हैदराबाद एनकाउंटर: दुविधा में डालने वाला न्याय
अगर चार आरोपियों में किसी प्रभावशाली का बेटा यानी किसी मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर, धनपशु, बाहुबली इत्यादि का बेटा होता, तो पुलिस ने यह एनकाउंटर नहीं किया होता, बल्कि वह बंद कमरे में बैठकर आरोपियों को बचाने की डील कर रही होती.
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सच पूछिए तो मैं भयानक दुविधा में हूं कि हैदराबाद दुष्कर्म के आरोपियों के एनकाउंटर पर मेरा स्टैण्ड क्या होना चाहिए.
अगर पुलिस हमारी कानूनी व्यवस्था में आरोपियों को ले जाती तो सालों साल न्याय नहीं हो पाता. बहुचर्चित निर्भया मामले में भी एक दोषी नाबालिग होने की वजह से छूट गया और अन्य दोषियों पर 7 साल बाद भी उचित कार्रवाई का इंतज़ार है. रेप के दूसरे अनगिनत मामलों में तो जैसे न्याय का ही रेप हो रहा है. इस लिहाज से देखें तो लगता है कि तेलंगाना पुलिस ने ठीक ही किया है. ऐसा जघन्य गैंगरेप और हत्या करने वाले लोग 9 दिन तो क्या, 9 पल भी जीने के अधिकारी नहीं हैं.
लेकिन दूसरी तरफ यह भी लगता है कि अगर इस देश की न्याय व्यवस्था सड़ चुकी है तो क्या उस पुलिस को सड़क पर न्याय करने का अधिकार दे देना चाहिए, जो स्वयं भ्रष्ट और निकम्मी समझी जाती है? अगर पुलिस को यह अधिकार दे दें तो फिर तो वह किसी भी ताकतवर के इशारे पर या किसी से भी पैसा खाकर या तात्कालिक वाहवाही के लिए सड़क पर किसी को भी ढेर कर देगी. कहानी भी वही गढ़ेगी और न्याय भी वही करेगी. फिर रेपिस्ट तो क्या, देश के आम और बेगुनाह लोग भी कितने सुरक्षित रह जाएंगे? सोचने की बात है कि हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया अगर इतनी लचर, लाचार, दीर्घसूत्री और अन्यायी दिखती है, तो उसमें स्वयं हमारी पुलिस की भूमिका भी कम खराब और संदिग्ध नहीं है.
न्याय अगर न्यायिक प्रक्रिया से ही हो तो बेहतर है
इसलिए सच कहता हूं कि अगर इन्हीं चार लोगों ने दुष्कर्म और हत्या की थी, तो इन्हें सज़ा देने में 9 दिन भी मेरे खयाल से ज़्यादा हैं. मेरा सपना है कि एक दिन हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था इतनी सक्षम और सच्ची बन जाए कि रेप, गैंगरेप और हत्या के मामलों में मामला सामने आने के 7 दिन के भीतर अपराधी को पकड़कर साईन्टिफिक तरीके से जांच करके न्याय कर दे यानी गुनहगार को सज़ा सुनाकर सज़ा दे दे. अपराधियों में कानून का ख़ौफ होना चाहिए. बाबा तुलसीदास ने कहा भी है- भय बिनु होंहि न प्रीत. आज की स्थिति तो यह है कि अपराधी बेख़ौफ़ हैं और निरपराध डरे हुए हैं. यह स्थिति बदलनी चाहिए.
लेकिन न्याय अगर न्यायिक प्रक्रिया से ही हो तो बेहतर है. न्याय की जगह अगर न्यायालय न होकर सड़क हो जाए, तो हैदराबाद जैसे मामलों में भले हम उनका समर्थन कर देंगे, लेकिन यह हमारे लोकतंत्र और न्यायिक व्यवस्था की बहुत बड़ी विफलता होगी. इसलिए मैं 27 नवंबर को भी दुखी था. आज 6 दिसंबर को भी प्रकारान्तर से दुखी ही हूं. इंसाफ़ का यह तरीका हमें फौरी तौर पर संतुष्ट तो कर सकता है, लेकिन सुनहरे भविष्य की उम्मीद नहीं जगाता.
मुझे स्वयं निर्भया गैंगरेप से भी 5 महीने पहले बिहार-झारखंड के एक टीवी चैनल को हेड करते हुए जुलाई 2012 में अपनी टीम के साथ पटना में हुए एक गैंगरेप को उजागर करने, पीड़िता की लड़ाई लड़ने और बिहार की सड़कों पर जनांदोलन खड़ा करने का अनुभव है. और उस अनुभव से हमें यह भी पता है कि पुलिस किस तरह काम करती है. मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि अगर चार आरोपियों में किसी प्रभावशाली का बेटा यानी किसी मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर, धनपशु, बाहुबली इत्यादि का बेटा होता, तो पुलिस ने यह एनकाउंटर नहीं किया होता, बल्कि वह बंद कमरे में बैठकर आरोपियों को बचाने की डील कर रही होती.
बहरहाल, सब कुछ कहने के पीछे इस भावना से कोई कॉम्प्रोमाइज़ नहीं है कि हमारी किसी भी बहन या बेटी से ऐसा न हो जैसा हैदराबाद में हमारी बहन के साथ हुआ और कोई भी अपराधी ऐसा जघन्य अपराध करके इस दुनिया में एक भी पल चैन की सांस न ले पाए.
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