खबरी जब खुद खबर बनने लगे तो समझो मामला गड़बड़ है
जिन पत्रकारों को फैसले सुनाने का शौक है वो न्यायपालिका में चले जायें. एक्टिविस्ट रहना है तो एनजीओ खोल लें. एक दूसरे पर कीचड़ उछालनी है तो फिर चुनाव लड़ लें. लेकिन कृपया पत्रकारिता को पावन रहने दें.
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भारतीय लोकतंत्र की एक अजब खासियत है. इसके चार स्तंभ एक दूसरे के पूरक हैं. विधायिका अगर गलती करे तो न्यायपालिका सुधार करती है. कार्यपालिका अगर लचर हो जाये तो मीडिया जगाने का काम करता है. यानि हर स्तंभ पर नजर लगातार बनी रहती है. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में सबकी आंखों का न्यारा बन पाना मुश्किल है. यहां बात मीडिया की करना चाहुंगा. खासकर टीवी न्यूज के चमकते सितारों की.
अलग पंथ, भाषा, वाले इस देश में कुछ लोग आपको सराहेंगे तो कुछ कठघरे में खड़ा करेंगे. इससे उत्साहित या विचलित नहीं होना ही पत्रकार की सही पहचान है. लेकिन हाल फिलहाल की कुछ घटनायें इस पेशे पर सवालिया निशान खड़ा कर रहीं हैं. खबरी जब प्राईम टाईम पर एक दूसरे पर छींटाकशी करने लगे तो समझो इस विशाल देश की समस्यायों को उजागर करने की कीमत पर खुद खबर बन रहे हैं.
एक्टिविज़्म पर उतारू हैं पत्रकार |
पत्रकार और एक्टिविस्ट में अंतर होना ही चाहिये. पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट नहीं बना जा सकता. बेशक पत्रकारिता एक धंधा है लेकिन कुछ लोगों के एक्टिविज्म की वजह से इसे गंदा पेश किया जाने लगा है. सही बात है कि आजादी के दिनों वाली बिन पैसे लिये देश के जुनून वाली पत्रकारिता के दिन लद गये हैं. लेकिन ये धंधा आज भी पैसे से कम, जुनून से ज्यादा चलता है. जुनून गलत को गलत और सही को सही साबित करने का. शोषित को न्याय दिलाने, और दोषी को सजा दिलाने का.
ऐसे में जाहिर है सत्ता से जुड़े लोगों को ये परेशान करेगा ही. वो आपको प्रेस्टिट्यूट सरीखे नाम देंगे, न कि पुरस्कार. मुझे याद है 1994 में एक दैनिक में मेरी लिखी खबर पर सरकार ने नोटिस थमा दिया तो मैं थोड़ा सहम गया था. तब संपादक ने मेरी पीठ थपथपा कर कहा कि सत्ता पक्ष आपकी तारीफ के बजाये नोटिस दे तो पत्रकारिता में सम्मान माना जाता है. लेकिन आज एक तबके में अजब होड़ लगी है, खुद को सत्ता के करीब साबित करने की. कहते भी हैं कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या.
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एक और तबका है जो तथाकथित सेक्युलरिजम के नाम पर एक वर्ग विशेष का ही दर्द समझता, दिखाता है. दूसरे पक्ष का मानो कोई दर्द ही नहीं है. उनकी समस्या दिखाई ही नहीं देती. ये परिस्थितियों को और बिगाड़ रहा है. पत्रकारिता खासकर टीवी की, दर्शकों पर खासा असर छोड़ती है. लिहाजा खबर के दोनों पक्ष दिखाना, पत्रकारिता का नियम है. दोनों पक्ष जनता के सामने रख दें. जज बनकर फैसला न सुनाएं. जनता समझदार है खुद समझ जायेगी. ये हमें सिखाया गया था. आज ये समस्या भी चुनौती बन कर सर पर मंडरा रही है.
लोकतंत्र विरोधी ताकतें मीडिया को अप्रासंगिक साबित करने में हमेशा लगी रहती हैं. सोशल मीडिया इसका पर्याय बनता जा रहा है. सोशल मीडिया जहां खबर की सत्यता, प्रामाणिकता देखे बगैर कुछ भी छाप दीजिये, वायरल हो जाती है. ऐसी गंभीर चुनौतियों के बीच अगर टीवी न्यूज के कुछ सितारे खुद खबर बनते रहें, प्रतिद्वंदी को नीचा दिखाने की होड़ में जुट जायें, जज बनकर फैसले सुनाने लगें, पत्रकारिता की आड़ में एक्टिविज़्म पर उतारू रहें, तो वो इस धंधे को गंदा कर रहें हैं. फैसले सुनाने का शौक है तो न्यायपालिका में चले जायें. एक्टिविस्ट रहना है तो एनजीओ खोल लें. एक दूसरे पर कीचड़ उछालनी है तो फिर चुनाव लड़ लें. लेकीन कृपया पत्रकारिता के इस पावन धंधे को और गंदा न करें.
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