मुजफ्फरपुर के चंद्रहट्टी से सबक लेते तो 'चमकी' से 150 बच्चे बचा सकते थे
मुजफ्फरपुर के पास एक गांव चंद्रहट्टी में जिस तरह से चमकी बुखार से लड़ाई लड़ी गई है वो तारीफ के काबिल है. गांव वालों से सरकार का इंतजार नहीं किया और अपनी मेहनत से ही Acute Encephalitis Syndrome (AES) को हरा दिया.
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बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत का सिलसिला जिस तरह से शुरू हुआ वो बेहद दर्दनाक है. करीब 150 बच्चों की मौत की जिम्मेदारी लेने से सरकार पीछे हट रही है, हर साल ये बीमारी कई बच्चों को अपनी चपेट में लेती है. हर साल बच्चों की मौत का सिलसिला बढ़ता चला जाता है, लेकिन फिर भी इसका कोई इलाज नहीं मिलता. 90 के दशक से ही बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में Acute Encephalitis Syndrome (AES) का प्रकोप होता है पर साल दर साल बस सरकारें इसके लिए रिसर्च करती रह जाती हैं लेकिन अभी तक कुछ ठोस कदम नहीं उठा पाई हैं. बिहार का Muzaffarpur इससे सबसे ज्यादा प्रभावित रहता है, लेकिन इस साल मुजफ्फरपुर का एक गांव इसकी चपेट से बच गया.
इसके पीछे कोई रॉकेट साइंस नहीं है, न ही सरकार की कोई पहल है. इसके पीछे है गांव वालों की मेहनत जो अपने बच्चों को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर गए. मुजफ्फरपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर कुढ़हनी ब्लॉक में है चंद्रहट्टी गांव. इस गांव के लोगों ने खुद ही वो इंतजाम किए जिससे बच्चों की जान बचाई जाए. इस गांव से एक भी बच्चे की मौत नहीं हुई. इस साल बीमारी फैलने के पहले ही गांव वालों ने सारे इंतजाम कर लिए.
पूरे मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत से हाहाकार मचा हुआ है.
इस बीमारी से बचने के लिए गांव के ही एक व्यक्ति ने तरकीब निकाली. आस-पड़ोस के इलाकों से जहां बुरी खबरें ही आ रही थी वहीं उस व्यक्ति ने एक फेसबुक पोस्ट से प्रेरणा ली. फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि हर बार सरकार को दोष देने से कुछ नहीं होगा. काम खुद ही करना होगा. बस उसके बाद ये उस व्यक्ति ने बीड़ा उठा लिया अपने गांव के बच्चों को बचाने का. उन्होंने अपना नाम गोपनीय रखा क्योंकि उन्हें लगता है कि इस सफलता में पूरा गांव जिम्मेदार है और ऐसे में अगर किसी एक को नाम दिया गया तो ये गांव वालों के साथ नाइंसाफी होगी.
आलम ये है कि अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बुखार को लेकर रिपोर्ट मांग ली है, बाकी जगहों पर हाहाकार मचा है, लेकिन चंद्रहट्टी के लोग इस बात से खुश हैं कि उनके बच्चों की जान बच गई.
Bihar encephalitis: SC expresses concern, asks to file an affidavit in 10 days. @AneeshaMathur has more details. #ITVideos More videos: https://t.co/Nounxo6IKQ pic.twitter.com/K7pkQQGxAF
— India Today (@IndiaToday) June 24, 2019
कैसे बच्चों को बचाया इस बीमारी के प्रकोप से?
गांव के कुछ लोगों ने इसकी शुरुआत की. सभी को पता था कि आस-पास झोला छाप डॉक्टरों की कमी नहीं है और ऐसे में बच्चों के लिए सही इलाज उपलब्ध नहीं होगा. जब तक सही इलाज मिलेगा तब तक बहुत देर हो जाएगी. ऐसे में उन झोला छाप डॉक्टरों से ही कुछ उम्मीद रहेगी. गांव वालों ने उन डॉक्टरों के लिए जागरुकता अभियान चलाया. क्योंकि वो पहले ही लोगों को जानते थे इसलिए लोगों तक पहुंचना बहुत आसान था. सरकार द्वारा एक 10 पेज का दस्तावेज बनाया गया था, उसे ही प्रिंट कर अलग-अलग पंचायतों तक पहुंचाया गया.
इसी के साथ, उन्हीं दस्तावेजों की मदद से झोलाछाप डक्टरों से कहा गया कि वो इलाज शुरू करें. ये हिंदी में थे इसलिए समझना आसान था. 1 जून को चमकी बुखार की खबर जैसे ही आई वैसे ही गांव वालों ने युद्ध स्तर पर तैयारी शुरू कर दी. हर साल मानसून से पहले ये बीमारी फैलती है और जैसे-जैसे बारिश में देरी होती है ये बीमारी और विक्राल रूप लेती जाती है. इसीलिए तैयारी मानसून से पहले ही की गई.
इस बीमारी के बारे में और जागरुकता फैलाने के लिए ऑटो की मदद से गांव के चप्पे-चप्पे पर लाउडस्पीकर के जरिए घोषणाएं की गईं. गांव वालों ने ये नहीं सोचा कि सरकार ये करेगी या नहीं, उन्होंने अपने बच्चों की जान बचाने का बीड़ा खुद जो उठाया था. सरकारी घोषणाएं इतनी जल्दी की जाती हैं कि लोग ठीक से सुन भी नहीं पाते और घोषणा करने वाली गाड़ी आगे बढ़ जाती है. पर गांव वालों ने एक-एक जगह रुककर तीन-चार बार जानकारी प्रसारित की.
बिहार के मुज्जफरपुर में चमकी बुखार के खिलाफ जागरूकता अभियान pic.twitter.com/8h0X5VD4SA
— Raghvendra Mishra (@Raghvendram14) June 19, 2019
यहां तक कि गांव वालों के सवालों के जवाब भी दिए गए. इसके लिए खर्च भी गांव वालों द्वारा ही उठाया गया. यहां तक कि कई लोगों ने तो फ्री में काम किया. जैसे ऑटो के लिए सिर्फ पेट्रोल का खर्च लिया गया, लाउडस्पीकर का कोई चार्ज नहीं लगा, प्रिंटर ने बीमारी से बचाव के लिए बनाए गए पर्चे प्रिंट करने के कोई पैसे नहीं लिए, कुल मिलाकर गांव वालों ने इसके लिए काफी मेहनत की.
गांव वालों को उसी भाषा में समझाया गया जिस भाषा में उनकी समझ आए. ग्लूकोज उनके लिए कोई विदेशी दवाई की तरह था तो उन्हें नमक-शक्कर के घोल के बारे में जानकारी दी गई. गांव वालों की जागरुकता ने उनके बच्चों की जान बचाई.
क्या हर बार सरकार को दोष देने से काम चल जाता है?
इस सवाल का जवाब तो शायद चंद्रहट्टी के हर बाशिंदे के पास होगा. उन्होंने ये इंतजार नहीं किया कि सरकार क्या कर रही है, उन्होंने सरकार को दोष नहीं दिया. क्योंकि सरकार अगर काम करती है या नहीं करती है तो इससे नुकसान आम लोगों का ही होता है. सरकार को दोष देना, उसकी नीतियों को कोसना ठीक है, लेकिन उसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ती है वो बहुत ज्यादा है. बच्चों की मौत के बाद सरकार को दोष देना किसी भी हाल में सही नहीं है. खुद अगर बीड़ा नहीं उठाएंगे तो शायद इस तरह की महामारी से बचना मुश्किल हो जाएगा.
बिहार में और भी बच्चों की जान ऐसे बचाई जा सकती थी. जिन बच्चों की मौत हुई है वो गरीब तबके के थे और न तो साफ पानी न ही ठीक तरह का खाना उनके पास था. इन बच्चों को सरकार की कई स्कीमों का फायदा भी नहीं मिलता था. अगर उन्हें इस तरह के जागरुकता अभियान का हिस्सा बनाया जाता तो उनकी जान बच सकती थी. शुरुआती रिपोर्ट में लीची को दोष दिया गया था, लेकिन कई परिवार ऐसे थे जिनके बच्चों ने लीची खाई ही नहीं थी. उनके बच्चे भी इस समस्या से परेशान रहे. जहां तक अस्पतालों का सवाल है तो एक-एक बेड पर दो-तीन बच्चे मौजूद हैं. ऐसे में किसी भी सरकारी इंतजाम पर भरोसा करना लोगों के लिए मुश्किल हो सकता है.
चंद्रहट्टी गांव के बाशिंदों ने जिस तरह का काम किया है वो तारीफ के काबिल है. बच्चों को बचानी की मुहिम अगर इसी तरह से हर गांव में चलाई जाती या सरकार इस तरह से प्रयास करती तो बहुत कुछ बदला जा सकता था. कई परिवार उजड़ने से बचाए जा सकते थे, लेकिन अब चंद्रहट्टी एक मिसाल बन गया है और इससे प्रेरणा लेने की जरूरत न सिर्फ सरकार को है बल्कि अन्य शहरों और गांवों को भी चंद्रहट्टी से सीखने की जरूरत है. अपने बच्चों की जान अपने हाथ है और इसलिए लीची, सरकार, गर्मी, मानसून को दोष देना बंद करें और बच्चों की सुरक्षा पर ध्यान दें.
(ये स्टोरी इंडिया टाइम्स में सबसे पहले प्रकाशित हुई थी.)
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