सरकार के वे फैसले और रवैया, जिससे कोरोना को लेकर ढांढस से ज्यादा डर फैला
कोरोना वायरस से भारत में मौत के मामले एक बार फिर बढ़े हैं. इससे पहले कि हम आपको ये बताएं कि सरकार वो कौन से काम कर रही है जिससे डर बढ़ता है पहले ये समझना होगा कि डर का लाभ किसे मिलता है. क्या सरकार इसका लाभ लेती है. क्या जनता को इसका लाभ मिलता है या डर का लाभ बाजार और खास तौर पर दवा और टीका लॉबी को मिलता है.
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भारत में कोरोनावायरस से मौतों का सिलसिला लगातार जारी है. बड़ी संख्या में लोग मारे जा रहे हैं. लेकिन कोरोना से मौत का आंकड़ा जितना बड़ा है उससे कहीं ज्यादा बड़ा उसका खौफ है. ये खौफ दिन रात बढ़ रहा है और लोगों के बीच कोरोना से ज्यादा बड़ी समस्या के तौर पर दिखाई देने लगा है. लेकिन इस समस्या के लिए जितनी बीमारी जिम्मेदार है उतनी जिम्मेदारी सरकार की है. सरकार को जहां लोगों के बीच शांति रखने का काम करना चाहिए लोगों को ढाढस देना चाहिए उसने ऐसी प्रक्रिया अपनायी हुई है जो लोगों के भीतर डर बढ़ा रही है. इससे पहले कि हम आपको ये बताएं कि सरकार वो कौन से काम कर रही है जिससे डर बढ़ता है, पहले ये समझना होगा कि डर का लाभ किसे मिलता है. क्या सरकार इसका लाभ लेती है? क्या जनता को इसका लाभ मिलता है? या डर का लाभ बाजार और खास तौर पर दवा और टीका लॉबी को मिलता है?
भारत में कोरोना से मौत का ग्राफ बढ़ रहा है जोकि गहरी चिंता का विषय है
हम एक एक कर सरकार के डर फैलाने वाले विषयों पर. आपको बताते है कि कैसे सरकार अनजाने में या जानबूझकर बीमारी का खौफ फैलाने में भागीदार बन रही है. हम यहां साफ करना चाहेंगे कि सरकार ऐसा सिर्फ अपने स्तर पर नहीं कर रही बल्कि अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी इसका कारण है. अगर वो इससे बाहर निकलती है तो उसे परेशानियां झेलनी पड़ सकती हैं.
टेस्टिंग
दुनिया में आजतक कई बड़ी बड़ी महामारियां आईँ और चली गईं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि पीड़ित, उसके परिवार उसके मित्र, उसके दफ्तर और यहां तक कि उसके संपर्क में आए सभी व्यक्तियों को टेस्ट करवाने की सलाह दी गई हो. ये पहली महामारी है जिसमें शरीर में वायरस उपस्थित होना ही एक संख्या बन जाता है और वो संख्या रोज इंटरनेट पर कोरोना से जुड़ी हर खबर के साथ आपको दी जाती है.
इससे पहले की महामारियों में सिर्फ मृतकों के आंकड़े ही प्रकाशित किए जाते थे लेकिन अब जो वायरस के संपर्क में आया उसे भी गिनती में शामिल किया जा रहा है. ऐसा करने से बड़ी संख्या में संक्रमित लोगों के होने की जानकारी मिलती है.
संक्रमण का मतलब
बीमारी में संक्रमण होना आम बात है अगर किसी को टीबी, खसरा, चेचक या प्लेग जैसी कोई भी बीमारी फैलती है तो जाहिर बात है कि उसके विषाणु और जीवाणु कई लोगों के संपर्क मे आते हैं. लोग लेकिन अधिकतम मामलों में शरीर उनका मुकाबला कर लेता है. कोविड के मामले में भी शरीर अधिकतम मामलों में वायरस का मुकाबला करने में सक्षम साबित हुआ है. लेकिन अगर आप शरीर के संपर्क में वायरस के आते ही ढिंढोरा पीटना शुरू कर देंगे तो वातावरण डरावना बनेगा ही.
मृत्यु के आंकड़े.
भारत सरकार का आईसीएमआर कहता है कि इन दिनों हो रही हर मौत की रिपोर्टिंग होनी चाहिए. गाइडलाइन्स कहती है कि तीन तरह के मामलों को संदिग्ध कोविड का केस माना जाएगा.
1- जिनका टेस्ट पॉजिटिव आया हो और वो किसी भी तरह की बीमारी से मारे जाएं. उन्हें हार्ट अटैक हो, उन्हें लकवा मारे, स्ट्रोक हो या कुछ और
2- जिनकी मौत कोविड के लक्षणों से हो और साथ में उनका टेस्ट पॉजिटिव भी हो.
3- ऐसे मामलों में जिनमें कोई भी रिपोर्ट कनफर्म न करती हो कि कोविड है या नहीं. उनके आरटीपीसीआर और दूसरे टेस्ट भी नैगेटिव आए हों. उनके सीटी स्कैन में भी कोविड की तरह की गतिविधि न दिखे तो भी अगर उनकी मृत्यु किसी भी ऐसे कारण से होती है जो कोविड से जुड़ा हो सकता है तो ये आंकड़ा कोविड के खाते में जोड़ा जाएगा.
सरल शब्दों में समझें तो निमोनिया, दिल का दौरा, स्ट्रोक, थक्के जमना, छाती में इनफेक्शन, गले का इनफेक्शन, डायरिया, आंखें लाल हो जाना जैसे हर दिन बदलने और नये नये सामने आने वाले लक्षण अगर मरीज में हैं और उसका टेस्ट रिपोर्ट नेगेटिव भी है तो डॉक्टर उसकी मौत का कारण कोरोना की संदिग्घ मौत माना जाएगा.
प्रचार प्रसार
अलग अलग जगहों पर कोविड को लेकर सरकार और उससे जुडें संस्थान सावधानी बरतने और जागरूकता पैदा करने क हदें तोड़ रहे हैं. ऐसा करने से जागरूकता पैदा होने के बजाय भय और अफरातफरी पैदा हो रही है. रात में कर्फ्यू एक ऐसा ही साधन है. रात में लोग बहुत कम निकलते है और जब वो बाहर निकलते भी हैं तो एक सीमित संख्या के लोगों से ही मुलाकात होती है. उनका संपर्क सार्वजनिक रूप से नहीं होता. उसके बावजूद रात्रि कर्फ्यू सिर्फ लोगों को डराने और बीमारी का भय पैदा करने के काम आया.
स्वीडन का मॉडल
स्वीडन ने न तो महामारी को निंयंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लगाया न स्कूल बंद किए. इसके नतीजे में स्वीडन में बहुत बुरे परिणाम सामने नहीं आए. हालात ये हैं कि अब स्वीडन की तर्ज पर अमेरिका में भी स्कूल खोलने की तैयारी हो रही है. लेकिन स्वीडन की सरकार ने लोगों के बीच भरोसे का स्तर बेहद उच्च रखा. स्वीडन में सरकार ने इस मामले को कभी राजनीतिक नजरिए से नहीं देखा.
कोरोना वायरस पर हर ब्रीफिंग वहां के डॉक्टर करते हैं. वही गाईड करते हैं. वहां के लोगोंका सरकार पर भरोसा उसकी झूठ न बोलने और लोगों को अंधेरे में न रखने की छवि के कारण हमेशा रहा. सोशल डिस्टेंसिंग वहां लोग स्वत ही करते हैं. जब किसी को लक्षण होते हैं वो खुद को आईसोलेट कर लेता है. ज्यादातर लोग ठीक हो जाते हैं. जिन्हें इलाज की जररूत पड़ती है उन्हें इलाज मिलता है.
स्वीडन मे सरकार ने मरीजों के मुफ्त इलाज का इंतजाम किया है. आप किसी भी अस्पताल में इलाज करवा सकते हैं. इसके कारण लोग आश्वस्त है कि अगर उन्हें कुछ हुआ भी तो इलाज हो ही जाएगा.
वहां की सरकार ने लोगों को नौकरी से निकालने और छंटनी पर भी रोक लगा दी. जिन कंपनियों को नुकसान हो रहा था उनके कर्मचारियों को कई मामलों में सरकार ने चालीस फीसदी तक वेतन अपने खजाने से दिया. इससे भी बीमारी का डर कम हुआ और लोग मस्त रहे.
मुझे लगता है कि भारत में सरकार को बीमारी के डर को कम करने के लिए काम करना चाहिए. शुरुआत में बीमारी की रिपोर्टिंग ठीक थी लेकिन अब सिर्फमौत के आंकड़े आने चाहिए. जो भी हो मनोवैज्ञानिक रूप से टूटा हुआ और कमजोर देश कभी भी मजबूत नहीं हो सकता. लोगों का हौसला कायम रखना सरकार की जिम्मेदारी है.
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