नारायण दभालकर का परम परोपकार राजनेताओं औेर राष्ट्र के लिए शर्म का विषय!
85 वर्षीय बुज़ुर्ग नारायण दभालकर ने अपनी मौत को चुनकर एक कोरोना मरीज को जिंदगी दी है, वो रहमदिली की पराकाष्ठा है. लेकिन बड़ा सवाल यही है कि इस खबर को राजनेता किस मुंह से सोशल मीडिया पर प्रसारित कर रहे हैं? हर मरीज को बेड उपलब्ध न कराने वाला तंत्र शर्मसार क्यों नहीं होता?
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एक खबर कई बार सामने आ चुकी है कि कैसे नागपुर में एक 85 वर्षीय बुज़ुर्ग नारायण दभालकर ने अस्पताल में अपना बेड एक युवक को दे दिया और उसके प्राणों की रक्षा करते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया. इस खबर को राजनेता किस मुंह से सोशल मीडिया पर प्रसारित कर रहे हैं? हर मरीज को बेड उपलब्ध न कराने वाला तंत्र शर्मसार क्यों नहीं होता?
निश्चित तौर पर किसी की जीवन रक्षा हेतु अपने प्राण त्याग देना, संवेदनशीलता और त्याग की पराकाष्ठा है. यूं भी हमारी सांस्कृतिक विरासत इतनी समृद्ध है कि वहां त्याग और बलिदान की कई कहानियां सुनने-पढ़ने को मिलती आई हैं. भारत जैसे विशाल देश में इन कहानियों ने ही हमारे संस्कार और सभ्यता की नींव रखी है. चाहे वह श्रीराम हों, ऋषि दधीचि या फिर नचिकेता और ऐसे ही जाने कितने अनगिनत नाम, जिनकी कहानियों को सुनकर मन आश्चर्य से भर जाता है. हमारे स्वार्थी हृदय को तो सहसा विश्वास भी नहीं होता! लेकिन वो सब सच है परंतु सतयुग का!
एक मरीज को बचाने के लिए जो 85 साल के बुजुर्ग ने किया वो रहमदिली की पराकाष्ठा है
कलयुग में ऐसा विरले ही देखने में आया है. स्व. श्री नारायण जी ने जो किया, उसके हम सब साक्षी बने हैं. यह घटना इसलिए भी उल्लेखनीय है कि इस समय कोरोना ने मनुष्य के सामाजिक मूल्यों और नैतिकता को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर रखा है. देश के कई स्थानों से नकली इंजेक्शन बनाने, दवाओं की कालाबाज़ारी, और मरीज़ों से दुर्व्यवहार की खबरें सामने आ रही हैं.
साथ ही हम ये भी देख रहे हैं कि एक बेड के इंतज़ाम में परिजन कैसे चक्कर काट रहे हैं और इस कठिन समय में मनुष्य सिवाय अपनी जान बचाने के और कुछ भी सोच नहीं पा रहा है, ऐसे में किसी का स्वेच्छा से अपना बेड छोड़ किसी और मरीज़ को दे देना, इस कृत्य को अत्यंत सराहनीय और उस व्यक्ति को ईश्वरतुल्य बना देता है. उन बुज़ुर्ग सज्जन के बड़प्पन की जितनी भी प्रशंसा की जाए वो कम है.
नारायण जी की मौत, राजनेताओं के लिए डूब मरने वाली बात
निश्चित तौर से इस अतुलनीय त्याग की इस पूरी घटना पर हमारा भाव-विह्वल होना स्वाभाविक है. लेकिन हमें एक पल को भी नहीं भूलना चाहिए कि 'अगर बेड होता तो वे बच भी सकते थे'. त्याग और बलिदान अपनी जगह है लेकिन किसी भी देशवासी के लिए इससे अधिक शर्मिंदगी की बात और क्या हो सकती है कि 'चूंकि अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं है, इस कारण कोई वृद्ध स्वेच्छा से मृत्यु-वरण कर ले!
एक तंत्र के लिए यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय होता है जब एक देह के त्याग करने से दूसरी देह की रक्षा का प्रबंध हो रहा हो! क्या मृत्यु को महिमामंडित करने के स्थान पर हमें 'सिस्टम' से सीधे-सीधे प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि इलाज के अभाव में किसी व्यक्ति की जान कैसे चली गई? क्या इस तरह की मृत्यु अनैतिक नहीं लगती?
इस पूरे घटनाक्रम में किसी का कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता? क्या हर जीवन बहुमूल्य नहीं होता? तो फिर ये कैसा अद्भुत 'सिस्टम' है जो हर मृत्यु को उत्सव में परिवर्तित कर देता है! हम आयु के आधार पर जीवन की महत्ता का निर्धारण करेंगे? या कि इस अवधारणा को संपुष्ट समझें कि जब भी कोई गंभीर परिस्थिति आए तो बलि अधिक आयु वाला ही देगा?
डूब मर जाना चाहिए इस तंत्र को जो किसी की मृत्यु पर 'सॉरी' बोलने के स्थान पर आपसे केवल गौरवशाली अनुभव करने की बात करता है. यदि हम सब भी मात्र इसी भाव में डूब गदगद होते रहे तो व्यवस्थाओं में सुधार की उम्मीद हमेशा के लिए भूल जाना बेहतर है. आइए, तंत्र की असफलताओं पर गर्व करें और त्याग के नए प्रतिमान गढ़ने को तैयार हो जाएं. नम आंखों से, स्व. श्री नारायण जी को विनम्र श्रद्धांजलि.
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