मदर्स डे के बहाने एक माँ से रु-ब-रु
कहानी है एक सिंगल मदर की. कुछ कहानियों में थोड़ा बहुत होता है और कुछ कहानियों में बहुत ज्यादा कुछ.
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कई बार आ जाती है मेरे चेहरे पे शिकन,
गुस्सा हद से पार,
नहीं देखना चाहती, तुम्हे आस-पास भी,
तुम उस दर्द की पहचान हो,
जिसे याद करके जीना मुश्किल है...
और ऐसा कुछ सोचकर मैं मुंह फेर लेती हूँ,
लेकिन....
ममता के हिलोरे के सामने कोई नफरत पल सकती हैं भला....!!
कहानी है एक सिंगल मदर की. कुछ कहानियों में थोड़ा बहुत होता है और कुछ कहानियों में बहुत ज्यादा कुछ.
सिंगल मदर की डबल लड़ाई
संघर्ष है, कोर्ट-कचहरी है, वकील हैं, जज है, रोज़-रोज़ के धक्के है, दुनिया के ताने हैं, चाहत सिर्फ इतनी के बेटे को बाप का नाम मिल जाये......
फिर, बेटे की तरफ देखती हूँ,
तुम तो नहीं किसी को यूँ छोड़ दोगे,
पेट में बच्चा डालकर, जन्म से पहले?
जन्म से पहले ही तुम तो नहीं अपने बच्चे की मौत की साज़िश रचोगे?
माँ की देह में, माँ की रूह की जगह एक औरत की रूह आने लगी. एक औरत जो लड़ रही है, अपने बेटे के लिए- वो डर में है, दशकों बाद, कभी ये कहानी फिर से तो नहीं दोहरा दी जाएगी..!! फिर से मुंह मोड़ने का मन करता है की अचानक-
इन बुरे ख्यालों को चीरती बेटे की चीख गूंजती है, अभी 11 महीने का है, दूध मांगने का कोई और तरीका अभी सीखा नहीं, भूख से बस चीख निकालता है, चीख का असर हुआ-
ऐ- खुदा तसल्ली बख्श, मैं तो किसी ऐसे इंसान को नहीं पाल रही, जैसे उसकी माँ ने पाला? औरत की रूह उतरने लगी, माँ की रूह देह में लौटने लगी. बेटे को सीने से लगाया, धड़कते हुए सीने को भी असीम शांति मिल गयी, मंझदार में फसी रूह को कोई किनारा दिखाई दिया हो जैसे, बेटा माँ के सीने से लग, सात समुद्र की गहराइयों में खो गया. बेटे की कोई जन्नत कहीं थी, तो वो माँ के सीने में ही है.
माँ की रूह अफ़सोस में है-
ऐसे बुरे ख्याल, एक नन्ही जान के लिए,
माँ तो वहशी नहीं पालती, माँ तो बस नन्हे बच्चे ही पालती है. वहशी होना तो इंसानो के अपने फैसले होते है.
तभी फ़ोन बजता है-
कोई माँ होने की बधाई देता है,
ख्यालों की लड़ी टूट जाती है.
किसी भी माँ की मेहनत, संघर्ष का कोई सानी नहीं होता दिन भर जागकर, दुनिया की औपचारिकताएं जो अपना पेट भरने के लिए जरुरी है, पूरी करना है, रात भर जग-जगकर अपने जिस्म के टुकड़े का पेट भरना है, लेकिन, माँ जब सिंगल मदर की भूमिका में हो तो ये संघर्ष कई गुना बढ़ जाते है. उसे अकेले ही सब करना है, किसी को अपना बच्चा कमर पर बांधकर सड़क किनारे मजदूरी करनी है, किसी को ऑफिस के creche में बच्चा छोड़कर जाना है, किसी को थोड़ी सी सैलरी से पैसे बचाकर, बच्चे की मेड रखनी है, किसी को अपने रिश्तेदारों-दोस्तों और पड़ोसियों से मदद मांगनी है.
क्योकि दिनभर पेट भरने के लिए चलने वाली औपचारिकताओं में कोई और साथ नहीं है... कुछ मामले और गंभीर हो जाते है, जिनका आजकल चलन भी खूब बढ़ रहा है. बच्चा होने के बाद या उस दौरान पति पत्नी को छोड़ देता. (या बच्चा बलात्कार की देन हो) उनके हालात और बुरे हो जाते हैं. कहते हैं मरे का सब्र आ जाये लेकिन ज़िंदे वहशियों का नहीं आता. अब बच्चा आपको गोद में उठाकर जज़ साहब के सामने जाना है, माँ को साबित करना है- ये इसी आदमी का बच्चा है! अपना नाम तक देने से बचने वाले वहशी बाप से बच्चे का हक़ तक लेना है! ये लेने की प्रक्रिया छीनने से होकर गुजरती है.
इस बीच सिंगल मांओं का दर्द कभी- कभी अपने बच्चो के प्रति अप्रिय ख्याल में भी झलक जाता है. लेकिन ममता के हिलोरों के सामने कोई नफरत पल सकती हैं भला....!! अपने ज़िन्दगी के सबसे बुरे अनुभवों को भूलकर उसे वो सब करना है जो दूसरी माँ(ऐ) कर रही है. अपने बच्चे को एक बेहतर ज़िन्दगी देने में लगी, दुनिया की तमाम माँओ को सलाम.
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