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Updated: 17 जून, 2018 06:46 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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अगर किसी लड़की की स्कर्ट हवा से थोड़ी सी भी उड़ जाए तो उसका असहज होना स्वाभाविक होता है. लेकिन जरा सोचिए कि उन लड़कियों को कैसा लगता होगा जब कोई लड़का उनकी स्कर्ट के नीचे मोबाइल लगाकर तस्वीर खींच लेता होगा.

हो सकता है कि ये बात आपको समझ न आए, इसलिए ये तस्वीर देख लीजिए और फिर सोचिए कि लोग कैसे इस तरह की घटना को अंजाम देते हैं.

upskirtingये इतने चुपके से होता है कि लड़कियों को पता भी नहीं चलता

अपस्कर्टिंग -

है न घिनौना? इसे 'अपस्कर्टिंग' कहते हैं यानी स्कर्ट के नीचे से खींची गई फोटो. पिछले कुछ समय से इस नाम की चर्चा इंटरनेशनल मीडिया में होने लगी है. इंटरनेशनल का मतलब ये न समझिएगा कि ये मामला सिर्फ विदेश का है. हां, ये शब्द वहीं का दिया हुआ है और आजकल काफी चर्चित भी हो रहा है. लेकिन ये मामला हर उस लड़की से जुड़ा हो सकता है जो स्कर्ट पहनती है.

उस लड़की की कहानी जिससे इस मामले ने आंदोलन का रूप लिया-

ब्रिटेन की एक लड़की जीना मार्टिन के साथ जब ये सब एक म्यूज़िक फ़ेस्टिवल के दैरान हुआ तो वो इस मामले को लेकर पुलिस में गईं. पुलिसवालों ने ये कहते हुए कुछ भी कार्रवाई करने से मना कर दिया कि ये कानूनन अपराध की श्रेणी में नहीं आता. फिर जीना ने इस मामले को फेसबुक पर डाला, जो वायरल हो गया. उन्हें बहुत सी लड़कियों ने अपनी आपबीती सुनाई, तब जीना को अहसास हुआ कि ये कोई छोटी समस्या नहीं है. और फिर शुरुआत हुई इसके खिलाफ अभियान चलाने की.

ब्रिटेन में इसे लेकर महिलाओं ने आवाज उठाना शुरू कर दिया. क्योंकि वहां के लड़के बेशर्म होकर इस तरह की तस्वीरें खींचा करते हैं, बेशर्मी इसलिए क्योंकि वहां अपस्कर्टिंग को अपराध नहीं माना जाता. और जो चीज अपराध ही नहीं उसके लिए भला लोग क्यों शर्म करेंगे. फिर तस्वीर लेकर उसे देखकर हंसना और दोस्तों संग शेयर करना, किसी भी लड़की के लिए अपमान के घूंट पीने जैसा होगा.

क्या ये एक तरह का यौन शोषण नहीं है? लेकिन इसके लिए कोई कानून नहीं. लोगों की मानसिकता इती विकृत है कि इस शर्मनाक हरकत की शिकार सिर्फ महिलाएं नहीं बल्कि 10 साल की उम्र की लड़कियां तक बन रही हैं.

upskirting

ब्रिटिश संसद में उठा मामला

इस अभियान की बदौलत ब्रिटेन की संसद में इस मामले पर एक नया कानून बनाने का मुद्दा उठा. ब्रिटेन ने 'अपस्कर्टिंग' पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक नया कानून लागू करने की योजना बनाई, जिसमें आरोपियों को दो साल तक की जेल की सजा हो. लेकिन संसद में इस बिल पर बहस के दौरान कंसर्वेटिव सांसद सर क्रिस्टोफर चोप ने इसे ब्लॉक कर दिया. चोप के इस रवैये की जमकर आलोचना भी हुई क्योंकि बिल पास नहीं हो पाया.

बिल को पास न करने की वजह चोप ने ये बताई कि इस बिल पर उतनी बहस नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी, जबकि एक दूसरे मामले पर जमकर बहस की गई थी. हालांकि महिलाओं के हितों से जुड़ा ये मामला जितना महत्वपूर्ण था उसपर बहस भी उतनी ही गंभीरता से होना जरूरी था. बस इसी बात पर मामले को जुलाई तक के लिए टाल दिया गया.

बहरहाल, पीएम थेरेसा मे ने साफ कर दिया कि वे इसे कानून की जद में लाकर ही रहेंगी. संसद से यह कानून पारित होने की स्थिति में 'अपस्कर्टिंग' के दोषी लोगों के खिलाफ यौन अपराध दर्ज किया जाएगा.

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विरोध को लेकर भारत और ब्रिटेन की मानसिकता एक जैसी

इस मामले में पश्चिम और भारत में कोई अंतर नहीं है. यहां भी उन मामलों पर बहस नहीं की जाती जिनपर बहस की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. रेप के मामले को ही लीजिए. पहले तो रेप पर कोई सख्त कानून नहीं था, जब दबाव बढ़ा तो मोदी सरकार ने सीधे फांसी की सजा वाला अध्यादेश जारी कर किया. इसपर बहस की जाती तो कुछ और भी सोचा जा सकता था, लेकिन नतीजा ये हुआ कि रेप के लिए सख्त सजा की मांग करने वाले ही कहने लगे कि क्या फांसी की सजा देने से रेप रुक जाएंगे.

संसद में महिला आरक्षण बिल जमाने से अटका हुआ है, लेकिन उसपर न बात होती है और न 'बहस'. जबकि देश में सांसदों-विधायकों की सैलरी बिना बहस के ही बढ़ा दी जाती है. जरूरी बिल और कानून सिर्फ 'बहस' के नाम पर ही अटके रह जाते हैं.

ऐसी बहस एक कंफ्यूज़ सोसाइटी की पहचान है जो प्राथमिकता तय नहीं कर पाती कि लड़की का सम्मान ज्यादा जरूरी है या उसके सम्मान पर हमला करने वाले के पक्ष के मानवाधिकार पर बात. असल में ये मानसिकता ही है जो इन जरूरी मामलों को टालने के लिए प्रेरित करती है. जो हर जगह एक सी है, चाहे भारत हो या विदेश.

upskirtingसंसद में जुलाई तक के लिए मामला टाल दिया गया है

पर आश्चर्य होता है कि इतने बड़े देश में ऐसी घिनौनी हरकत को अब तक कोई गलत नहीं मान रहा था. और तो और ऐसा होने पर गलत महिलाओं को ही कहा जा रहा था, समझाइश दी जा रही थी कि वो आखिर स्कर्ट पहनती ही क्यों हैं, पेंट पहनें.

हमारे देश में भी छेड़छाड़ और रेप के लिए लड़कियों के जींस पहनने को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. और लड़कियां वही करती भी हैं जो उन्हें कहा जाता है. लेकिन आज तक एक भी आवाज इतनी बुलंद नहीं थी कि उसे लेकर संसद हिला दी जाती.

ऐसे में जीना मार्टिन जैसी आवाजें बहुत मायने रखती हैं, ये वो लोग हैं जिनके इरादे उन्हें भीड़ का हिस्सा बनने नहीं देते. भारत को भी ऐसी आवाजों की बहुत जरूरत है क्योंकि 'चोली के पीछे क्या है' ये जानने के उत्सुक लोगों की कमी तो हमारे देश में भी नहीं है.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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