सुनो मजदूरों! तुम्हें आज जड़ों की ओर लौटना है पूरा दरख़्त खोदकर...
कोरोना वायरस (Corona Virus ) के तहत जैसे जैसे लॉक डाउन (Lockdown) के मद्देनजर दिन बीत रहे हैं सबसे बुरा हाल मजदूरों (Migrant Workers) का है. किसी ज़माने में इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में मशहूर मजदूर आज देश की सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है.
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मैं और तुम साथ-साथ निकले थे शहर को. मेरे पास डिग्रियां थीं, तुम्हारे पास अशिक्षा का तमगा. मेरे पास मां के प्यार से भरे दो थैले खाने-पीने-पहनने का सामान था, तुम्हारे पास चंद कपड़े, रूखी रोटियां, और थेगड़े लगा हुआ एक थैला. मेरे एकाउंट में पापा की कमाई से मिला मेरे नाम का कुछ हिस्सा था. तुम्हारा अकाउंट तुम्हारे पेंट की वह भीतरी जेब जिसे तुम्हारी मां ने सिया होगा, कुछ पैसे रखे होंगे और कहा होगा सोए तो ख़याल रखना. मेरे पास रहने का ठिकाना था, नौकरी थी. तुम्हें अभी कुछ दिन फुटपाथ पर, स्टेशन पर, पटरियों पर बिताने थे. दिहाड़ी के लिए चक्कर लगाने थे. मैंने शहर पहुंचकर पहली तनख्वा घर भेजी तो मां ने रिश्तेदारों में तोहफ़े बांटे. तुमने पहली तनख्वा घर भेजी तो मां ने छप्पर के लिए नई बरसाती ख़रीदी, कुछ राशन ख़रीदा, तुम्हारी ब्याहता जो पेट से होगी उसके लिए कुछ फल खरीदे, दूध खरीदा. मैंने शहर में मॉल देखे, शॉपिंग की, चौराहे देखे. तुमने शहर के चौराहों में अपनी बोलियां लगाईं, मजदूरी पाने के लिए. तुमने भी चंद महीने एक वक्त ख़ाकर बच्चों के लिए कपड़े खरीदे.
आज के इन मुश्किल हालात में प्रवासी मजदूर देश की सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती की तरह खड़े हुए नजर आ रहे हैं
मेरे पास सपने थे, एक फ्लैट खरीदने के. तुम्हारे पास सपने थे उस फ़्लैट वाली बिल्डिंग में दिहाड़ी पाने के. मेरे सपने पूरे हो गए. मुझे घर मिल गया. घर से दूर एक घर मिल गया. एक नया शहर मिल गया.तुम्हारा सपना भी पूरा हुआ, तुम्हें दिहाड़ी मिली. लेकिन दिन ख़त्म होते ही तुम्हें लौटना पड़ा अपने घर. घर से दूर तुम्हारा कोई घर नहीं था.
मेरे अकाउंट में अब सेविंग्स थीं. तुम्हारा अकाउंट अब भी ख़ाली था. मेरे बच्चे अब यहां के बेहतरीन स्कूलों में पढ़ रहे थे. तुम्हारे बच्चे भी जिन इंग्लिश मीडियम में पढ़ रहे थे उनकी फीस ने तुम्हें नंगा कर दिया.फिर एक दिन दुनिया में ताला लग गया. हम घरों में बंद हो गए. लेकिन इस हम में तुम नहीं आ सके. तुम्हारे पास तो घर थे ही नहीं. और जो थे उनमें रहकर करते भी क्या? शहर तुम्हें धक्के देने लगा.
शहर के लोगों ने तुम्हें अपनाने से मना कर दिया. सरकारों ने तुम्हें अपने घर जाने को कहा. हम सड़कों पर नहीं निकल सकते थे, ट्रेनों में नहीं जा सकते थे. लेकिन तुम्हारे लिए सिर्फ सड़कें और पटरियां ही बचीं. हमारे बच्चे अब भी एसी वार्डस में पैदा हो रहे हैं, तुम्हारे सड़कों पर. हमारी जच्चा उसके लिए ज़रूरी आराम पा रही है, तुम्हारी जच्चा औलाद जनने के घंटे भर बाद ही मीलों ठिकाने की तलाश में पैदल हांफती जा रही है.
ये ताला जब खुले तो हम अब भी घर आएंगे, कुछ लेकर आएंगे. हमें परिवार मिलेगा, रोटी पर घी भी, तन पर कपड़ा भी, टीवी में मनोरंजन भी और वार-त्यौहार पकवान भी. लेकिन तुम्हें तो घर वाले भी स्वीकारने से कतरा रहे हैं. उनकी ज़मीनें बांटने वाले आ गए, उनके घर बांटने वाले आ गए. उनके लिए शहर से पैसे भेजने वाले अब खाली हाथ लौट रहे हैं. तुम अब कहीं के नहीं हो, ना उस शहर के जिसे तुमने अपने खून-पसीने से बनाया. ना उन लोगों के जिनके आगे तुमने सलाम ठोका. ना उन सरकारों के जिनके लिए तुम हमेशा ही सिर्फ आंकड़े रहे और ना उन परिवारों के जिनके लिए तुमने अपना सब छोड़ दिया.
हम और तुम एक शहर में एक समय भले गए हों लेकिन हम कभी तुम्हारे दर्द को नहीं समझ पाएंगे. क्योंकि हम प्रिविलिज़्ड हैं. और एक प्रिविलिज़्ड सिर्फ 'च च च, बेचारा' कहने के अलावा कर ही क्या सकता है?
तुम अब हाड़-मांस का वो पुतला रह गए हो जिसके नाम पर जिसकी बदहाली पर लेखक कहानी लिखेंगे, कवि कविता, पेंटर चित्रकारी करेंगे, पत्रकार ख़बरें बटोरेंगे, एक्टिविस्ट फंड बटोरेंगे और नेता वोट. तुम अब इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं हो, किसी के लिए भी नहीं हो. सरकारें तुम्हारे लिए व्यवस्था बना रही हैं, दानवीर दान दे रहे हैं लेकिन व्यवस्थाएं, ये दान सब यूँ नाकाफ़ी हो जाएंगे, और हम यूं मायूस कभी सोचा नहीं था.
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