आपका हर फैसला सिर आंखों पर मीलॉर्ड लेकिन बेवजह टिप्पणी कदापि नहीं
बिना किसी संदर्भ के पता नहीं क्यों विद्वान न्यायमूर्ति वन लाइनर टिप्पणी कर बैठे कि मीडिया उनकी ही फाइंडिंग बताने लगा,'...I hope I don't get misquoted, but in the ranking, we are now at 161, in terms of journalistic freedom.'
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और जब शीर्ष न्यायालय के माननीय जस्टिस के एम जोसेफ ने बात निकाल ही दी है तो दूर तलक जायेगी ही. भले ही उन्होंने क्वालीफाई कर दिया हो कि, 'आशा है मुझे गलत नहीं समझा जाएगा'. अन्यथा ना लें यदि सुप्रीम कोर्ट के लिए उनकी नियुक्ति पर पूर्व में कॉलेजियम और सरकार के कनफ्लिक्ट में 'उनकी' टिप्पणी की वजह ढूंढ ली जाये तो. आखिर फ्रीडम ही तो है, कुछ तो लोग कहेंगे ही. बिना किसी संदर्भ के पता नहीं क्यों विद्वान न्यायमूर्ति वन लाइनर टिप्पणी कर बैठे कि मीडिया उनकी ही फाइंडिंग बताने लगा,'Weekly, there are one lakh newspapers in India. I hope I don't get misquoted, but in the ranking, we are now at 161, in terms of journalistic freedom.'
और मीडिया ने उनके 'कहे' पर सनसनी नुमा हेडलाइन मैनेजमेंट कर लिया. कुछ बानगियां हैं -
Supreme Court says India ranked 161 in terms of journalistic freedom - Bar & Bench
SC judge says India ‘now at 161’ on press freedom, solicitor general says depends on who ranks it - Newslaundry
Supreme Court Cites Widely Discredited Report On Press Freedom That Ranks India Below Pakistan, Afghanistan - Swarajyamarg
आखिर न्यायमूर्ति ने टिप्पणी की ही क्यों ? क्या पिछले साल गुजरात सरकार द्वारा बिलकिस बानो के दोषियों को दी गई छूट को चुनौती देने वाली याचिकाओं के मामले में प्रतिवादियों को नोटिस के लिए समाचार पत्र प्रकाशन का आर्डर पास करने के लिए इस टिप्पणी का कोई औचित्य था भी ? उत्तर बिलकुल 'ना' है. माननीय जस्टिस का कमेंट तो एकदम आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट था. फिर बात उनकी टिप्पणी पर ही खत्म नहीं हुई.
जस्टिस केएम जोसेफ ने जो कहा है उसपर बात होना तो बनता है
याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश एक्टिविस्ट वकील वृंदा ग्रोवर ने देर नहीं लगाई कहने में, 'हां, हम बहुत तेजी से गिरे हैं.' हालांकि, सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने न्यायमूर्ति के 'कहे' पर आपत्ति जताते हुए संक्षिप्त सा लेकिन सटीक और सही जवाब दिया, 'यह इस बात पर निर्भर करता है कि रेटिंग कौन दे रहा है ? यह व्यक्ति पर निर्भर करता है. मैं अपना फॉर्म रख सकता हूं और भारत को पहला स्थान दिला सकता हूं.'
आगे 'शायद ही ...' जोड़ते हुए SG ने बिना बोले ही बहुत कुछ कह दिया. इन दिनों माननीय जजों का बेवजह ही टिप्पणियां करने का दौर सा चल रहा है उनके अहम् को संतुष्टि मिलती होगी लेकिन न्याय व्यवस्था के लिए निश्चित ही सेटबैक होती हैं ! दरअसल मामले की सुनवाई के दौरान इन बातों को लाना ही अप्रासंगिक था.
न्यायमूर्ति क्योंकर सहमत हो गए एक ऐसी रिपोर्ट से जिसकी प्रमाणिकता स्वतः ही सवालों के घेरे में आ जाती है जब यह भारत(161) को पाकिस्तान(150), अफगानिस्तान(152), लीबिया(149), सूडान(148), श्रीलंका(135), रवाडा (131) के पीछे बता दे रहा है ?
इसी तारतम्य में महामहिम रामनाथ कोविंद का एक जजों के सम्मलेन में 'कहा' याद आ जाता है, 'न्यायाधीशों के लिए आवश्यक है कि...वे अदालतों में अपने बयानों में अत्यधिक विवेक का इस्तेमाल करें। अविवेकपूर्ण टिप्पणी...भले ही अच्छे इरादे से की गयी हो, लेकिन यही असावधानी न्यायपालिका को नीचा दिखाने के लिए संदिग्ध व्याख्याओं को जगह देती है, बायस्ड व्यक्तित्वों को मौका देती है ।"
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक एक विदेशी(फ्रांस) गैर-सरकारी संगठन 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' द्वारा जारी किया जाता है. देखना दिलचस्प होगा इसकी रिपोर्ट के निष्कर्ष कैसे निकाले जाते हैं ? संगठन की मेथोडोलॉजी कितनी पारदर्शी है ? चूंकि विषय न्यायालय की टिप्पणी के औचित्य का है, सवाल पहले बनता है न्यायमूर्ति जोसेफ ने क्यों तत्परता दिखाई ? क्या वे देश के उस वर्ग की रिपोर्ट पर अतिरंजित ख़ुशी से अकारण ही प्रभावित हो गए ? चूंकि वे न्यायमूर्ति हैं, उनसे व्यक्तिगत हित,अनुभूति या शिकायत से ऊपर उठकर बात विचार रखा जाना अपेक्षित है.
आज ग्लोबली भी कौन विश्वास करेगा श्रीलंका , सूडान , लीबिया , पाकिस्तान , अफगानिस्तान, रवाड़ा में पत्रकारों को भारत से ज्यादा आजादी है और वे ज्यादा सुरक्षित है वहां ? स्वयं न्यायमूर्ति बता रहे हैं देश में 1 लाख न्यूज़पेपर्स हैं. पोस्ट इंडिपेंडेंस 200 की संख्या से 100000 तक की जर्नी बिना प्रेस की आजादी और सुरक्षा के क्या संभव थी ? और तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो पाकिस्तान में 1000 न्यूज़पेपर्स हैं, श्रीलंका में 70-75 और अफगानिस्तान में मात्र 14-15. स्पष्ट हैं पत्रकारों की जायंट संख्या है भारत में और ऐसा इसलिए है कि फ्री प्रेस है और प्रेसमैन सुरक्षित भी हैं.
तो फिर भारत की रैंकिंग क्यों सार दर साल गिरती जा रही है ? फ्रांस का ये एनजीओ 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' जार्ज सोरोस के ओपन सोसिस्टी फाउंडेशन द्वारा वित्त पोषित है. जार्ज सोरास वही हैं जिनपर भारत विरोधी तत्वों को मसलन PFI, अर्बन नक्सल्स , क्रिस्चियन मिशनरीज , और ऐसे कुछ ख़ास पत्रकारों, रिपोर्टरों और बुद्धिजीवियों को फंडिंग देने का आरोप है जिन्हें जब देखो तब भारत का लोकतंत्र और प्रेस हमेशा खतरे में दिखाई देता है. ओपन सोसाइटी फाउंडेशन भारत में 'वाचलिस्ट' में भी है.
भारत को नीचे रखने का इनका एजेंडा है और ऐसा क्यों है फिलहाल उस प्रश्न में नहीं जाते. इस रिपोर्ट को तैयार करने का पूरा फार्मूला ही गलत है. NGO के मुताबिक़ रिपोर्ट दो आधारों पर तैयार होती है - पहला आधार है पांच अलग अलग श्रेणियों मसलन पॉलिटिकल, इकनोमिक , लेजिस्लेटिव, सोशल और सिक्योरिटी, में हर देश के कुछ पत्रकारों से कई तरह के सवाल जवाब किये जाते हैं.
कुल मिलाकर यह एक तरह का सर्वे होता है, इस सर्वे के नतीजों को इस रिपोर्ट में 92 फीसदी की वेटेज मिलती है, जबकि किसी देश में पत्रकारों के खिलाफ कितने अपराध हुए , उस बात को, उन घटनाओं को सिर्फ आठ फीसदी वेटेज मिलती है. फिर सर्वे में वे ही पत्रकार शामिल होते हैं जो पहले से ही सरकार विरोधी एजेंडा चला रहे हैं.
प्रसंगवश जिक्र कर दें 2022 में स्वीडन की V -Dem नाम की संस्था की फाइंडिंग थी कि भारत दुनिया के दस सबसे बड़े तानाशाही देशों में से एक है. इस वी डेम को भी सोरोस से फंडिंग मिलती है. मकसद भारत की छवि ख़राब करना होता है अपने कुत्सित आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक इरादों को अंजाम देने के लिए. पहले भी जजों की अवांछित टिप्पणियां आती रही हैं लेकिन वे अक्सर मामलों को लेकर हुई हैं.
उदाहरणार्थ, तक़रीबन दो साल पहले जबलपुर हाई कोर्ट की इंदौर बेंच के विद्वान जस्टिस ने ने शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाने के मामले में आरोपी को जमानत नहीं देने का न्यायोचित और बिलकुल सही फैसला सुनाया लेकिन सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति की एक अनुचित टिप्पणी शर्मसार कर गई. पता नहीं वे क्यों बोल गए कि अपवादों को छोड़ दें तो भारत में विवाह के पहले बिना शादी के आश्वासन के लड़कियां फिजिकल नहीं होती.
एक और स्थिति का जिक्र कर दें जिसमें रेप के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बोवड़े को सफाई देनी पड़ गई जब उन्होंने अभियुक्त के जमानत की याचिका पर कह दिया, 'शादी करोगे तो मिलेगी बेल वर्ण सीधे जाओगे जेल'. क्योंकि इंटरप्रिटेशन निकाला गया कि न्यायालय रेप के लिए 'कोम्प्रोमाईज़' को एक समाधान मानती है. और यही हो रहा है न्यायमूर्ति जोसेफ के कमेंट पर. व्याख्या यही की जा रही है कि वे एक विवादास्पद संस्था के सर्वे की फाइंडिंग से सहमत हैं कि भारत प्रेस फ्रीडम के मामले में पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे बदतर देशों से भी पीछे है.
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