मेरे बचपन को ज़िन्दगी देने के लिये बहुत शुक्रिया राहुल बजाज!
Bajaj Scooters: आपको अंदाज़ा भी न होगा कि आपने स्कूटर के रूप में क्या अनमोल तोहफ़ा दिया था. वह जिसे मैंने भरपूर जिया, जिसे याद कर आज कुछ लिखते वक़्त आंखें डबडबा गयीं. आपका ताउम्र शुक्रिया राहुल बजाज!
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मैं घर में बड़ी हूं. मुझसे बड़ी घर में दो ही चीज़ें थीं. एक याशिका का कैमरा और दूसरा हमारा बजाज स्कूटर. यूं तो मुझसे पहले कई चीज़ें उस घर में आयी होंगी लेकिन मेरी दिलचस्पी इनमें रही सो मैं इन दोनों को ही ख़ुद से बड़ा मानती हूं. मुझे स्कूटर का नंबर याद है. सन् 1986 में लिया था डैडी ने, स्लेटी रंग था. कैमरा हाथ में तब आया जब थोड़ी बड़ी हुई, स्कूटर से तो पैदा होने के साथ ही यारी हो गयी थी. जो मुझे जानते हैं उन्हें यह पता है कि मेरी याददाश्त बेहद अच्छी रही है. अब भी कोई चीज़ दोबारा पढ़ने की ज़रूरत कम ही पड़ती है. ढाई-तीन साल की थी, डैडी के साथ डेली मार्केट जाना होता था. मुझे नहीं पता डैडी क्या-क्या ख़रीदते थे. बहुत बोरिंग चीज़ें थीं, अब वो ज़रूरत की चीज़ें लगती हैं.
मैं उनकी बात तभी सुनती जब वो चॉकलेट मांगते. हर रोज़ मैं दो चॉकलेट्स ख़रीदकर लाती थी, एक अपने लिये, दूसरी मम्मी के लिये. ये लिखते वक़्त याद आ रहा है कि मम्मी के लिये लायी चॉकलेट मैं अगली सुबह ख़ुद खाती थी. तब नहीं पता होता था कि कहां से आयी है. डैडी कहीं भी जा रहे हों, अगर वो वर्दी में न होते, ड्यूटी पर न जाते तो मैं उनके साथ जाउंगी यह अनसेड रूल था.
तमाम भारतीय हैं जिनकी राहुल बजाज और उनके स्कूटर से तमाम यादें हैं
मैन्युफ़ैक्चरर्स चाहें कितनी भी मेहनत करके सारे स्कूटर्स एक जैसे बनाते हों, मैं अपने स्कूटर की आवाज़ बहुत दूर से पहचान जाती थी. तब इतना शोर-शराबा भी नहीं होता था, 90s का दौर था, अमूमन लोग साइकिल से ही चलते थे. कई बार मैं देखती कि डैडी जब स्कूटर स्टार्ट करते तो बच्चे देखने लगते, तब मुझे लगता एलिज़ाबेथ की दादी मैं ही हूं जो मुझे स्कूटर पर रोज़ घूमने को मिल रहा है.
आत्मविश्वास बचपन से ही लबालब था और लॉजिक तो पूछो मत! मैंने मम्मी को स्कूटर पर पीछे बैठते देखा. नोटिस किया कि वो स्कूटर नहीं चलाती हैं, डैडी चलाते हैं (डैडी ने उन दिनों उनसे ड्राइविंग सीखने की ख़ूब ज़िद की लेकिन मेरी माताजी से न हुआ, ये कहानी कभी और) तो मैंने ये समझ लिया कि पीछे बैठने वाला नहीं चलाता, आगे वाला ड्राइव करता है.
मैं जब भी डैडी के साथ जाती तो आगे बैठती, तीन साल के बच्चे को पीछे बिठाने का रिस्क कोई क्यों ले. तो मेरा कॉन्सेप्ट क्लियर था कि आगे मैं बैठी हूं मतलब स्कूटर मैं चला रही हूं. चार-पांच वर्ष तक पहुंचते मेरा यकीन पुख़्ता हो चला था. उस दिन मेरा यकीन एसीसी सिमेंट जितना मज़बूत हुआ जिस दिन डैडी का एक्सिडेंट हो गया था. सन् 1996-97 की बात होगी.
अगल-बगल कोई गाड़ी नहीं थी दुर्घटना के लिये क्योंकि गोरखपुर में उन दिनों गाड़ियां ही कम थीं तो सांड ने ड्यूटी निभायी. डैडी को मामूली चोट आयी थी लेकिन मैंने समझ लिया कि आज स्कूटर मैंने ड्राइव नहीं की इसलिए ऐसा हुआ. मैंने उन्हें डांटा, मुझे लेकर क्यों नहीं गये? जाते तो तुम्हें भी चोट लगती न बेटा, उन्होंने सेर भर प्यार उड़ेलते हुए कहा.
नहीं लगती, मैं होती तो आपको भी नहीं लगती - मैंने सख़्ती से कहा. अब आप कहीं नहीं जाएंगे, मुझे चॉकलेट भी नहीं चाहिए - मेरी बात पूरी हो गयी. कमाण्ड देने की आदत बचपन से है. स्कूटर स्टैण्ड पर होता था तो मम्मी मना करती थीं कि उसपर मत बैठो. मुझे लगता था मना क्यों कर रही हैं, डैडी का है मतलब मेरा है, मैं तो बैठूंगी.
वो समझाती थीं कि गिर जाएगा इसलिए डरती हैं. मैंने कभी गिरते देखा ही नहीं था और मम्मी को ड्राइविंग आती नहीं थी तो यहाँ भी मेरा कॉन्सेप्ट क्लियर था कि कभी गिरेगा ही नहीं. डैडी के साथ जब भी स्कूटर पर होती तो जैसे ही स्कूटर आगे बढ़ता मेरे हाथ हैंडल पर होते. एक दिन मैंने हैंडल के बजाय मीटर पर हाथ रखा था और स्कूटर बढ़ गया.
मैंने डैडी को तुरंत कहा - मुझे पकड़ने तो दीजिए, कैसे चलाऊंगी. डैडी ने पहली बार सुना की उनकी औलाद ड्राइव कर रही है, तुम्हें चलाना आता है? उन्होंने पूछा. हां, मैं ही तो चला रही हूं, आप तो पीछे बैठे हैं - मेरा जवाब था. जब भी स्कूटर खड़ा होता और मैं देखती कि मम्मी की नज़र मुझपर नहीं है (जो कि सैटेलाइट की तरह मेरी जासूसी करती थीं) तो मैं किक स्टार्ट लिवर आज़माने की कोशिश ज़रूर करती.
मैं उसे किक करने की कोशिश करती, कई बार तो उसी पर खड़ी हो जाती लेकिन लिवर एक इंच भी न हिलता था. फिर डैडी को किक स्टार्ट करते ख़ूब ग़ौर से देखती कि ऐसी कौन-सी निंजा टेक्निक का इस्तेमाल वो कर रहे हैं जिससे मुझे वंचित रखा गया है. कुछ समझ न आता था. किक करने की कोशिश तो करती थी लेकिन जब खड़े होने पर लिवर न हिलता था तो क्या ही किक करूंगी.
थोड़ा अफ़सोस हुआ, डैडी स्टार्ट करते हैं उसके बाद ही मैं ड्राइव करती हूं. पूरी ड्राइवर नहीं हूं, अपने डिमोशन पर अफ़सोस हुआ. फिर कहीं बाहर जाते हुए स्कूटर पर बैठकर सारे बटन देख रही थी और कुछ समझ नहीं आ रहा था. बस एक चीज़ समझ आयी, वो है ट्रम्पेट का सिंबल. मैं चहक उठी, इसे तो मैंने देखा है.
दबाया तो हॉर्न बजा, डैडी ने तुरंत टोका - हॉर्न क्यों बजा रही हो. डांट की किसे पड़ी थी, मैं तो इसमें ख़ुश थी कि ड्राइव तो अपुन ही करती है, डैडी को पताइच नई है. नवनीत (भाई) जब बड़ा होने लगा तो एक दिन स्कूटर पर बैठा था. मम्मी ने देखते ही डांटा तो मैंने ऐसे देखा जैसे - मुझे पता था यही होना है.
उससे उसी वक़्त एक बच्चे ने ख़ूब उत्सुकता से पूछा - तुम स्कूटर चला लेते हो? भाई ने क़रीब दो क्विंटल एटिट्यूड के साथ कहा - वो तो नर्सरी के बच्चे भी चला लेते हैं, मैं तो एलकेजी में हूं. मैं मान गयी मेरा ही भाई है. मैं 11th क्लास में थी जब स्कूटर बेचा जा रहा था क्योंकि कई साल से पड़ा था, कोई चलाता नहीं था.
लेकिन इसके सारे पार्ट्स तो सही हैं डैडी तो बेच क्यों रहे हैं, नहीं बेचिए न! पड़ा ही रहता है न, पड़े-पड़े ख़राब होता रहेगा इससे अच्छा कोई चला ले. नहीं! इसपर मेरा बचपन बीता है, ये मेरी मेमोरीज़ की निशानी है, स्कूटर यहीं रहेगा डैडी. मैंने एक सांस में कह दिया. तुम 9th में थी तबसे यही सुन रहे हैं. रखे-रखे ख़राब हो जाएगा फिर किसी के काम का नहीं होगा - मम्मी ने कहा.
तो क्या होगा! काम का नहीं होगा तो बेच देंगे? इतना सेल्फ़िश कौन होता है! रहने दीजिए न. अब मम्मी 2 किलो अमूल बटर के साथ आयीं - हम समझ रहे हैं बेटा तुमको रखने का मन है लेकिन यहां पड़े रहने से क्या हो जाएगा. बाहर देखो वो अंकल आये हैं, उनको उम्मीद होगी न कि स्कूटर मिल जाएगा, उनके काम आयेगा. बेच थोड़ी रहे हैं, उनको दे रहे हैं.
मैंने देखा एक अंकल खड़े थे जिनकी आंखों में पता नहीं कैसी उम्मीद थी, होंठों पर चुटकी भर मुस्कान और वो स्कूटर को देख रहे थे, थोड़ा दुलारते हुए. डैडी वहीं कुछ डॉक्युमेंटेशन कर रहे थे ताकि अंकल को स्कूटर ले जाते वक़्त कोई रोके नहीं. मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी, अंकल की उम्मीद और अपनी मेमोरीज़ में से एक ही चुन सकती थी.
बाहर गयी, स्कूटर के दोनों हैंडल को बाहों में समेटा, मीटर पर सिर रखा, किस्स किया, गले लगकर वापस कमरे में आ गयी. शाम से पहले बाहर नहीं निकली, लगा कि कोई सगा जिसने निःस्वार्थ प्रेम किया था, मुझे छोड़कर चला गया है. आपको अंदाज़ा भी न होगा आपने क्या अनमोल तोहफ़ा दिया था. वह जिसे मैंने भरपूर जिया, जिसे याद कर आज भी यह लिखते वक़्त आंखें डबडबा गयीं. शुक्रिया राहुल बजाज!
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