आपबीती: दिल्ली मेट्रो की इस 'नाइंसाफी' से पुरुष समाज आहत है!
हम इस बात को नकार नहीं सकते कि उत्पीड़न का सबसे ज़्यादा शिकार इस समाज में महिलाएं होती हैं, और यह सच है, लेकिन यह भी गलत नहीं है कि महिलाएं अपनी आवाज समय-समय पर उठाती रहती हैं. उनके साथ लोग जुड़ भी जाते है, लेकिन पुरुषों के साथ ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है जब कोई पुरुष अपने लिए आवाज उठाता है या लोग उसका साथ देते हैं.
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14 जुलाई की बात है. मैं दिल्ली मेट्रो से नोएडा आ रहा था. मैंने देखा कि उस मेट्रो में एक सीट पर एक व्यक्ति बैठा हुआ था. उसकी उम्र लगभग 50 साल की होगी. वहीं एक 25 साल के उम्र की लड़की ने उस बैठे हुए व्यक्ति से ये कह कर उसके सीट से उठा दिया कि ये सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है. ये देख कर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और तब मैंने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या कोई सीट पुरुषों के लिए भी आरक्षित है. यहां पर, मेरा मतलब इस मेट्रो में, तब उस व्यक्ति ने जो जवाब दिया. वो कहीं ना कहीं सोचने पर मजबूर करता है.
उस व्यक्ति ने कहा कि इस मेट्रो ट्रेन के आगे के दो डिब्बे सिर्फ महिलाओं के लिए आरक्षित है. उन डिब्बों में पुरुषों का जाना वर्जित है, तो इस बात पर मैंने कहा कि अगर ऐसा है तो अच्छी बात है, तो फिर उस व्यक्ति ने कहा कि ये वो भी मानता है कि महिलाओं के लिए दो डिब्बें आरक्षित होना अच्छी बात है. लेकिन इसके अलावा भी जो मेट्रो के अन्य डिब्बें है, उसमें भी महिलाओं के लिए अरक्षित सीट कर दिया गया है. इसके अलावा बुजुर्गों के लिए भी सीट आरक्षित है, जो बहुत ही अच्छी बात है.
लेकिन उन पुरुषों का क्या जिनके लिए कोई भी सीट आरक्षित नहीं है. अगर कोई व्यक्ति गलती से भी महिलाओं की सीट पर बैठ जाए तो उसे महिला उठा देती है कि ये महिलाओं के लिए सीट है, आप इस पर नहीं बैठ सकते. चाहे वो व्यक्ति उस महिला से दोगुने उम्र का क्यों ना हो. उसे वो सीट छोड़नी पड़ती है, तब कहीं ना कहीं समानता वाली बात खड़ी होती है.
जरा सोचिए कि तब क्या हो जब कोई सीट पुरुषों के लिए आरक्षित हो और उस सीट पर कोई महिला आकर बैठ जाए. यदि तब कोई पुरुष ये कह कर उस महिला को उठा दे कि ये सीट पुरूषों के लिए रिजर्व है, आरक्षित है. तब तो जितने भी महिला आयोग, महिला हेल्प लाइन नंबर और भी तमाम एनजीओ हैं, जो महिलाओं के लिए खड़ी हो जाएंगी. लेकिन क्या पुरुष इस समाज का हिस्सा नहीं है? क्या पुरुषों को आरक्षित सीट मिलने का कोई हक नहीं है?
हम इस बात को नकार नहीं सकते कि उत्पीड़न का सबसे ज़्यादा शिकार इस समाज में महिलाएं होती हैं, और यह सच है, लेकिन यह भी गलत नहीं है कि महिलाएं अपनी आवाज समय-समय पर उठाती रहती हैं. उनके साथ लोग जुड़ भी जाते है, लेकिन पुरुषों के साथ ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है जब कोई पुरुष अपने लिए आवाज उठाता है या लोग उसका साथ देते हैं. ये मेट्रो वाली बात इस चीज को दर्शाती है कि समाज में समानता का अधिकार का शिकार महिलाएं ही नहीं पुरूष भी होते है, और जो लोग समानता की बात करते, उन्हें इस बात को अच्छी तरह से समझने की ज़रूरत है.
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