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Updated: 03 सितम्बर, 2016 05:47 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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जानते हैं शरिया कानून ने पतियों को 'तलाक, तलाक, तलाक' कहकर पत्नियों को अपनी जिंदगी से अलग करने की छूट क्यों दे रखी है? क्या वजह है कि बहुविवाह के अधिकार को भी शरिया कानून जायज बता रहा है? इन दोनों ही मामलों में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्डकी दलीलों ने सबको हैरान कर दिया है. लेकिन इन बेतुकी दलीलों से महिलाओं के जहन में कुछ सवाल आए हैं जिनके जबाव भी बोर्ड को देने चाहिए.

तीन तलाक को असंवैधानिक करार देने के लिए शायरा बानो समेत कई मुस्लिम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. उसके जवाब में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक और बहु विवाह को जायज ठहराया है और हलफनामे में जो दलीलें दी हैं वो यहां बताना बेहद जरूरी हैं.

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पुरुष भावनाएं नियंत्रित करने में महिलाओं से बेहतर होते हैं-

'शरिया ने पतियों को तलाक देने का अधिकार इसलिए दिया है क्योंकि पुरुषों में अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने की क्षमता होती है, वो आवेश में आकर फैसले नहीं लेते, उनमें सही निर्णय लेने की समझ होती है.'

बोर्ड ये किस आधार पर तय करता है कि पुरुषों में सही फैसले लेने की समझ महिलाओं से ज्यादा होती है. क्या बोर्ड ने इसका कोई क्राइटेरिया तय किया हुआ है. जो महिलाएं अपने पति के घर में सामंजस्य से रहती हैं, वो उनके बहुत से समझदारी भले फैसलों का ही नतीजा होता है. वो समझदारी से घर चलाती हैं, परिवार पालती हैं, कई अपनी समझ के दम पर ऊंचे औहदों पर भी हैं फिर उन्हें तीन तलाक का अधिकार क्यों नहीं?

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बहुविवाह को रोका तो अवैध संबंध बढ़ेंगे-

'मुस्लिम पुरुष एक साथ चार महिलाओं को बावी बनाकर रख सकते हैं. इसपर बोर्ड का कहना है कि बहुविवाह का मकसद अवैध संबंधों को रोकना है. मतलब घर में ही चार महिलाएं होंगी तो पुरुष बाहर नहीं जाएंगे. इतना ही नहीं, महिलाओं की सुरक्षा के लिए ये जरूरी है.'

ये दलील तो महिलाओं को बच्चा समझकर हाथ में झुनझुना थमाने जैसी है. कोई भी पत्नी अवैध संबंधों के डर से अपनी ही सौतन लाने के लिए राजी कैसे हो सकती है. पति बाहर जाकर वो सब न करे तो बेहतर है कि ऐसे संबंधों को शादी का जामा पहनाकर जायज बना ले. ये भला किस तरह का तर्क है. और फिर इस बात की क्या गारंटी कि बहुविवाह करने के बाद भी वो अवैध संबंध नहीं बनाएगा. आपकी इस दलील से तो मुस्लिम पुरुषों के चरित्र पर ही सवाल खड़ा हो जाता है.

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'अगर पति अपनी पत्नी के साथ रहना नहीं चाहता फिर भी पति-पत्नी साथ रहते हैं तो इससे पति और उसके परिवार वाले महिला को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं. पति गैरकानूनी तरीके जैसे कत्ल करना भी अपना सकता है. तो प्रताड़नाएं सहने से बेहतर है कि पति तलाक देकर महिला को आजाद कर दे. इससे महिलाएं सुरक्षित रहेंगी.'

तो क्या आप मुस्लिम पुरुषों को जाहिल समझते हैं कि उन्हें तलाक नहीं मिला तो बीवियों का कत्ल कर देंगे. और महिलाओं की सुरक्षा की फिक्र आप न ही करें तो बेहतर है. इसके लिए भारत का कानून ही काफी है. आप कितने फिक्रमंद हैं इसे तो मुस्लिम महिलाओं ने याचिका लगाकर सिद्ध कर ही दिया है.

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कोर्ट कचहरी में दिए गए तलाक से महिलाओं की प्रतिष्ठा को खतरा-

'बोर्ड का कहना है कि तीन तलाक, तलाक देने का बहुत ही आसान और निजी तरीका है. क्योंकि इसमें कोर्ट कचहरी की लंबी प्रक्रिया से बच जाते हैं दूसरा पति-पत्नी के आपसी मतभेद सबके सामने नहीं आते. वहीं अदालत की प्रक्रिया में पैसे भी खर्च होते हैं और पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है.'

महिलाओं की प्रतिष्ठा और तलाक के बाद उनके जीवन की इतनी ही फिक्र अगर होती तो कोई पुरुष महिलाओं को तलाक देता ही क्यों. उसके हित के बारे में अगर सोचते तो आज मुस्लिम महिलाओं की ये हालत न होती.

बहुविवाह सामाजिक जरूरत है-

'जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है, और बहुविवाह की अनुमति नहीं होती, वहां महिलाएं अकेले जीवन जीने को मजबूर हैं. इसलिए बहुविवाह पुरुषों की वासना तृप्त करने के लिए नहीं बल्कि ये सामाजिक जरूरत है. महिलाओं को तो इसकी सराहना करनी चाहिए कि जब महिला दर ज्यादा है तब वो शादी करके जीवन जीना चाहती हैं या फिर एक आदमी की रखैल बनकर बिना उन अधिकारों के जो एक पत्नी को दिए जाते हैं.'

तो इनका मानना है कि ये चार महिलाओं से शादी करके उनपर अहसान कर रहे हैं, अगर ये शादी नहीं करेंगे तो उनका जीवन साकार कैसे होगा. और रही बात महिला दर की तो उसका एक सीधा सा हिसाब है. एक व्यक्ति अगर चार शादियां करेगा तो उससे होने वाली संतानें भी तो उसी अनुपात में बढ़ेंगी. तो जनसंख्या में कमी आए ऐसा तो कुछ आप कर नहीं रहे बल्कि बहुविवाह से तो आर्थिक रूप से कमजोर ही होंगे, फिर ये समाज के हित में कैसे?

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शरीयत संबंधी कानून कुरान का हिस्सा हैं और उनमें कोई फेरबदल नहीं की जा सकती-

'मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हलफनामे में कहा है कि पर्सनल लॉ का मूल स्रोत कुरान है. ऐसे में उनमें कोई फेरबदल नहीं की जा सकती. मुस्लिम पर्सनल लॉ को वैलिडिटी के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती. पर्सनल लॉ की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकता.'

लेकिन इस दलील में कोई दम नहीं है क्योंकि दुनिया में कई इस्लामिक देश ऐसे हैं जहां तीन तलाक की प्रथा खत्म हो चुकी है. अगर बाकी देश इस प्रथा को छोड़ सकते हैं तो भारत के मुस्लिम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? लेकिन इस बारे में सुप्रीम कोर्ट कितना दखल देता है ये बाद की बात है.

बोर्ड की इन दलीलों को सुनकर एक अहम सवाल ये कि अगर तीन तलाक और बहुविवाह जायज और महिलाओं के हित में होता तो फिर मुस्लिम महिलाएं इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती ही क्यों? महिलाओं को अचानक फोन पर, ईमेल पर तीन बार तलाक कहकर बेसहारा छोड़ दिया जाता है. महिलाओं की सुरक्षा और बेहतरी का ख्याल रखने का दावा करने वाला बोर्ड अगर उनकी स्थिति और उनकी पीड़ा को समझ पाता तो बेहतर था. मनमाने तरीके से तलाक की शिकार होने वाली महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए अगर बोर्ड ने कोई सार्थक कदम उठाए होते तो शायद मुस्लिम महिलाओं को सुप्रीम कोर्ट तक जाने की नौबत ही नहीं आती.

समय के साथ परिवर्तन की जरूरत होती है, समाज के हित में पुराने रीति रिवाजों को बदलना पड़ता है और अब समय है कि इन पुरानी दकियानूसी चीजों की सड़ांध को खत्म किया जाए. लेकिन ये तभी संभव होगा जब पुरुष समाज सच में महिलाओं के हितों को तवज्जो देगा, वरना मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति का तो इतिहास गवाह है.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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