Boycott France: मुसलमानों के विरोध प्रदर्शन में बुनियादी गलती हो रही है
उग्र प्रदर्शनकारी, निर्दोषों का गला काटने वाले और ऐसी अमानवीय हरकतों का समर्थन करने वाले मुसलमान रसूल को मानने वाले नहीं हो सकते. रसूले पाक की जितनी ज्यादा चाहत पेश करना है तो उतना अच्छा व्यवहार कुशल होना पड़ेगा. इंसानियत का दामन पकड़कर मानवता की रक्षा करनी पड़ेगी. यही रसूल और इस्लाम का पैग़ाम है.
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मुसलमानों के रसूल हज़रत मोहम्मद मुस्तफा (Prophet Mohammad) की मोहब्बत के जज्बात यदि आपको उग्र प्रदर्शन करने पर मजबूर कर देते हैं. या गर्दन काटने वालों का आप समर्थन करते हैं तो आप मोहम्मद साहब के अनुयायी तो नहीं हो सकते. उनको चाहने का मतलब है उसकी तालीम को अपनाना. उनके चरित्र का अनुसरण करना. मोहम्मद साहब की सबसे बड़ी खूबी इनका इखलाक (व्यवहार) थी. वो सिर्फ उपदेश नहीं देते थे, भाषण ही नहीं देते थे, खुतबे ही नहीं देते थे बल्कि नेक अमल अपने किरदार में ढाल कर इंसानियत के रास्ते पर चलने का पैग़ाम देते थे. उन्होंने कहा था कि वो शख्स सबसे ज्यादा बहादुर और ताकतवर होता है जो अपने गुस्से और जज्बात़ो को काबू कर ले. तो जाहिर सी बात है कि अच्छे व्यवहार वाले. जज्बातों और गुस्से पर काबू करने वाले और उग्रता से दूर रहने वाले ही मोहम्मद साहब के अनुयायी होते होंगे. उग्र प्रदर्शनकारी, निर्दोषों का गला काटने वाले और ऐसी अमानवीय हरकतों का समर्थन करने वाले मुसलमानों के रसूल के विरोधी तो हो सकते हैं पर उनके मानने वाले नहीं हो सकते. रसूले पाक की जितनी ज्यादा चाहत पेश करना है तो उतना अच्छा व्यवहार कुशल होना पड़ेगा. इंसानियत का दामन पकड़कर मानवता की रक्षा करनी पड़ेगी. यही रसूल और इस्लाम का पैग़ाम है.
फ्रांस में जो मुसलमान कर रहे हैं उन्हें रसूल की वफ़ात मनाने का हक़ नहीं है
आप उग्रता पर विश्वास रखते हैं और जज्बातों पर काबू नहीं कर सकते तो मोहम्मद साहब का जन्मदिन बारावफात मनाने का भी आपको कोई हक़ नहीं.अल्लाह के रसूल हों, इमाम हों,पैगम्बर, औलिया या सूफी संत हों ,हम इनके किरदार से प्रभावित होकर इनके करीब जाते हैं. इनके सिद्धांतों को फॉलो करते हैं, अपनाते हैं, इसे अमली (प्रयोगात्मक) जिन्दगी की गाइड लाइन मानते हैं. इनका किरदार अपने किरदार में ढालने की कोशिश करते हैं.
हजरत मोहम्मद मुस्तफा पर लम्बे समय तक एक महिला कूड़ा फेकती रही. वो दौर था जब अरब मोहम्मद साहब किरदार से प्रभावित होकर ईमान ला रहे थे. तमाम सहाबा-ए-कराम थे. रसूले पाक पर गंदा कूड़ा फेकने वाली महिला पर क्या कोई सहाबा (रसूल के अनुयायी) उग्र हुआ? क्या रसूल के किसी सहाबी ने महिला की गर्दन काटी या सर काटने की कोशिश की? क्या उस गुस्ताख महिला के इलाके में मोहम्मद साहब पर जान देने वालों ने कोई उग्र प्रदर्शन किया था?
नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बल्कि बहुत दिनों तक रोज कूड़ा फेकने वाली महिला ने जिस दिन कूड़ा नहीं फेका तो हजरत मोहम्मद को चिंता हुई. उन्होंने खैरियत जानने की कोशिश की तो पता चला कि उस महिला की तबियत खराब है. ये जानकर रसूल परेशान हो गये और कूड़ा फेकने वाली महिला की देखने पंहुचे. जो रोज़ उनपर कूड़ा फेकती थी उसकी सेहत के लिए उन्होंने दुआ की. ये थे पैगम्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद मुस्तफा. और ऐसे ही उनके सहाबी थे.
यही कारण है कि रसूले पाक की यौमे विलादत के मोके पर उनके सहाबियों को भी याद किया जाता है. और इनके बताये इंसानियत के रास्ते पर चलने का संकल्प लेते हैं. लेकिन अफसोस कि कुछ ऐसे भी ह़ै जो हिंसा और नफरत का प्रदर्शन कर रसूल की चाहत साबित करते हैं जबकि ये सब मोहम्मद साहब और इस्लाम के पैग़ाम के विपरीत है. सच ये है कि नफरत के खिलाफ गांधीवादी का इंडियन कंसेप्ट भी इस्लामी किरदारों से निकल कर आया है.
मोहम्मद साहब के नाती इमाम हुसैन ने अपने नाना के चरित्र का अनुसरण करते हुए कत्ल करने आये प्यासे दुश्मन को भी अपने हिस्से का पानी पिलाने जैसे अमल पेश किए थे. और महत्मा गांधी ने कहा था कि मैं हजरत इमाम हुसैन के किरदार से काफी प्रभावित हूं. और गांधी के चरित्र को लेकर गांधीगीरी का कान्सेप्ट एजाद हुआ.
मोहब्बत के साथ विरोध जताने का एक ऐसा तरीका कि आपके साथ बुरा करने वाला आपके मोहब्बत से भरे व्यवहार से शर्मिंदा हो जाये. इंडियन गांधीगीरी की शुरुआती चेन का जन्म रसूल और कूड़ा फेकने वाली महिला जैसे किस्सों से होता है. इसलिए तमाम बातों का लब्बोलुआब ये है कि यदि मुसलमानों के रसूल को लेकर कोई गलत बयानी करे भी तो इसका जवाब हिंसा से नहीं मोहम्मदी ओर हुसैनी विचारधारा यानी गांधीगीरी से दिया जाना चाहिए.'
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