बिल में टैक्स की तरह 'टेस्ट' जोड़ रहे हैं अस्पताल
पैर में फ्रैक्चर होने के कारण अस्पताल पहुंची युवती को प्लास्टर लगाने के बाद जो बिल थमाया गया, उसमें एक ऐसे टेस्ट का जिक्र था जो पेट की बीमारी के लिए किया जाता है.
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जब आप अस्पताल जाएं तो एक बात का ध्यान रखें- सेहत की चिंता जरूर करें लेकिन जेबकतरों से हमेशा सावधान रहें. कम से कम निजी अस्पतालों के मामले में इस बात पर बिना दिमाग लगाए अमल कीजिए. बात आगे बढ़ाने से पहले ताजा घटना की बात कर लेते हैं, फिर इसका विश्लेषण करेंगे. मामला है नोएडा के मेट्रो अस्पताल का. जहां एक महिला पत्रकार सुरभी नंदकिशोर पैर में फ्रैक्चर होने के कारण पहुंचती हैं. उनके साथ अस्पताल में जो होता है, उसे अपनी फेसबुक पोस्ट में वो कुछ यूं लिखती हैं-
'एक रोड एक्सीडेंट के दौरान मेरा एक पैर टूट गया है और मैं नोएडा के मेट्रो हॉस्पिटल में भर्ती हूं. एक कच्चा प्लास्टर, एक एक्सरे और 2 दिन के स्टे का 34000 का बिल बनाया गया है. जिसमें अस्पताल ने पैर की हड्डी टूटने पर MRCP का 10000 रुपये का भुगतान भी ऐड किया है. MRCP एक तरह का टेस्ट होता है जो लिवर, गॉल ब्लैडर या आंत की दिक्कत आने पर किया जाता है. मतलब हड्डी के रोग या समस्या से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. मेरी बहन पेशे से डॉक्टर है और मुझे घर ले जाने के लिए वही आई है. जब उसने अस्पताल से पूछा कि हड्डी टूटने पर आपने ये 10000 का MRCP टेस्ट कब और कैसे कर लिया? ऐसा तो कोई टेस्ट हुआ ही नहीं है और ना ही ऐसे केस में होता है! तो अस्पताल ने कहा, 'लगता है गलती से ऐड हो गया मैडम'.
मैं जानना चाहती हूं कैसे ऐड हो गया आखिर? अगर मेरी बहन की जगह मेरे पापा या भाई होते तो फिर वो तो सवाल भी नहीं करते कि ये क्या है? कैसा टेस्ट है? सीधे पैसे थमा देते.
मैं जबसे यहां एडमिट हुई हूं, तबसे देख रही हूं अलग-अलग तरीकों से आम लोगों को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है. जानबूझ कर लोगों को डिस्चार्ज करने में लेट किया जा रहा है ताकि एक्स्ट्रा बेड चार्ज वसूला जा सके. यहां लोग इसी आस में आ रहे हैं कि कैसे भी कर के उनके रिश्तेदार, भाई, बेटे, माँ को बचा लिया जाए. लोगों को इन बातों से कोई मतलब नहीं है या शायद लोग जानते ही नहीं कि बिल में कौन-कौन से टेस्ट लिखे गए हैं और उनके क्या मायने हैं. अस्पताल द्वारा मेरी एक्सरे की रिपोर्ट और बिल खो जाने पर मुझसे कहा गया कि आपको दोबारा एक्सरे कराना होगा और बिल भी भरना होगा! ये क्या तरीका है? हालांकि विरोध करने पर इस बात को टाल दिया गया ये कह कर कि रिपोर्ट और बिल दोनों मिल गए हैं. यहां लोगों का इलाज नहीं तस्करी चल रही है! बहुत बुरी तरह.
इलाज के नाम पर किसी को लूटने की हद होती है. प्राइवेट अस्पताल आपका इलाज करने से ज़्यादा आपको मानसिक और आर्थिक तौर पर नोच खाने के लिए बनाए गए हैं.'
नोएडा का मेट्रो हॉस्पिटल जहां ये केस हुआ है
अब एक बार बिल की कॉपी भी देख लीजिए.
ये वो बिल है जो पहले सुरभी को दिया गया था.
इस बिल में रेडियोलॉजी लिखा गया है. रेडियोलॉजी असल में डिपार्टमेंट होता है. उस बिल को जो लेने गई थीं वो डॉक्टर थीं, इसलिए कुछ गड़बड़ भांप गईं. अस्पताल वालों से पूछने पर उन्होंने MRCP टेस्ट के बारे में बताया. जैसा की पहले ही बताया जा चुका है कि ये टेस्ट किसी हड्डी का नहीं बल्कि आंतों का, गालब्लैडर का और उसके आस-पास की जगहों का एक तरह का एमआरआई ही होता है. न ही ऐसा कोई टेस्ट हुआ था और न ही सुरभी की बीमारी से वो किसी भी तरह से जुड़ा था. अब बिल में एक और बात देखिए दवाओं की जगह मेडिकल एंड कंज्यूमेबल लिखा है. यानी कौन सी दवाएं दी गईं, क्या हुआ जो इतना खर्च हुआ आदि की डिटेल्स इस बिल में नहीं दी गई हैं. ये किसी तरह का छलावा भी हो सकता है कि डिपार्टमेंट के नाम पर या फिर दवाओं के नाम पर मरीज को क्या-क्या दे दिया जाए इसकी जानकारी न हो.
ये दूसरा बिल है जहां सुरभी के बिल में से उस टेस्ट के पैसे हटा दिए हैं.इस दूसरे बिल में से सीधे 9 हज़ार का अंतर आ रहा है. 9 हज़ार रुपए किसी भी साधारण इंसान के लिए बहुत ज्यादा हैं. अगर आपके साथ भी कभी ऐसा होता है और किसी छोटी सी बीमारी का बहुत ज्यादा बिल आता है तो यकीनन उस समय अपने बिल की जांच अच्छे से कर लें. अस्पताल वालों से किसी भी कन्फ्यूजन के बारे में पूछ लें.
इस पूरे मामले में कई सवाल मन में उठ रहे हैं जिनके बारे में बात करनी बहुत जरूरी है.
- अब इसे क्या समझा जाए? एक साधारण सी गलती या फिर मेडिकल किडनैपिंग?
- अगर सुरभी की बहन डॉक्टर न होती तो क्या होता?
- क्या अस्पताल वाले दोबारा बिल चेक करते?
- कोई साधारण इंसान जाता और अस्पताल वालों को अपनी गलती पता नहीं चलती तो उसे और कितने पैसे चुकाने पड़ते?
- क्या ये सिर्फ सुरभी के साथ हुआ है?
नहीं बिलकुल नहीं. ये सिर्फ किसी एक मरीज की बात नहीं है. और डॉक्टर न होकर कोई साधारण इंसान बिल लेने जाता तो उसे यही लगता कि बिल शायद इतना ही आया होगा, शायद ये सारे टेस्ट हुए होंगे और वो चुप चाप पैसे देकर आ जाता. ये किस्सा भारत के एक बहुत बड़े ट्रेंड की जानकारी देता है और वो ट्रेंड है मेडिकल किडनैपिंग. कुछ समय पहले आईचौक ने मेडिकल किडनैपिंग पर एक स्टोरी की थी जिसमें इसी तरह के एक किस्से का जिक्र किया गया था.
चलिए एक और किस्से की बात करते हैं. इसी साल जून में मेडिकल किडनैपिंग का एक बेहद हाईप्रोफाइल मामला सामने आया था. हैदराबाद की एक महिला ने अपनी मां की मृत्यु और उनके इलाज को मेडिकल किडनैपिंग का नाम दिया था. हैदराबाद की पारुल भसिन ने बताया कि उनकी मां लिवर फेल होने के कारण सिकंदराबाद के यशोदा अस्पताल में एडमिट हुई थीं. इसके बाद दिल्ली के बीएल कपूर अस्पताल में. इन सबका खर्च कुल 1.2 करोड़ रुपए आया और उनकी मां कई इन्फेक्शन होने के कारण बच न सकीं.
एक और मामले को जांच लेते हैं. 2017 नवंबर में गुड़गांव में एक बच्ची की डेंगू से मौत हो गई थी. उस बच्ची का इलाज फोर्टिस में चल रहा था. अस्पताल ने 15 दिन इलाज के बाद लगभग 20 पन्नो का बिल थमाया था, इस भारी भरकम बिल में महंगी दवाइओं के अलावा 660 सिरिंज, 2700 ग्लव्स भी शामिल थे. बिल की रकम थी 18 लाख रुपए. 15 दिन में इतना कुछ करने के बाद भी बच्ची नहीं बच पाई.
2017 के ही जनवरी महीने में एक और ऐसा मामला सामने आया था. फोर्टिस अस्पताल पर ही आरोप लगे थे कि एक महिला की मौत हो जाने के बाद भी चार दिनों तक उसके इलाज का नाटक किया जाता रहा. एक अन्य मामले में पथरी के एक मरीज को ऑपरेशन से पहले 7 दिन की दवा का बिल कथित रूप से पौने चार लाख रुपये थमा दिए गए थे.
भारत में मेडिकल किडनैपिंग का एक नया ही रूप देखने को मिला है. भले ही अमेरिका में इस टर्म का मतलब ही अलग हो, लेकिन भारत में ये सिर्फ और सिर्फ पैसे से जोड़ी जाती है. अगर कोई मरीज़ आया है तो उससे जितना हो सके उतने पैसा ले लो. यकीनन एक छोटे से पेट दर्द के इलाज के लिए भी अगर किसी अस्पताल में जाते हैं तो आज के समय में ये कहा जाता है कि एडमिट हो जाइए, फलानी जांच करवाइए. ये किसी से नहीं छुपा कि अस्पताल कितना ज्यादा पैसा चार्ज करते हैं.
आखिर इलाज कहां करवाया जाए?
इस किस्से के बारे में जानकर एक बहुत ही अहम सवाल सामने आता है. वो ये कि आखिर किस अस्पताल में इलाज करवाया जाए? सरकारी अस्पतालों में लापरवाही का डर है, गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज से लेकर दिल्ली के AIIMS तक कई सरकारी अस्पतालों में लापरवाही के किस्से सामने आ चुके हैं. इसके अलावा, अगर प्राइवेट अस्पतालों के बारे में देखा जाए तो गाहे-बगाहे हर बड़े अस्पताल में मेडिकल किडनैपिंग और फेक बिलिंग के केस सामने आ ही जाते हैं.
अब भारत इतनी तरक्की कर रहा है, तो यहां की जनता के पास इलाज के अच्छे अवसर तो होने ही चाहिए ना. लेकिन क्या करें. सरकारी तो दिक्कत, प्राइवेट तो दिक्कत. कभी-कभी सोचकर लगता है कि आखिर जो लोग हकीम, वैध, बाबा आदि के पास जाते हैं वो लोग क्या करते होंगे, कैसे रहते होंगे, लेकिन सच बोला जाए तो शायद उसकी एक वजह ये भी है. आखिर क्या करेंगे लोग ऐसे में.
मेडिकल किडनैपिंग के शिकार अक्सर वो लोग होते हैं जो असल में अपनों की जान बचाने और उन्हें ठीक होते देखने के लिए इतने परेशान होते हैं कि जो अस्पताल वाले कह देते हैं वो करने को तैयार हो जाते हैं. और हो भी क्यों न भारत में अस्पताल डर का फायदा जो उठाते हैं.
मेडिकल किडनैपिंग का एक बेहद अच्छा उदाहरण फिल्म गब्बर इज बैक में दिखाया गया था. इस सीन को देखिए.
क्या ये हालत नहीं है अभी मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की? जहां देखिए वहां हिंदुस्तान में मरीजों को बेवकूफ बनाया जा रहा है. भारत हेल्ड इंडेक्स में 145वें नंबर पर है जो रिपोर्ट वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की तरफ से आती है. 195 देशों में से 145वें स्थान पर आना वो भी तब जब हम दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हैं ये बड़ी ही चिंता की बात है. ये आंकड़ा, श्रीलंका, बंग्लादेश और भूटान से भी बुरा है.
पर आखिर स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर ध्यान देने की चिंता किसे है. हर बार ऐसे किस्से सामने आते हैं और फिर भी अस्पताल वालों की इतनी हिम्मत हो जाती है कि वो पहले से परेशान मरीजों से इतनी बुरी तरह से पेश आएंगे. आखिर कैसे? क्यों सरकार की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है इस मामले में, क्यों स्वास्थ्य सेवाएं इतनी पीछे चल रही हैं? बात सोचने वाली है कि आखिर कैसे ऐसे धोखे हर रोज़ मिल रहे हैं मरीजों और उनके परिजनों को. आज ये किसी और के साथ हुआ है कल किसी और के साथ होगा, लेकिन आखिर ऐसा कब तक चलेगा?
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