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Updated: 30 सितम्बर, 2018 11:39 AM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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कहा जाता है कि इंसान को कर्म के नाम पर छोटा या बड़ा कहना चाहिए, लेकिन क्या ये सही है? जो सबसे गंदा काम करता है उसे सबसे निम्न जाति में रखना कहां तक सही है?

हमारे समाज में हमेशा से यही तो देखा गया है कि या तो इंसान को जात के नाम पर या फिर काम के नाम पर छोटा बता दिया जाता है. एक Quora थ्रेड पर इसी तरह का सवाल पूछा गया था. "Why should I respect all professions" ये सवाल भारतीय समाज की एक अहम सच्चाई को दिखाता है जिसमें वाकई लोगों को सिर्फ किसी इंसान की जात या उसका काम दिखता है. इस थ्रेड में राजश्री भट्टाचार्य ने अपने बचपन की एक बात कही. उन्होंने एक वैश्या के काम के बारे में बताया..

राजश्री का उत्तर था...

बचपन में वो जिस गांव में रहते थे वहां गांव से थोड़ी ही दूर पर एक वेश्या रहती थी. जब भी उसके घर के बाहर से राजश्री गुजरते थे तब किसी न किसी को उसपर चिल्लाते या भद्दे ताने मारते देखते. कुछ ऊंची जात के लोग उस रास्ते भी नहीं जाते और खुद को किसी बड़े पाप से बचा लेते.

काम, वैश्या, धर्म, जाति, नीची जाति

वो दिन के समय बाहर नहीं निकल सकती थी क्योंकि लोग उसका जीना हराम कर देते थे. कहीं कोई ताने मारता, कोई पत्थर, कोई सीटी बजाता तो कोई पकड़ने की कोशिश करता. पुलिस भी गुंडो का ही साथ देती. एक बार उसने पुलिस में रिपोर्ट भी की, लेकिन पुलिस ने उसे ही दोषी ठहराया. सभी मर्द और औरतें उसे गलत समझती थीं.

उसके दो बच्चे थे. एक लड़का और एक लड़की. वो उन्हें स्कूल भेजती थी. वो कभी उन्हें अपने काम के बीच नहीं आने देती. वो कभी स्कूल का कोई भी काम करने से चूकती नहीं थी, चाहें अपने बच्चों की टीचर से ही क्यों न मिलना हो. मैंने (राजश्री ने) उसे एक बार बाज़ार में देखा था. मैंने देखा कि एक सब्जीवाले ने उसके पैर छुए और उसे मां बुलाया. शायद, उसने सब्जीवाले की बेटी की जान बचाई थी जब वो बीमारी से मर रही थी.

उस महिला का घर हमेशा साफ रहता था, भले ही कोई उसके घर में न जाता हो, हर किसी के लिए एक ग्लास पानी और कोई फल हमेशा तैयार रहता था. मैं उसे दीदी बुलाता था. मेरे माता-पिता को ये नहीं पता था. पर मैं उसके घर तब से जाता था जब मैं बहुत छोटा था. वो मेरे कई रिश्तेदारों से ज्यादा मुझसे करीब थी. मैंने उसे भेदभाव का शिकार होते देखा था, उसे शोषण का शिकार होते देखा था, उसे प्रताड़ित होते देखा था, बेइज्जत होते देखा था, पर कभी उसे रोते नहीं देखा था.

जब मुझे नौकरी मिली तो मैंने उसे कुछ पैसे देना चाहे, लेकिन उसने मेरे गाल सहलाए और कहा कि , 'मेरे बेटे ये मेरी लड़ाई है, मुझे अकेले लड़नी होगी.' वो हमेशा हंसती रहती थी, हमेशा खुश होने की कोशिश करती थी, वो अपनी जिंदगी उस जिंदादिली से जीती थी जो मैंने कभी नहीं देखी थी.

हर काम की इज्जत करो क्योंकि हर काम दुनिया से एक लड़ाई है. इस बेरहम, दयाहीन और अनुमान लगाने वाली दुनिया से जंग. हमें अपनी जिंदगी का हर दिन इस दुनिया से लड़कर बिताना है.

बचपन की एक बात जो आज भी याद है...

ये कहानी किसी quora थ्रेड की नहीं बल्कि मेरी अपनी है. जब मैं छोटी थी तब का एक वाक्या मुझे आज भी याद है. मेरे घर आए एक आदमी ने पानी मांगा और मैंने उसे एक ग्लास पानी दे दिया. बाद में घर वालों ने मुझे काफी डांटा, क्योंकि पानी उसी ग्लास में दे दिया था जिसका इस्तेमाल हम लोग रोज़ करते थे. उस समय मुझे नहीं पता चला कि आखिर मैंने गलती कहां की. बाद में मां ने मुझे समझाया कि वो आदमी जमादार था और ऐसे लोगों को प्लास्टिक के डिस्पोजल में पानी देते हैं और उन्हें घर के अंदर भी नहीं जाने देते. उस दिन उस आदमी ने न तो नाली साफ की थी, न ही कहीं काम करके आ रहा था. वो अपनी बेटी की शादी के बारे में बताने आया था. नहा धोकर साफ कपड़े पहन कर, लेकिन घर का एक ग्लास भी उसके लिए नहीं था.

काम, वैश्या, धर्म, जाति, नीची जाति

ये वाक्या उस समय का है जब न तो मुझमें इतनी समझ थी कि मैं सही और गलत बता सकूं, लेकिन आज मैं समझती हूं कि बेटी की शादी की खबर देने आए व्यक्ति को कम से कम घर में बिना मांगे पानी तो मिलना चाहिए था वो भी एक अच्छे ग्लास में न कि प्लास्टिक के डिस्पोजल में.

हमें ये अहसास नहीं होता, लेकिन हर दिन हमारे आस-पास ऐसे कई लोग होते हैं जो बहुत छोटा काम करते हैं, लेकिन उनकी अहमियत का अहसास नहीं होता. चाहें वैश्या हो या जमादार दोनों ही समाज का हिस्सा हैं और वो काम कर रहे हैं जो उन्हें जिंदा रहने का तरीका लगा है. कोई मजबूरी में ये काम कर रहा है तो कोई किस्मत खराब होने के कारण, लेकिन हर परिस्थिती में ये जी रहे हैं.

बिना सोचे समझे हम इंसानों को बांटने में, खुद को दूसरों से ऊंचा दिखने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कब आम भावनाओं को भी पीछे छोड़ देते हैं. इंसानियत के नाते ही सही क्या ये जरूरी नहीं लगता कि कभी किसी इंसान को इंसान ही समझा जाए? इंसानों की इस दुनिया में ऐसे तो जानवर ही सही हैं, कम से कम भेदभाव के झंझट में तो नहीं फंसते.

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लेखक

श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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