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Updated: 10 मार्च, 2023 08:50 PM
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पिछले साल ही यूपी चुनाव के वक्त टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 'लाइन ऑफ़ नो कंट्रोल' वाल पर संदीप अध्वर्यु का दिलचस्प कार्टून देखा था. तब सात मार्च को चुनाव हुए थे और अगले ही दिन 8 मार्च महिला दिवस था. इस बार भी संयोग है लेकिन दूसरा है, होली और महिला दिवस एक ही दिन मना रहे हैं. गत वर्ष थीम थी-'स्थायी कल के लिए आज लैंगिक समानता' और इस बार की थीम का लब्बोलुआब भी वही है -'डिजिटऑल (DigitALL): इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी फॉर जेंडर इक्वेलिटी' आखिर कार्टून क्या था ? कार्टून ख़ास दिन पर था - जिस प्रकार मतदान वाले दिन तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने अपने रेड कारपेट बिछा देती हैं और नेतागण वोटरों के लिए पलकें बिछाए रहते हैं, उसी प्रकार ऐसा ही कुछ उत्सव सरीखा माहौल महिला दिवस के दिन भी देखने को मिलता है.चूंकि बात देश की कर रहे हैं, इस बार जो हुआ दुर्योग ही था, एक कटु सत्य जो बाहर आ गया कि पॉलिटिक्स किसी न किसी बहाने से जेंडर इक्वलिटी को धत्ता बता ही देती है. और इस बार तो बहाना कहें या संबल कहें बाल ब्रह्मचारी बजरंगबली महिला बॉडी बिल्डर्स के शारीरिक सौष्ठव के प्रदर्शन के कार्यक्रम में जो विराजमान थे.

International Womens Day, Women, Girls, Man, Politics, Business, Family, Allegationतमाम जुल्मों सितम के बाद महिलाओ के लिए एक दिन समर्पित कर देना कहां तक न्यायसंगत है

आपत्ति हनुमान जी पर की जानी चाहिए थी कि वे थे ही क्यों वहां ? लेकिन उस राजनीतिक पार्टी ने आपत्ति महिलाओं पर उठा दी जिसकी महान नेत्री ने कुछ अरसे पहले ही कहा था , 'बिकिनी पहनें, घूंघट पहनें, जींस पहनें या फिर हिजाब, यह महिलाओं का अधिकार है कि वह क्या पहनें और यह अधिकार उसे भारत के संविधान से मिला है. भारत का संविधान उसे कुछ भी पहनने की गारंटी देता है'. फिर कल सिर्फ हनुमान जी के कटआउट के होने से बॉडी बिल्डर्स की टू पीस बिकनी क्यों अस्वीकार्य हो गई पार्टी को ?

दरअसल हड़बड़ी में गड़बड़ी हो गई. विरोध के लिए विरोध की स्वार्थपरक राजनीति ने नेताओं को अंधा कर दिया है. उन्हें विरोध करना था इस बात का कि हनुमान जी के कटआउट को वहां क्यों रखा गया ? आइडियली देखा जाए तो एक पाले के नेताओं ने हनुमान जी की तौहीन कर दी और दूसरे पाले ने महिलाओं की ?जीत किसकी हुई ? निःसंदेह सत्ता के पाले की हुई.

वे जानबूझकर हनुमान जी को ले आये थे महिलाओं की इस शारीरिक सौष्ठव की प्रतियोगिता में क्योंकि उन्हें पता था चुनावी साल में विपक्ष हनुमान के होने पर आपत्ति नहीं करेगा बल्कि अनजाने ही महिलाओं के पहनावे पर एक्सपोज़ हो जाएगा जिसके लिये वे(सत्ता पक्ष) ज्यादा बदनाम हैं. पठान विवाद को ज्यादा दिन नहीं हुए हैं. एक तरह से सेट ड्रामा ही था कि ये सब बवंडर मचेगा अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर जिस दिन लैंगिक समानता का ढिंढोरा पीटने के लिए महिलाओं के लिए रेड कारपेट बिछाने की होड़ सी लगी रहती है.

रेड कारपेट की नियति अगले ही दिन लपेटे जाने में होती है, टेंट हाउस पहुंच जाने में होती है ! बाद की यही स्थिति महिलाओं की होती है और महिलायें यदि इस मुगालते में हैं कि उन्हें पुरुष समान दर्जा देंगे, वे गलत हैं. उनका उत्थान पुरुषों द्वारा हो ही नहीं सकता. हां, वे ज़रूर पुरुषों के उत्थान को कंट्रीब्यूट करती हैं एक मां के रूप में, फिर वह एक बहन है, वही अर्धांगिनी भी है. हर रूप में उसकी स्वार्थहीन भावना है, पुरुष के मंगल की कामना है.

पिछले साल इंटरनेशनल वीमेन डे पर मार्च पास्ट हुआ था - 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' के उद्घोष के साथ ! अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि कहें मार्च पास्ट करवाया गया था क्योंकि अगले ही दिन 9 मार्च को उन्हीं के शासित राज्य के एक मंत्री ने रेप के मामले बढ़ने की वजह प्रदेश में 'मर्दों' के होने से जोड़ दिया था, जब उन्होंने विधान सभा में कहा 'वैसे भी यह राजस्थान तो मर्दों का प्रदेश रहा है. उसका क्या करें?' तब उनके साथ साथ उनके अन्य साथी मंत्री भी हंस रहे थे. किसी को गलती का अहसास नहीं हुआ था.

सरकार के मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के विधायक भी हंसते रहे, किसी ने भी विधायक मंत्री धारीवाल को टोका तक नहीं. यहां  तक कि सरकार में तीन-तीन महिला मंत्री भी थीं, उनमें से भी किसी ने नहीं टोका था. दरअसल महिला स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं है पितृसत्ता के लिए. समाज वही है जहां सर्वमान्य है कि पुरुषों के पास सर्वोच्च ज्ञान और शक्ति है, घर चलाने की जिम्मेदारी पुरुषों की ही है और वे ऐसा कर सकें, घर की औरतें जी जान से उनकी सेवा और देखभाल करती है, पहले उनकी माताएं और फिर उनकी पत्नी.

चंदा कोचर कभी प्राइवेट सेक्टर की नामी गिरामी आईसीआईसीआई बैंक की मैनेजिंग डायरेक्टर एंड सीईओ हुआ करती थी . साल दर साल वे दुनिया की पावरफुल औरतों में शुमार होती रही थीं. पितृसत्ता के लिए ही उनका पराभव हुआ और हालिया एक अन्य सीईओ चित्रा रामकृष्ण के पराभव की वजह भी पितृसत्ता ही है जिसे उन्होंने अदृश्य शक्ति का नाम दे दिया. वो दिन कब आएगा जब खिताबों की दुनिया में भी समानता आएगी.

टॉप टेन मोस्ट पावरफुल मेन/वीमेन नहीं, टॉप टेन मोस्ट पावरफुल पर्सन में पुरुष भी होंगे और महिलाएं भी होंगी - फ्री एंड फेयर प्रतिस्पर्धा होगी बिना किसी जेंडर के. हां, दिखावा भर नहीं होना जैसा 'बैट्समैन' को 'बैटर' से रिप्लेस कर महज खानापूर्ति की गई. आजकल एक और ट्रेंड है लैंगिक समानता प्रदर्शित करने का. जबकि निरा पाखंड है. बिज़नेस में महिलायें पार्टनर हैं, कहीं कहीं तो पूर्ण स्वामित्व भी है महिला का, महिलायें जॉब भी कर रही हैं, और भी क्षेत्रों में महिलायें हैं.

पार्टनर या पूर्ण स्वामित्व है तो टैक्स बचाने के लिए है, दीगर छूटें भी काफी है महिलाओं के होने से. जॉब में हैं तो इस ढिंढोरे के साथ कि हम तो आजाद ख्यालात के हैं, मॉडर्न हैं , बहू बेटियों की चॉइस का सम्मान करते हैं. हकीकत देखें तो वर्चस्व तब भी पुरुषों का ही हैं ! घर में भी और बाहर भी. लैंगिक समानता की बिना पर लिव इन रिलेशनशिप की पैरोकारी की जाती है, भला कितने मर्दों के टुकड़े टुकड़े किये फीमेल पार्टनर ने !

टुकड़े टुकड़े हुए श्रद्धा के, निक्की के, किये एक आफताब ने, एक साहिल ने ! आजकल लैंगिक समानता के नाम पर सोशल मीडिया में हाइप जरूर क्रिएट हो रहे है. फ्लिपकार्ट ने माफी इस बात के लिए मांग ली कि प्लेटफार्म ने प्रमोशन मैसेज 'Dear Customer, This Women’s Day, let’s celebrate You. Get Kitchen Appliances from ₹299,' जो डाल दिया था.

फ़िल्में और ओटीटी कंटेंट्स भी जेंडर इक्वलिटी को खूब एक्सप्लॉइट कर रहे हैं, इरोटिक विद्रूपता ही परोस रहे हैं. जहां तक महिलाओं के प्रति असम्मान की बात है, हर दूसरी फिल्म हर भाषा की, तक़रीबन हर ओटीटी कंटेंट , अनेकों एडवर्टिजमेंट कैंपेन सराबोर हैं ! कई तो एडल्ट कंटेंट्स भी हैं जिन्हें एडल्ट्स देखें या ना देखें युवा और किशोर वर्ग तो जरूर देखता है डिस्क्लेमर जो है प्लस 18 वाला जिसका हवाला हाल ही दिया गया हाई कोर्ट में अश्लील भाषा से भरी वेब सीरीज 'कॉलेज रोमांस' की मामले में.

बात करें पुरुष सांसदों की तो उनके लिए औरत का आकर्षक होना ही राजनीति के लिए एक मानक है. उनकी यही पितृसत्तात्मक मानसिकता ही राजनीति में महिलाओं और राजनीति में आने वाली महिलाओं के क़द को कमतर करती है. वे पब्लिक्ली भी वाणी पर संयम नहीं रख पाते और गाहे बगाहे महिलाओं के लुक्स पर टिप्पणी कर बैठते हैं और जब उनके कृत्य की ओर इंगित किया जाता है तो बड़ी बेशर्मी से वे लैंगिक समानता की आड़ ले लेते हैं, जैसा पिछले साल ही शशि थरूर ने संसद में किया था.

एक शताब्दी से ज्यादा समय से विमेंस डे मनाया जा रहा है और आज भी जेंडर इक्वलिटी स्वप्न ही है तो कारण एक ही है कि दिवस सेलिब्रेट नहीं बल्कि एक्सप्लॉइट किया जा रहा है पुरुषों द्वारा जिसमें विमेंस की भी सहभागिता है. जेंडर इक्वलिटी अब सिर्फ खोखली बातों, सिंबॉलिक और दिखावे तक सीमित नहीं होना चाहिए, इसे हकीकत में तब्दील होने देना है. और ऐसा स्वतः ही होगा बशर्ते महिलाएं 'मातृसत्तात्मकता' को समकक्ष लाकर खड़ा कर दें.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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