'मेद' से 'मेव' और फिर मेवात से लिंचिस्तान होने की दास्तान
हरियाणा-राजस्थान की सीमा से सटे इलाके में रहने वाले मेव जाति यूं तो सदियों से पशुपालन और काश्तकारी के लिए जानी जाती रही है. लेकिन अब धीरे-धीरे यह इलाका लिंचिंग की घटनाओं के लिए कुख्यात होने लगा है.
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आम तौर पर मेव शब्द के साथ ही दिमाग में छवि उभरती है कद्दावर, उभरती ललाईं लिए गोरे चिट्टे लोग. ऊंची नाक, चौड़ा माथा और छरहरा शरीर. पेशा पशु पालन या खेती बाड़ी. हरियाणा और राजस्थान के कुछ जिलों में फैली मेव आबादी. कुछ दशक पहले तक पहनावा, रहन सहन, बोली बानी, खान-पान यहां तक कि खुशी गमी के रीति रिवाज सब राजस्थानी या हरियाणवी, बहुत हद तक राजपूतों से मेल खाते. हालांकि जब से देवबंद की दीनी जमातें आने लगी हैं इनका परिवेश सब कुछ बदल-बदल सा गया है. औरतें घाघरा चोली और चुनरी के बजाय बुर्कों में नजर आती हैं. पुरुष धोती, तहमद और अंगरखे की बजाय ऊंचे पाजामे और नीचे कुरते में. चेहरे पर दाढ़ी सिर पर गोल टोपी. यानी अब पहचान का सवाल यहां भी दिखता है.
मेव शब्द की पहचान की इसी तलाश में हम उतरे इतिहास के गर्त में.
जिन मेव को हम औरंगजेब, मीर कासिम या बल्बन के साथ जोड़ते रहे हैं उनकी जड़ें तो काफी गहरी निकलीं. इन मेव के तार जुड़े आर्यों से, यानी मध्य एशिया की ये नस्ल मेद नाम से शुरु हुई. प्रकृति की पूजा करने वाले आर्यों के कई दलों में से एक मेद कबीले के लोग भी तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, अजर बैजान और ईरान जैसे मध्य एशिया के इलाकों से अफगानिस्तान और सिंध के रास्ते भारत भूमि में आये. वैदिक युग में मेद कहलाने वाले ये लोग जब प्राकृत भाषा के युग तक पहुंचे तो मेद का 'द' अक्षर 'व' में बदल गया और मेद से मेव हो गया. कहते हैं कि कभी मेवाड़ का नाम भी मेदपाट था. तो ऐसे में मेवाड़, मारवाड़ और मेवात सभी सहोदर ही प्रतीत होते हैं.
पहचान का सवाल यहां भी दिखता है (photito.com से साभार)
भारतीय भूमि पर आने के बाद ये प्रकृति पूजक मेद फिर ईसवी पूर्व पांच सौ साल पहले तक बौद्ध अनुयायी भी हुए. सिंध और कंधार से लेकर सरस्वती और सिंधु नदी के आसपास मेवों की खासी आबादी थी. अरब से आये यात्रियों ने अपने यात्रा वृत्तांत में इन मेदों को बौद्ध बताया है और इन पशुपालक किसानों के पास दो कूबड़ वाले ऊंट होने की बात लिखी है. ये दो कूबड़ वाले ऊंट ही इनके मध्य एशिया से आने की पुष्टि करते हैं.
तो आगे बढ़ें इनके प्रकृति पूजा से बौद्ध और फिर इसलाम में कन्वर्ट होने की दास्तान सुनते हैं.
इतिहास के पन्नों में 512 ईसवी में मीर कासिम का जिक्र आता है जिसने सिंध में बड़ी तादाद में इन बौद्धों को इस्लाम में दीक्षित किया. लेकिन जो इसलाम में दीक्षित नहीं हुए उनको मजबूत कद काठी और लड़ाका प्रवृत्ति के कारण राजाओं ने सेना में शामिल कर लिया. धीरे-धीरे ये मेव राजपूत हो गए. सारी परंपराएं राजपूती हो गईं. स्थानीय रहन सहन में ये रच बस गये.
मीर कासिम के लगभग सवा पांच सौ साल बाद महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार मसूद गाजी ने 1053 से 58 के बीच बड़ी तादाद में इन मेवों का धर्म परिवर्तन कराया. इसके बाद बारहवीं सदी में जब ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने 1192 में अजमेर से दिल्ली की पैदल यात्रा की तब भी लाखों राजपूतों ने उनके प्रभाव में आकर इसलाम अपनाया.
धर्म तो कई बदले लेकिन परंपराएं जड़ों में ऐसी पैठी हैं कि वो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जा रही हैं
इतिहास तो ये भी कहता है कि फिरोजशाह तुगलक एक बार शिकार खेलने गया. फिरोजशाह समरपाल नामक मेव राजपूत युवक के साथ शेर का शिकार कर रहे थे. तभी पीछे से शेर फिरोजशाह पर लपका. फिरोजशाह संभलते तब तक देर हो जाती लेकिन इसी दौरान समरपाल ने अपनी तलवार के जबरदस्त वार से शेर की गर्दन उतार दी. फिरोजशाह ने समरपाल को बहादुर नाहर की पदवी दी. सुल्तान का करम हुआ तो समरपाल का परिवार इस्लाम में बदल गया. इसी समरपाल नाहर बहादुर की अगली पीढ़ियों में हसन खां मेवाती हुए तो महाराणा सांगा की राजपूत सेना की ओर से लड़े और अपनी बहादुरी की मिसाल कायम की.
इसी मेवाती परंपरा में राजपूतों की कला संगीत को आगे बढ़ाने की भी मिसाल मिलती हैं. उस्ताद घग्गे नजीर खां साहब ने शास्त्रीय संगीत के मेवाती घराने की नींव रखी. आज उस घराने के सबसे बड़े सितारे संगीत मार्तंड पंडित जसराज हैं. घग्गे नजीर खां साहब की परंपरा में पंडित चिमन लाल जी, पंडित मोतीराम और पंडित ज्योतिराम जी हुए. फिर पंडित मणिराम जी और उनके भाई व शिष्य पंडित जसराज जी. पंडित जसराज जी की भी शिष्य परंपरा को आगे बढ़ा रही है एक पूरी पीढ़ी.
नूह के रहने वाले पेशे से सिविल इंजीनियर लेकिन प्रवृत्ति से इतिहासकार सिद्दीक मेव बताते हैं कि अभी भी राजपूतों के 52 गोत्र और 12 पाल मेवों में मौजूद हैं. 12 पाल में पांच पाल यदुवंशियों के, चार पाल गूजरों के यानी तंवर या तोमर, दो सूर्यवंशी राजपूतों के और एक चौहानों का है. 52 गोत्र में से 30 गोत्र तो सीधे राजपूतों वाले हैं. बाकी 22 में गूजर, अहीर और जाटों के गोत्र हैं.
सदियां बीत गईं. धर्म तो कई बदले लेकिन परंपराएं जड़ों में ऐसी पैठी हैं कि वो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जा रही हैं. शादी ब्याह, मरण गमी यानी जनम, मरण और परण में परंपराएं जस की तस हैं. वो तो अब जाकर दीनी जमातों का असर दिखने लगा है. वरना राजस्थान और हरियाणा के भी कई इलाकों में आज भी शादी ब्याह में दूल्हा-दुल्हन के दरवाजे जाकर राजपूतों की तरह तोरण मारता यानी टीपता है. बच्चा पैदा हो तो कुआं पूजते हैं. शादी ब्याह में मामा के यहां से भात आना, चाक पूजन, उबटन हल्दी चढ़ाना, घोड़ी चढ़कर बारात सजाना सब जस का तस. लेकिन अब जैसे-जैसे पहचान का मामला तेज हो रहा है मजहबी कट्टरता बढ़ रही है. वरना तो तीस चालीस बरस पहले तक मेवों के नाम भी अर्जुन, कन्हैया, उदय, रणमल, समदर जैसे ही होते रहे हैं.
अब माहौल बदल गया है.
हाल तक ईद-बकरीद के साथ होली-दिवाली मनाने वाले मेव अब बड़ी दाढ़ियां रखने लगे हैं. पगड़ी साफा की जगह गोल टोपी ने ले ली है. धोती पाजामे की जगह तहमद आ गई है. यानी सियासत ने एक बार फिर इस गंगा जमनी तहजीब वाले मेवों को अपने लपेटे में ले लिया है. सदियों पुरानी कला, संस्कृति, बहादुरी और शौर्य गाथाओं से समृद्ध परंपरा दरक रही है. इतिहास में मेवातियों की कई कहानियां चोरी, डकैती और अपराध कथाओं से भी कलंकित मिलती हैं. पशुओं की चोरी, लूटपाट और राहजनी के किस्से मेवात में ही नहीं दूरदराज के इलाकों में भी कहे सुनाए जाते हैं. दिल्ली और आसपास के इलाकों में लूटपाट और हत्या करने वाले मेवाती गिरोह कुख्यात हैं. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान अब कट्टरता की वजह से हो रहा है. इन लोगों में शिक्षा का प्रभाव कम है. लिहाजा इन्हें आसानी से बरगलाकर अपराधिक प्रवृत्तियों में फांस लिया जाता है. यहां से आतंकवाद के कई पन्ने भी खुलते हैं. जाहिर है बदलाव सिर्फ धर्म और रहन सहन में ही नहीं बल्कि सोच में भी हो रहा है. बदलाव बुरा नहीं होता बल्कि वो सोच बुरी होती है जो ऊंचा उठाने के बजाय नीचे ले जाए.
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