आंकड़ों की नजर से बेहतर नहीं हैं मांओं के हालात
हर नई आने वाली पीढ़ी तो जन्मदायी माओं पर ही निर्भर है. ऐसे में इन माओं का स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा बहुत मायने रखती हैं.
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मेरे माथे की सिलवटें तुमने हथेलियों से समेट लीं.और सजा लीं अपने माथे पर. तुम बूढी नहीं हुयी हो माँ,हम पर खर्च हो गयी हो.@ सौरभ वाजपेई
सौरभ वाजपेई की इस कविता में मां के जीवन की हकीकत शब्दों का जामा पहन लेती है. कहते हैं मां इस दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है. संविधान निर्माता भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि महिलायें किसी समाज की प्रगति को मापने का जरिया होती हैं. खासकर हर नई आने वाली पीढ़ी तो जन्मदायी माओं पर ही निर्भर होती है. ऐसे में इन माओं का स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा बहुत मायने रखती हैं. बच्चों के लालन पालन से लेकर उनके सर्वांगीण विकास तक का आधार उनकी माएं ही होती हैं. ऐसे में उनका शिक्षित होना और अपने स्वास्थ को लेकर जागरूक होना बहुत अहम है.
अमूमन माएं अपने बच्चों को लेकर चिंतित रहती हैं और किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती हैं. लेकिन बंगलौर से करीब 400 किमी दूर यदगीर जिले में कृष्णा नदी पर बसे एक टापू पर रहने वाली 22 साल की महिला नें तो गजब ही कर दिया. येलम्मा के गावं से मुख्य शहर को जाने के लिए बेड़े से ही नदी पार करनी पड़ती है. ये बेड़े भी बाढ़ के दिनों में चलने बंद हो जाते हैं. अपने 9 महीने के गर्भ के साथ येलम्मा ने उफनती नदी को पार सिर्फ इसलिए किया कि वो अपने बच्चे का जन्म अस्पताल में ही समुचित सुविधाओं के बीच करवाना चाहती थी. उनके सामने अपने बच्चे को सुरक्षित जन्म देने की चुनौती थी.
मातृत्वन मृत्युन दर के मामले में भारत पहले स्थान पर है. यहाँ तक कि नाइजीरिया भी भारत से एक पायदान नीचे दूसरे स्थान पर है. संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में मातृत्व मृत्यु दर तेज़ी से घट रही है. हालात अफ्रीका के सहारा क्षेत्रों में बद से बदतर होते जा रहे हैं. लेकिन माओं की मृत्यु में बहुत तेज़ी से कमी लाते हुए भी भारत सयुंक्त राष्ट्र की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है.
अशिक्षा और सामाजिक कारणों का इसमें बड़ा योगदान है. सरकारों की उदासीनता भी इसकी एक बड़ी वजह है. बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में स्थिति और भी भयावह है. जानकारी के अभाव में ग्रामीण इलाकों में आज भी बच्चों का जन्म अस्पतालों के बजाय घरों में करवाया जा रहा है. जिससे जच्चा और बच्चा दोनों के जीवन पर खतरा मंडराता रहता है. इनकी सुविधा के लिए एम्बुलेंस मुहैया करवाना या अस्पतालों में इनके स्वास्थ पर समुचित ध्यान देना जैसी सुविधाएं जमीनी तौर सफल नहीं हो पा रही हैं.
पिछले साल छत्तीसगढ़ में नसबंदी के लिए आयीं 15 महिलाओं की ख़राब व्यवस्था के कारण मौत हो गयी. माँ बनकर बच्चों का सही लालन-पालन करने के लिए बच्चों की संख्या निश्चित करना भी जरूरी है. ये महिलायें अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए इन नसबंदी केन्द्रों पर आई थी. सरकारी उदासीनता या उपेक्षा का आलम यह था कि इन नसबन्दियों में साइकल पम्प का इस्तेमाल किया जा रहा था. नतीजा ये हुआ कि कितने ही बच्चों के ऊपर से माँ का साया उठ गया. हालाँकि सरकार बीच-बीच में ऐसी ख़बरों पर कार्यवाही करती रहती है. लेकिन फिर भी पितृवादी समाज में माओं की भूमिका को मान्यता मिलना बाकी है. जिस तरह से नई पीढ़ी ने माँ को लेकर मदर्स डे पर दिलचस्पी दिखाई है, उम्मीद है कि माँ और बच्चे के रिश्ते को इससे एक और नया आयाम मिले.
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