाहिक बलात्कारों को आम बलात्कार और शारीरिक हिंसा की श्रेणी में रखने का डर ही वैवाहिक संस्था की ओर से विरोध का प्रमुख कारण है.ऐसा नहीं है कि वैवाहिक बलात्कारों पर भारतीय क़ानून खामोश है. इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 498A में पतियों और परिवार के द्वारा दिए जाने वाले शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न और क्रूरता का जिक्र है, जिसके लिए 3 साल की अधिकतम सजा का प्रावधान है. घरेलू हिंसा क़ानून के तहत जबरन किया जाने वाला सेक्स क्रूरता की श्रेणी में आता है और जिससे महिलाओं को बचाने का प्रावधान है. साथ ही, IPC के सेक्शन 375 में 15 साल से काम उम्र की पत्नियों को छोड़ बाकी बनाये गए संबंध बलात्कार की श्रेणी में नहीं आते.
कानूनक्या हमें पत्नी के साथ जबरन सेक्स को अपराधिक करार देकर मौजूदा व्यवस्था में उथल पुथल मचा देनी चाहिए? जैसा कि समाजशास्त्री पैट्रिसिया ओबेरॉय के विश्लेषण से पता चलता है कि तलाक और दूसरे वैवाहिक झगड़ों को कानून एक पागलपन के रूप में देखता है. इसलिए हिन्दू विवाह अधिनियम या स्पेशल मैरिज एक्ट भले ही पाश्चात्य समझौते के रूप में है, जज अक्सर अपने विरोधाभासी फैसलों में इसे जीवनसाथी पर अधिकार के रूप में देखते हैं. उदाहरण के लिए, जो कानून दाम्पत्य जीवन के अधिकारों को स्थापित करते हैं, वही पीड़ित पत्नी से शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार भी देते हैं. यह कानून उपरोक्त सभी कानूनों का और अगर मैरिटल रेप कानून बना तो उसका उल्लंघन है. जज और उनके फैसले पारम्परिक सोच और तत्कालीन अधिकार संबंधी कानूनों के प्रतिरोधों की वजह से सामंजस्य नहीं बैठा पाते.
समझौतों के बजाय हिन्दू विवाह को एक पवित्र बंधन में इसीलिए माना जाता रहा है क्यंकि यह मुख्यतः पारिवारिक नेटवर्क से जुड़ा हुआ होता है. सात जन्मों के बंधन वाली सामाजिक पारम्परिक सोच से यही मान लिया जाता है कि विवाह केवल दो लोगों के बीच नहीं बल्कि परिवार, बिरादरी और समूह के बीच का संबंध होता है. एक बड़े विनिमय में वर और वधू महज एक हिस्सा हुआ करता है. इसीलिए प्रेम विवाहों और अपनी मर्जी से किये गए विवाहों से समाज दूरियां बनाये रखता है. विवाह को लेकर इस तरह की सोच के विपरीत कोई भी एक अलग राय विद्रोही मानी जाती है.ये भी आश्चर्य नहीं है कि शहरों में बढ़ी तलाक की घटनाओं और उतनी ही घरेलु हिंसा की 'झूठी' घटनाओं से विवाह का ये पावन बंधन टूट रहा है. 'एड्जस्ट और सुलह' करने से इंकार करने वाली ये महिलाएं ही इन टूटे रिश्तों की वजह बताई जा रही है.
मान्यताऐसे रिवाजों और विचार, जिसमें एक महिला को उसके पति के नाम, परिवार, गोत्र से आत्मीय तौर जुड़े रहने की बात बेहद पुरातन है. क्योंकि बदलाव एकतरफा ही हैं. ऐसे में सेक्स तो निर्विवाद और निर्विरोध हो गया. तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मैरिटल रेप और उसके अस्तित्व को मानना, सामाजिक रूप से ही, ताबूत में आखिरी कील साबित होगी. सभी शादियां पवित्र नहीं होतीं. और कानून के निर्माताओं में इसे अनदेखा करने की वजह डर है कि वे इस सामाजिक संस्था बिखराव को कैसे रोकेंगे. इस बिखराव के पीछे अकेला रहने के विचार, चुनने के अधिकार और सहमति से जोड़कर देखते हैं. और यही पहलू मैरिटल रेप को अपराध के रूप में मान्यता देने की मांग से जुड़े हैं.
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