क्या होता है जब निरंकुश विधायिका छीन लेती है, मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
हाल फिलहाल की घटनाएं साफ़ इशारा कर रही है हैं कि लोकतंत्र का एक स्तम्भ विधायिका पूर्णतः निरंकुश हो गया है. और विजय वर्मा की गिरफ्तारी के बाद कह सकते हैं कि अब मीडिया के लिए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती नजर आ रही है.
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बीते दो दिनों में देश के दो मंत्रियों की करतूतें यूपी और छत्तीसगढ़ से सामने आई हैं और दोनों ही लोकतंत्र को शर्मसार कर देने वाली हैं. तीसरा मामला राजस्थान का है, जहां मीडिया की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिशें जारी हैं. बदकिस्मती यह है कि मंत्री बीजेपी के हैं और राजस्थान में भी बीजेपी की सरकार है. इस मामले में सरकारों की आश्चर्यजनक चुप्पी जख्मों पर नमक रगड़ने की मानिंद है. ऐसे में मशहूर शायर फैज़ का अभिव्यक्ति की आजादी पर लिखा गया शेर बेमानी साबित होता दिख रहा है, “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बाँ अब तक तेरी है.”
छत्तीसगढ़ के मंत्री राजेश मूणत की निजता पब्लिक डोमेन में आ चुकी एक सीडी के कारण ऐसी खतरे में पड़ी कि छत्तीसगढ़ पुलिस को पत्रकार विजय वर्मा को गिरफ्तार करने के लिए सुबह साढ़े तीन बजे, उनके गाजियाबाद स्थित आवास पर छापा मारना पड़ा. यह कार्रवाई कानूनी कम और राजनैतिक अधिक है. क्योंकि वे छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल के सोशल मीडिया प्रभारी भी हैं. एक स्वतंत्र पत्रकार अपनी आजीविका के लिए अगर किसी राजनैतिक दल को अपनी सेवाएं देता है तो गलत नहीं है. कम से कम वे उन पत्रकारों से बेहतर है जो निष्पक्ष होने का दावा कर किसी पार्टी विशेष के एजेंडे पर खबरें लिखते हैं. ऐसे आरोपों की सोशल मीडिया पर भरमार है.
विजय वर्मा की गिरफ़्तारी के बाद प्रश्न उठता है कि पत्रकार को गिरफ्तार करना कितना न्यायसंगत है
क्या खबर के लिए पाई गई एक सेक्स क्लिप के होने के चलते पत्रकार को गिरफ्तार करना न्यायसंगत है? सेक्स क्लिप तो मंत्री के खिलाफ सबूत के तौर पर काफी पुख्ता मानी जाएगी, जबकि रंगदारी वसूलने का मंत्री का आरोप मुंहजबानी है. एक सबूत जो सामने है उसको दरकिनार करते हुए मुंहजबानी आरोप पर पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया. अगर इस मामले में इतनी ही जल्दी थी तो मंत्री जी को हिरासत में लेकर उनसे क्यों नहीं पूछताछ की गई?
सिर्फ इसलिए कि वे संवैधानिक पद पर बैठे हैं. ऐसे में पुलिस को समझदारी से काम लेते हुए मंत्री से भी पूछताछ करनी चाहिए थी और विनोद वर्मा के खिलाफ रंगदारी मांगने के सबूत एकत्र करने चाहिए थे न कि सिर्फ मंत्री के आरोप पर रात के अंधेरे में पत्रकार की गिरफ्तारी करनी चाहिए थी. आम जनता की रिपोर्ट तक न दर्ज करने वाली पुलिस की सक्रियता देखिए कि छत्तीसगढ़ पुलिस हजारों किलोमीटर का सफर कर रात के अंधेरे में गिरफ्तार करने पहुंच गई.
वहीं बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश में मंत्री जी की हरकत भी जान लीजिए, कारागार राज्य मंत्री ने जो उरई में किया वो मतदाता का सर शर्म से झुका देगा. मंत्री जी ने किसान की बोई हुई फसल को अपने काफिले के नीचे इसलिए रौंद दिया क्योंकि उन्हें शॉर्टकट लेना था. मंत्री जी गौशाला का शिलान्यास करने जा रहे थे ताकि उसके बन जाने के बाद आवारा जानवरों को उसमें रखा जा सके. अब इससे ज्यादा क्रूर मजाक और क्या होगा कि मंत्री जी के काफिले ने ही आवारा जानवर सी हरकत कर दी.
मामले ने जब तूल पकड़ा तो दस हजार से ज्यादा के हुए नुकसान की भरपाई के लिए मंत्री जी द्वारा किसान की जेब में चार हजार रुपए ठूंस दिए गए. क्या मंत्री जी के ऊपर किसी की निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने का अपराध नहीं बनता. लेकिन कोई इस मुद्दे पर बोलेगा नहीं क्योंकि मामला 'वीआईपी-पने' का है. मंत्री जी ने बुन्देलखण्ड के उस अभिशप्त इलाके में ऐसी शर्मनाक हरकत की है जहां अन्नदाता कर्ज लेकर खेती करता है और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में खुद की जिन्दगी खत्म कर लेता है.
अब राजस्थान में में पत्रकार किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ रिपोर्टिंग नहीं कर पाएंगे
उधर राजस्थान की सरकार अपने आधीन काम कर रहे लोकसेवकों को बचाने के लिए क्रिमिनल लॉज (राजस्थान अमेंडमेंट) बिल 2017 ले आई है. वसुंधरा राजे की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार इस बिल के जरिये चाहती है कि राज्य के किसी जज, मजिस्ट्रेट और सरकारी कर्मचारी के खिलाफ उनसे जुड़े किसी मामले में जांच से पहले उनकी रिपोर्टिंग नहीं की जा सकेगी. इस बिल के पास होकर कानून बन जाने के बाद भी चैनल, अखबार या वेबसाइट भ्रष्टाचार के आरिपी अधिकारियों के खिलाफ न तो खबर टेलीकास्ट कर पाएगा और न ही पब्लिश कर पाएगा, ऐसी खबरों की रिपोर्टिंग के लिए उसी विभाग के आला अफसरों की मंजूरी लेनी होगी.
अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ऐसी खबरों की रिपोर्टिंग करने वाले मीडियाकर्मियों के प्रति सरकार और पुलिस का रवैया किस तरह होगा. पत्रकार को रिपोर्टिंग करने के लिए मंत्रियों और अफसरों से इजाजत लेनी होगी लेकिन प्रश्न ये है कि पत्रकार के खिलाफ मामला दर्ज करने से पहले प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया से इजाजत क्यों नहीं लेतीं सरकारें?
क्या ये घटनाएं नहीं बता रहीं कि लोकतंत्र का एक स्तम्भ विधायिका किस तरह निरंकुश होती जा रही है और मीडिया की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है. बेहतर होता सरकारें सोशल मीडिया पर चलने वाले फर्जी खबरों को रोकतीं और मीडिया कर्मियों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से पहले संबंधित पब्लिकेशन और प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया से सम्पर्क साधने का नियम बना देतीं ताकि ये संस्थाएं अपने स्तर पर जांच कर दोषी पाए जाने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई की संस्तुति दे सकें. इसी न केवल फर्जी रिपोर्टिंग करने पर रोक लगेगी बल्कि चौथे स्तम्भ की स्वतंत्रता भी बरकरार रहेगी.
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