चुनौती तो मां के दूध को दी जाती है, सैरेलेक को नहीं !
'मां का दूध पिया है तो आजा सामने...', यदि यह डायलॉग प्रचलित हुआ है तो उस दूध में जरूर कोई खास बात होगी. लेकिन, मौजूदा दौर में कुछ बातें ऐसी हुई हैं कि लोगों ने मां के दूध को पिछड़ापन और बेबी फूड को लेटेस्ट ट्रेंड मान लिया है.
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भारत को 'स्तनपान का देश' माना जाता है. लेकिन अगर देश के ब्रेस्टफीडिंग रेट को देखें तो ये विशेषण खोखला साबित होता है. हमारे यहां सिर्फ 44 प्रतिशत यानी की 26 मिलियन में से सिर्फ 12 मिलियन बच्चों को ही जन्म लेने के एक घंटे के अंदर स्तनपान नसीब हो पाता है. जी हां हमारे शाइनिंग इंडिया की यही हकीकत है और अधिकतर बच्चों को मां के दूध के बदले या तो पाउडर का दूध या फिर किसी जानवर का दूध पिलाया जाता है. हैरान होने की जरुरत नहीं ये आंकड़ें नेशनल डाटा सोर्सेज से एकत्रित किए गए हैं.
बच्चों को दूध पिलाने के प्रति मांओं का क्या सोचना है इसके लिए एक फेसबुक ग्रुप ने अपने 29,000 हजार से ज्यादा सदस्यों के साथ एक सर्वे किया. इसमें 950 ऐसी माताओं ने भाग लिया जिन्होंने प्राइवेट हॉस्पीटल में अपने बच्चों को जन्म दिया था. सर्वे में आधी से ज्यादा महिलाओं ने कहा कि उनके बच्चों को कृतिम दूध पिलाया गया था और इसमें से एक-तिहाई महिलाओं ने बताया कि उनके बच्चों को कृतिम दूध पिलाने का फैसला उनकी रजामंदी के बगैर किया गया था.
मां का दूध पीना बच्चों का खेल नहीं
इन महिलाओं के बयान से साफ जाहिर है कि अस्पतालों में काम करने वाले लोगों को नई मांओं के दूध बनने की क्षमता पर शक होता है और इसलिए अधिकतर मामलों में नवजात बच्चों को पैदा होने के तुरंत बाद मां के दूध के बदले कृतिम दूध पिला दिया जाता है.
लेकिन इस सच को सभी नकार देते हैं कि मां के स्तन में दूध बनना उनके शरीर में प्रोलैक्टिन हॉर्मोन के बनने पर निर्भर करता है. और प्रोलैक्टिन हॉर्मोन का सीधा संबंध बच्चे से होता है. बच्चा जितना ज्यादा अपनी मां का स्तनपान करेगा प्रोलैक्टिन उतना ज्यादा बनेगा. मां के स्तन से बच्चे के मुंह में दूध का स्राव ऑक्सीटोसीन नाम के हॉर्मोन की वजह से होता है. ऑक्सीटोसीन का सीधा संबंध मां के मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है. महिला जितनी ज्यादा खुश और विश्वास से भरी होती है उसके शरीर में ऑक्सीटोसीन का स्राव उतना ही ज्यादा होगा.
बच्चे के जन्म लेते ही मां के शरीर में स्थित मैमरी ग्लैंड कोलोस्ट्रम नाम का दूध बनाने लगता है जो बच्चे के स्वास्थ्य के लिए ना सिर्फ फायदेमंद होता है बल्कि जरुरी भी होता है. कोलोस्ट्रम की थोड़ी सी भी मात्रा बच्चे के लिए काफी होती है. लेकिन क्योंकि ये दूध की तरह फ्री फ्लो में नहीं होता तो लोग इसे मां के शरीर में दूध बनने की कमी मान लेते हैं जो सरासर गलत है. कोलोस्ट्रम का उत्पादन तभी सबसे ज्यादा होता है जब बच्चा स्तनपान करता है. इसलिए इस वक्त बच्चे को मां दूध से वंचित करने से उसके स्तनपान में दिक्कत आ सकती है.
बेबी फूड इंडस्ट्री ने मां के शरीर के इस हॉर्मोन तंत्र का दोहन 50 साल पहले से ही करना शुरु कर दिया था. उन्होंने कई तरह के एड कैंपेन भी चलाए जिसमें मां के स्तन से दूध के कम स्राव को गलत तरीके से पेश करते हुए कहा गया कि- अगर आपके पास अपने बच्चे के लिए सही मात्रा में दूध नहीं है तो हमारे पास उसका विकल्प है. इसके लिए शर्मिंदा मत हों. आलम ये है कि विश्व के हर कोने में लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं इस बात को ही सही मान कर चलती हैं.
नॉर्वे की निराली मांए
यहां तक कि वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडेक्स में टॉप पर रहने वाले नॉर्वे का भी कुछ साल पहले यही हाल था. नॉर्वे में रहने वाले डॉ प्रवीण झा अपनी फेसबुक पोस्ट में बताते हैं कि-
नॉर्वे में 'बेबी-बॉटल' ढूँढना दुर्लभ कह सकते हैं. डिजाइनदार तो छोड़ ही दें. वहाँ बोतल से दूध पीते बच्चे बस-ट्रेन कहीं नहीं मिलते. हर सार्वजनिक स्थलों, और ऑफीसों में स्तनपान के कमरे हैं. मेरी एक कर्मचारी जब लगभग एक साल की छुट्टी के बाद लौटीं, 'रोस्टर' बना, मैनें देखा कि एक घंटे के दो 'पॉज़' हैं. मुझे समझ नहीं आया, फिर देखा 'अम्मो' लिखा है, मतलब स्तनपान का विराम. दो घंटे प्रतिदिन का विराम है जिसमें वो पास के 'क्रेच' में जाकर स्तनपान करा आएँगीं.
सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था. पूरा नॉर्वे 'फॉर्मूला मिल्क' और बोतल का फैन हो चला था. नया-नया अमरीकी फैशन चला था. नॉर्वे तब अमीर न था, अमरीका की नकल उतारता था. स्तनपान लगभग न के बराबर हो रहे थे.
तभी एक महिला मिसेज हेलसिंग ने एक 'कैम्पेन' चलाया और स्वास्थ्य मंत्रालय में एक अधिकारी से मिलीं. भाग्य से वह अधिकारी भी हार्वर्ड से इसी संबंध में शोध कर आई थीं, और उनके पेट में चौथा बच्चा था. उन्होनें अपने बच्चे का स्तनपान ही कराया, बोतल नहीं लगाया.वही अधिकारी आगे चल कर नॉर्वे की प्रधानमंत्री बनीं, और इस मुहिम में 'डोर-टू-डोर' कैम्पेन में जुट गईं. प्रधानमंत्री ने आखिर खुद अपने बच्चे को दूध पिलाकर शुरूआत की थी. बात जम गई. नॉर्वे से बोतल हमेशा के लिए खत्म हो गया. (प्रधानमंत्री का नाम था ग्रो ब्रंटलां)
नॉर्वे का उदाहरण हम सभी के लिए आंखें खोलने वाला है. प्रकृति ने सभी के लिए एक निश्चित नियम बनाए हैं और उसके अपने फायदे हैं. ऑर्गेनिक के नाम पर ही आज के समय में खाने की चीजें फिर से हमें हमारी जमीन की तरफ ले जा रही है, भले ही उसका स्वरुप आज के बाजारवाद के मुताबिक है. लेकिन इससे ये तो समझा ही जा सकता है कि प्रकृति के नियम से छेड़छाड़ हमारे लिए घातक ही साबित होता है.
इस ब्रेस्ट फीडिंग वीक में आइए अपने आस-पास और अपने से जुड़े हर परिवार में ये जागरुकता जरुर फैलाएं कि मां का दूध ही बच्चे के लिए सर्वोतम है. सेरेलैक और लैक्टोज जैसी चीजें मां के दूध का विकल्प नहीं बन सकतीं.
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