National Girl Child Day 2020: गांव से गायब होती ‘सलवार कमीज़’ की कहानी
National Girl Child Day 2020: गाँव मे फ्रॉक मे खेलती बच्चियाँ भी थीं, निक्कर और शर्ट मे खेलते बच्चे भी और उन्हें संभालती साड़ी वाली महिलाएं भी. लेकिन गायब थीं तो सिर्फ ‘सलवार कमीज़’ वाली किशोरियाँ. संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (CRY) की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा बता रही हैं ये चिंताजनक कहानी...
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National Girl Child Day 2020: दोपहर के तकरीबन 03 बज रहे थे, उस दौरान उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के पुआरी खुर्द गाँव मे ज़्यादातर पुरुष मजदूरी National Girl Child Day आसपास की ईंट खदानों और खेतों पर जा चुके थे. शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस गाँव की पगडंडियों और चौपालों पर केवल बच्चे और महिलाएं ही दिखाई दे रही थीं. दिन के इस पहर में किसी भी गाँव का यह आम दृश्य हो सकता है पर फिर भी हर बार नजर घुमाने पर आँखों में कुछ खटक सा रहा था. गाँव मे फ्रॉक मे खेलती बच्चियाँ भी थीं, निक्कर और शर्ट मे खेलते बच्चे भी और उन्हें संभालती साड़ी वाली महिलाएं भी. लेकिन गायब थीं तो सिर्फ ‘सलवार कमीज़’ वाली किशोरियाँ. फ्रॉक और साड़ी के बीच की गायब इस महत्वपूर्ण कड़ी को खोजने पर पता चला कि यहाँ लड़कियों की शादी कम उम्र मे करना एक आम बात है, क्योंकि यहाँ पर ज़्यादातर किशोरियाँ शादीशुदा हैं यानि सलवार कमीज पहनने की उम्र में साड़ी में ही नज़र आती हैं.
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के हरहुआ ब्लॉक के अंतर्गत आने वाला पुआरी खुर्द गाँव एक मुसहर बस्ती है. मुसहर वो समुदाय हैं जो प्राचीन समय से गरीबी के कारण चूहे तक खाने के लिए जाने जाते हैं. कुल 27 परिवारों के इस गाँव में चार परिवारों को छोड़कर बाकी 23 परिवारों के लोग 09 माह के लिए पलायन पर चले जाते हैं.
बाल विवाह पूरी तरह से बंद होना चाहिए ,ताकि बच्चियां अपनी जिंदगी जी सकें.
इसी गाँव मे रहती है 26 वर्ष की धुनकी मुसहर (परिवर्तित नाम) जिसका जीवन बालविवाह और उसके दुष्परिणामों का एक अत्यंत गंभीर उदाहरण है. मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही शादीशुदा धुनकी अब तक 07 बच्चों को जन्म दे चुकी है, लेकिन जिसमें से केवल 3 ही अभी जिन्दा हैं. कभी कुपोषण तो कभी अन्य गंभीर बीमारियों के चलते उसके 04 बच्चों ने छोटी उम्र में ही दम तोड़ दिया. धुनकी न तो शारीरिक रूप से शादी और फिर गर्भधारण के लिए तैयार थी और न ही वो मानसिक रूप से खुद को और बच्चों को संभालने के लिए सक्षम थी. एक 14 वर्ष की बच्ची के लिए यह कुछ ज़्यादा ही बड़ी ज़िम्मेदारी थी. बकोल धुनकी उसे तो ठीक से याद भी नहीं कि वह कब और कितनी बार गर्भवती हुई.
जिस उम्र में धुनकी की गोद में किताबें और कंधों पर स्कूल का बैग होना चाहिए था, उस उम्र में उसकी गोद में उसका बच्चा था. ऐसी हजारों धुनकी हमारे देश के तकरीबन हर राज्य में आज भी हैं और कई बच्चियों की धुनकी जैसी ‘गोद भराई’ होने को है.
नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे–04 के अनुसार देश में ऐसी 26.8% महिलाएं हैं जिनकी शादी 18 वर्ष से कम आयु मे कर दी गयी थी. सर्वे के आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि 15-19 वर्ष कि 7.9% महिलायें या तो गर्भवती हैं या माँ बन चुकी हैं. कम उम्र में विवाह के गम्भीर परिणामों में से एक परिणाम होता है उसी कम उम्र में गर्भवती होना और जटिल प्रसव. जब देश में 15-49 वर्ष की 53.1% प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हों, तब कुपोषण की जड़ें अपने आप गहरी हो जाती हैं. कम उम्र में गर्भधारण करने वाली लड़कियां जो कि अनीमिया से भी जूझ रही होती हैं, जब एक कुपोषित बच्चे को जन्म देती हैं तो यह चक्र वहीं नहीं थमता इसका असर आने वाली पीड़ियों पर भी दिखता है.
बाल विवाह ना केवल इन बच्चियों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा देता है, बल्कि इन्हें अशिक्षा के घनघोर अंधकार में धकेलने का काम भी करता है. अशिक्षा उन्हें खुद के स्वास्थ्य से संबन्धित देख रेख को लेकर सही निर्णय लेने से वंचित कर देती है. आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि ऐसी महिलाएं जिन्होंने 10 या उससे अधिक वर्ष तक की शिक्षा ग्रहण की है उनका प्रतिशत केवल 35.7% है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में तो यह प्रतिशत और भी कम हो जाता है. यहाँ यह प्रतिशत घटकर क्रमश: केवल 23.3%, 25.1% और 32.2% हो जाता है.
ऐसे में ज़रूरत है कि हर बच्ची को प्रेरित करते हुए शिक्षा से जोड़ा जाए. बच्चों के उत्थान हेतु निरंतर कार्य कर रही संस्था CRY का यह मानना है कि किशोरियों को ऐसा माहौल प्रदान करने की आवश्यकता है, जहाँ वह खुलकर अपनी समस्याएँ साझा कर सकें, उनकी उम्र के विस्तार से चर्चा कर सकें, ताकि उनमें इतना आत्मविश्वास आ सके कि वह परिवार से अपनी इच्छाएँ, सहमति और असहमति ज़ाहिर कर सकें. इसके लिए CRY किशोरियों को एक समूह के जरिये जोड़ता है. यही नहीं अलग-अलग खेलों के जरिये उनमें आत्मविश्वास लाने का प्रयास करता है. इसके साथ ही साथ किशोरियों और किशोरी माताओं से जुड़ी माहवारी जैसी समस्याओं के समाधान के तरीके भी सुझाता हैं. यही किशोरी समूह स्कूल न जा पाने वाली बच्चियों के घर जाकर उनके माता पिता को मनाने का प्रयास भी करता है.
यह देखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में माता-पिता इसलिए बेटियों का स्कूल छुड़वा देते हैं, क्योंकि उनका स्कूल घर से काफी दूर स्थित होता है. ऐसे में किसी भी माता-पिता का अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंता करना जायज ही है. इसके लिए ज़रूरी है कि हर एक बच्ची को इतनी सुविधा दी जाए की वह निर्भय होकर सुरक्षित स्कूल तक जा सके. यही नहीं लड़कियों को आत्मरक्षा भी सिखाई जाए, ताकि वह ज़रूरत पड़ने पर स्वयं की रक्षा भी कर सकें. साथ ही साथ पुरुषों और किशोरों को भी उनकी ज़िम्मेदारी से अवगत कराएं.
यह अत्यंत दुख:द है कि हमारा समाज आज भी बाल विवाह जैसी कुरीति को नकारना नहीं चाहता. एक तरफ देश की बेटियां खेल के मैदान से लेकर अन्तरिक्ष तक पहुँच बना चुकी हैं तो दूसरी तरफ हमारे ही समाज का नेतृत्व करने वाले लोग बाल विवाह के बड़े बड़े समारोहों में जाकर आशीर्वाद देने से भी नहीं कतराते हैं. क्या हम इस प्रगतिशील देश में ऐसा समाज नहीं बना सकते, जहां हर बच्ची की गोद भराई किताबों से हो और आशीर्वाद में उसे समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा मिल सके?
(लेखिका सोहा मोईत्रा बच्चों के अधिकारों के लिए पिछले 40 साल से काम कर रही संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (CRY) की क्षेत्रीय निदेशक हैं.)
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