Nirbhaya Case: सांसें बचाने की जुगत में निर्भया के दोषियों का आखिरी हथकंडा
निर्भया (Nirbhaya Case) के दोषियों में से एक पवन गुप्ता (Pawan Gupta) को 7 साल बाद याद आया है कि रेप के दौरान तो वह जुवेनाइल (Juvenile) था, इसलिए उसने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में याचिका डालते हुए ओसिफिकेशन टेस्ट (Ossification Test) की मांग कर दी है. लेकिन जुवेनाइल एक्ट (Juvenile Act) भी इस बार उसे नहीं बचा पाएगा.
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निर्भया मामले (Nirbhaya Case) की सुनवाई में उस वक्त नया मोड़ आ गया जब फांसी की सजा पाए चार में एस एक आरोपी पवन कुमार गुप्ता (Pawan Kumar Gupta) के वकील ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक अजीब सी याचिका दायर कर दी है. याचिका में दावा किया है कि निर्भया रेप (Nirbhaya) मामले के दौरान पवन गुप्ता जुवेनाइल यानी नाबालिग था. सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि पवन गुप्ता को जुवेनाइल मानते हुए ही सजा सुनाई जाए. साथ ही पवन गुप्ता के जुवेनाइल (Pawan Kumar Gupta Juvenile) होने के सबूत पेश करने के लिए 1 महीने का वक्त भी मांगा है. ये पहली बाहर नहीं हैं कि निर्भया के आरोपियों ने फांसी से बचने के लिए कोई हथकंडा अपनाया हो. पिछले 7 सालों में निर्भया के दोषी ऐसे ही तमाम हथकंडे अपनाते रहे हैं. कभी रिव्यू याचिका (Review Petition) डालते हैं तो कभी दया याचिका और अब तो जुवेनाइल होने का दावा कर रहे हैं. दिल्ली हाईकोर्ट ने पवन कुमार गुप्ता की याचिका को रद्द करते हुए दलील दी है कि सुनवाई के दौरान कभी पवन कुमार गुप्ता की ओर से जुवेनाइल होने के कोई कागजात पेश नहीं किए गए. दरअसल, फांसी का फंदा झूलता हुआ इन चारों को दिख रहा है और इसी वजह से इनके वकील कानूनी दावपेंच खेलकर इन्हें बचाने की कवायद कर रहे हैं.
निर्भया के आरोपी आए दिन फांसी से बचने के लिए कोई न कोई बहाना लेकर याचिका दायर कर दे रहे हैं.
जुवेनाइल होने पर इतना जोर क्यों?
पहले तो ये समझिए कि जुवेनाइल यानी नाबालिग का मतलब क्या है (What is Juvenile Act). जिसकी उम्र 18 साल से कम है, वह नाबालिग माना जाता है और इसी के आधार पर उसे जुवेनाइल एक्ट के तहत सजा दी जाती है. बता दें कि जब अपराध किया है, तब भले ही 18 साल पूरे होने में चंद घंटे या मिनट ही क्यों ना बचे हों, लेकिन उसे नाबालिग माना जाता है. जुवेनाइल एक्ट के तहत अधिक से अधिक 3 साल तक की सजा दी जा सकती है. निर्भया के दोषियों में से एक इसी का फायदा उठाकर पहले ही जुवेनाइल एक्ट के तहत 3 साल की सजा पूरी कर के बरी हो चुका है.
लेकिन अब बदल चुका है जुवेनाइल एक्ट
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 (Juvenile Justice Act, 2000) के अनुसार तो 18 साल से कम के व्यक्ति को नाबालिग माना जाता था और उस पर जुवेनाइल एक्ट (Juvenile Act) के तहत अधिक 3 साल की सजा ही दी जा सकती थी, वो भी सुधार गृह भेजा जाता था. निर्भया मामले में नाबालिग होने के आधार पर जेल से छूटने वाले एक आरोपी के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हुए थे, जिसके बाद जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 (The Juvenile Justice ACT, 2015) बनाया गया. लोकसभा और राज्यसभा के बाद 31 दिसंबर 2015 को इसे राष्ट्रपित की मंजूरी मिल गई और ये कानून बन गया. इस एक्ट की धारा 15 के तहत 16-18 साल के किशोरों द्वारा कोई जघन्य अपराध किए जाने की स्थिति में केस आरोपी को बच्चा समझकर नहीं, बल्कि वयस्क समझकर चलाया जाता है. यानी, अगर 2012 या उससे पहले ये कानून बन गया होता तो निर्भया का एक नाबालिग दोषी जो आजाद घूम रहा है, उसे भी बाकी चार दोषियों के साथ फांसी के तख्ते पर लटकाया जाता.
Ossification Test की मांग
पवन गुप्ता की तरफ से उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट में ओसिफिकेशन टेस्ट (Ossification Test) की मांग की है. यहां सबसे बड़ा सवाल तो ये उठता है कि आखिर ये ओसिफिकेशन टेस्ट होता क्या है (What is Ossification Test)? बता दें कि इस टेस्ट में हड्डियों के जोड़ों के हिसाब से उम्र का अंदाजा लगाया जाता है. बता दें कि जोड़ों पर हड्डियां 25 साल की उम्र तक पूरी तरह से विकसित हो जाती हैं. हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि इस टेस्ट में 2 साल तक इधर-उधर हो सकता है. और ये बात पवन गुप्ता के वकील भी समझते हैं, इसीलिए वह संशय का फायदा यानी बेनेफिट ऑफ डाउट लेते हुए पवन गुप्ता को फांसी से बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
ओसिफिकेशन टेस्ट के तहत हड्डियों के जोड़ को देखकर उम्र का अंदाजा लगाया जाता है.
कोर्ट का क्या कहना है ओसिफिकेशन टेस्ट को लेकर?
सुप्रीम कोर्ट खुद ओसिफिकेशन टेस्ट को पूरी तरह से सही नहीं मानता. सुप्रीम कोर्ट ने एक केस में फैसला सुनाते हुए कहा था कि ओसिफिकेशन टेस्ट से उम्र का पता लगाने को सबूत के तौर पर नहीं देखा जा सकता है. कोर्ट के अनुसार, बेशक ये तरीका उम्र का पता लगाने में मददगार है, लेकिन इस टेस्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट किसी की कोई उम्र मानकर उस पर फैसला नहीं सुना सकता है. यानी एक बात तो तय है कि सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका खारिज ही होगी.
अपनाए हैं कैसे-कैसे हथकंडे !
जैसे-जैसे निर्भया के दोषियों को फांसी का फंदा और मौत दिखाई दे रही है, उनके वकील या खुद दोषी ही कोई न कोई बहाना बनाने लगते हैं, जिससे उनकी जान बच सके. आइए जानते हैं उन्होंने कैसे-कैसे बहाने बनाए.
- बुधवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने एक दोषी अक्षय की रिव्यू याचिका को खारिज किया था. बता दें कि अपनी याचिका में अक्षय तमाम तर्कों के साथ ये भी कहा था कि 'दिल्ली में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है और यह गैस चैंबर में तब्दील हो चुकी है. ऐसे में उसे मृत्यु दंड अलग से देने की क्या जरूरत है?'
- अक्षय ने वेद पुराण और उपनिषद का भी जिक्र किया. अक्षय ने कहा कि वेद पुराण और उपनिषद में लोगों के हजारों साल तक जीने का उल्लेख मिलता है. धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक सतयुग में लोग हजारों साल तक जीते थे. त्रेता युग में एक आदमी हजार साल तक जीता था. लेकिन अब कलयुग में आदमी की उम्र 50 से 60 साल तक सीमित रह गई है. तो फिर ऐसे में फांसी की सजा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तब तक तो वह खुद मर जाता है.
- अब क्यूरेटिव पिटीशन का भी सहारा लेने की योजना बनाई जा रही है. निर्भया के दोषियों के वकील ए.पी. सिंह ने बताया कि वो क्यूरेटिव पिटीशन दायर करेंगे और इसके साथ ऐसे 17 केस के उदाहरण देंगे जिनमें फांसी को उम्रकैद में बदला गया है. सिंह ने बताया कि क्यूरेटिव पिटीशन के बाद ही उनकी तरफ से दया याचिका लगाई जाएगी. बता दें कि क्यूरेटिव पिटिशन तब दायर की जाती है जब दोषी की दया याचिका राष्ट्रपति से खारिज हो जाती है और सुप्रीम कोर्ट से रिव्यू याचिका भी खारिज हो जाती है. बता दें कि क्यूरेटिव पिटिशन किसी भी मामले में कोर्ट की सुनवाई का आखिरी चरण होता है.
- याचिका में दलील दी कि गई थी कि सजा-ए-मौत का मतलब न्याय के नाम पर एक व्यक्ति को साजिश के तहत मार डालना. सरकार बड़ी समस्याओं का समाधान इस तरह पेश करना चाहती है, उन्हें समस्या की जड़ तक जाना चाहिए.
- निर्भया केस में ये भी दलील दी गई कि गंभीर अपराध के दोषियों को बिना सजा दिए नहीं छोड़ा जाना चाहिए. सजा के तरीके पर विचार करना जरूरी है, ना कि सख्त व संगीन सजा पर. मौत की सजा मानवाधिकारों का उल्लंघन है. यह जीने के अधिकार और अहिंसा के सिद्धांत के खिलाफ है. यह सजा हिंसा की संस्कृति है, ना कि उसका समाधान.
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