पुर्तगाली जंगल की आग से भारत ले सबक
पुर्तगाल में जंगल में आग लगने से मरने वालों की संख्या 62 हो गई है. अधिकांश लोग अपनी कारों से सुरक्षित क्षेत्र की ओर जाने की कोशिशों में मारे गए हैं. पुर्तगाल की यह भयानक तबाही का मंजर ग्लोबल वार्मिंग की चीख-चीख कर पुष्टि कर रहा है.
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दुर्भाग्यवश पुर्तगाल हाल के वर्षों का सबसे भीषण आग अर्थात् दावानल का सामना कर रहा है. पुर्तगाल में जंगल में आग लगने से मरने वालों की संख्या 62 हो गई है. अधिकांश लोग अपनी कारों से सुरक्षित क्षेत्र की ओर जाने की कोशिशों में मारे गए हैं. ये लोग देश के पूर्व राजधानी कोइंब्रा से 50 किमी दक्षिण-पूर्व स्थित पेड्रोगाओ ग्रैंड इलाके से निकलने की कोशिश कर रहे थे. करीब 600 से ज्यादा अग्निशमन कर्मी आग बुझाने में लगे हैं, लेकिन आग बुझने के स्थान पर बढ़ ही रहा है. बहुत से स्थानों पर बचावकर्मी अभी नहीं पहुंच पाए हैं इसलिए मृतकों की संख्या बढ़ने की पूरी संभावना है.
अभी पुर्तगाल में भयंकर गर्मी हो रही है, ऐसे में जंगल में भीषण आग ज्यादा आश्चयर्जनक नहीं है. इसी माह जब अमेरिका ने पेरिस समझौते से अलग होते हुए, जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को मानने से इंकार किया, तभी से पुर्तगाल की यह भयानक तबाही का मंजर ग्लोबल वार्मिंग की चीख-चीख कर पुष्टि कर रहा है. इसके पूर्व चिली में भी इसी सप्ताह जंगल की आग में झुलसकर कम से कम 7 लोगों की मौत हुई, जबकि 1500 से ज्यादा घर जलकर भस्म हो गए थे. इस घटना तथा विश्व में लगातार हो रहे मौसम परिवर्तन संबंधी घटनाओं से स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर संकट है, ऐसे में संपूर्ण विश्व समुदाय को मिलकर इससे संघर्ष करना ही होगा.
पुर्तगाली जंगल में आग से भारत के लिए सबक
ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्यावरण में जिस तरह के व्यापक परिवर्तन हुए हैं, उससे भारत के हिमलयी क्षेत्र के जंगल को भी आग का खतरा सदैव बना रहता है. मौसम परिवर्तन के अतिरिक्त लोगों का प्रकृति के प्रति शोषण का रवैया अथवा उदासीन रवैए ने भी मामले को और गंभीर बना दिया है. पिछले वर्ष जिस तरह से उत्तराखंड को भीषण दावानल का सामना करना पड़ा, वह हम लोगों को भूलना नहीं चाहिए. पिछले वर्ष उत्तराखंड की आग से 3500 हेक्टेयर से ज्यादा वन संपदा आग के हवाले हो गयी थी. यह तो गनीमत रही कि इसमें पुर्तगाल के तरह प्रत्यक्षतः व्यापक मानव जीवन को नुकसान नहीं पहुंचा. अंतत: आग के बचाव के लिए हेलीकॉप्टर से पानी का भी प्रयोग करना पड़ा.
उत्तराखंड के जंगलों में पिछले साल लगी थी भीषण आग
इस वर्ष भी पर्वतीय क्षेत्रों से निरंतर आग लगने की समाचार आ रहे हैं, यह अलग बात है कि हजारों हेक्टेयर वन संपदा का नुकसान मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पा रहा है. जंगल की आग पुर्तगाल की तरह भारत में मानव जीवन को चपेटे में नहीं ले, इसके लिए काफी तैयारियों की भी आवश्यकता है. अभी कुछ दिन पूर्व ही हरिद्वार में राजा जी टाइगर रिजर्व में मनसा देवी मंदिर के निकट भयंकर आग लगने से हाथियों का समूह शहर की ओर आ गया था. जून में ही चंबा मुख्यालय तथा इसके आसपास के घने जंगलों में भयावह आग ने कई ग्रामीण क्षेत्रों को भी अपेने चपेटे में लिया. उत्तराखंड में वन विभाग के तमाम दावों के बीच इस वर्ष 4 माह में ही दावानल की कम से कम 785 घटनाओं में 1216 हेक्टेयर जंगल की आग की भेंट चुके हैं. कुछ आंकड़ों के अनुसार करीब 2000 हेक्टेयर से ज्यादा वन आग की भेंट चढ़ चुके हैं.
दावानल से निपटने हेतु जहां जलवायु परिवतर्न की समस्या से वैश्विक तौर पर निपटने की जरुरत है, वहीं स्थानीय स्तर पर भी पूर्वनियोजित तैयारी की आवश्यकता है. पेरिस समझौता से बाहर आते समय ट्रंप ने जो आधारहीन आरोप भारत पर लगाए थे तथा प्रधानमंत्री ने जवाब में तर्क दिया था कि भारतीय दर्शन एवं मूल्य करीब 5 हजार वर्षों से पर्यावरण संरक्षण के मूल्यों को स्थापित कर रही है. सच में अगर दावानल जैसी गंभीर समस्या से निपटना है तो प्राचीन भारतीय पर्यावरणीय मूल्यों को फिर से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है, जो बाजारवाद एवं उपभोक्ता वाद में खोता चला जा रहा है. हमें सदैव महात्मा गांधी के इस कथन को स्मरित रखना चाहिए कि प्रकृति हमारे आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है, लालच को नहीं.
पुर्तगाल में आग बुझाता शख्स
भारतीय दावानल से केवल जंगल का भौतिक नुकसान ही नहीं होता अपितु यह हमारे संवृद्ध जैव विविधता सहित बहुमूल्य आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों को भी व्यापक नुकसान पहुंचाते हैं. मौसम परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेप के अतिरिक्त हिमालयी वनों में आग का प्रमुख कारण चीड़ के जंगल और लैटाना की झाड़ियां भी हैं. चीड़ के पत्तों में एक विशेष ज्वलनशील पदार्थ होता है, जिससे गर्मी के मौसम में तो चीड़ के पत्ते आग में घी का काम करते हैं. इसके अतिरिक्त लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियां भी कम जिम्मेवार नहीं हैं. भारत में करीब 40 लाख हेक्टेयर में लैंटाना की झाड़ियां फैली हुई हैं. इसके अतिरिक्त जाड़ों के समयावधि का निरंतर कम होना तथा गर्मी की अवधि में लगातार वृद्धि भी प्रमुख कारण हैं.
भारत में वन विभाग आग की घटनाओं को रोकने के लिए पहले तो अग्निरेखा खींचता है. इसकी चौड़ाई 10-20 मीटर होती है. इस पट्टी में कोई पेड़ नहीं होता, खुला मैदान होता है. परंतु वन विभाग की अधिकांश तैयारी कागजों पर रह जाती हैं. अगर कुछ तैयारी होती भी है तो वनवासियों एवं वन विभाग के आरोप-प्रत्यारोपों के बीच वह भी बेकार चला जाता है. इस संपूर्ण मामले में प्रकृति और मानव के सहअस्तित्व की हमारे हजारों वर्ष पूर्व संस्कृति ही हमारे वनों को सुरक्षित रख सकती है. अगर हम अब भी सावधान नहीं हुए तो फिर पुर्तगाल के तरह भारी कीमत चुकाने को तैयार रहना होगा.
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