ये कौन हैं जो आज भी पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत रखती हैं !
प्रकृति ने ऐसा कोई रास्ता नहीं बनाया है, जिससे इंसान 'जीवन' में कोई हस्तक्षेप कर सके, क्योंकि प्रकृति लड़का और लड़की को समान मानती है.
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जिन महिलाओं ने आज व्रत रख हुआ है उन्हें कुछ बातें जान लेनी चाहिए. इंद्रा नूई पिछले 11 सालों से पेप्सिको की प्रमुख हैं, प्रियंका चोपड़ा ग्लोबल सिटीजन 2017 के कार्यक्रम तक पहुंच चुकी हैं और एयरफोर्स में तीन महिलाएं फाइटर एयरक्राफ्ट उड़ा रही हैं. हिंदुओं के लिए आज का दिन बेहद अहम है, जिसे पौष पुत्रदा एकादशी के रूप में मनाया जाता है. हर महीने में दो बार एकादशी होती है, जिनके अपने-अपने महत्व हैं. पौष पुत्रदा एकादशी को हिंदू महिलाएं व्रत रखती हैं और पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु की पूजा करती हैं. आगे बढ़ने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि 'पौष पुत्रदा एकादशी' क्या है-
पौष पुत्रदा एकादशी को हिंदू महिलाएं व्रत रखती हैं और पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु की पूजा करती हैं.
यूं हुई पौष पुत्रदा एकादशी की शुरुआत
पौष पुत्र एकादशी का उल्लेख भविष्य पुराण में मिलता है. इसके अनुसार भगवान कृष्ण ने यह कहानी युधिष्ठिर को सुनाई थी, जो पांडवों में सबसे बड़े थे. एक बार भद्रावती के राजा सुकेतमन और उनकी रानी शैब्या बेटा न होने की वजह से चिंतित थे. उन्हें चिंता थी कि मरने के बाद उनकी आत्मा भटकेगी, क्योंकि उनका अंतिम संस्कार करने के लिए उनका कोई बेटा नहीं है. सुकेतमन इसी चिंता में घर छोड़कर जंगल चले गए, जहां पर मानसरोवर झील के तट पर उन्हें कुछ संत मिले. संतों ने बताया कि वह 10 वैदिक भगवान हैं. उन्होंने राजा को वापस जाने के लिए कहा और व्रत रखने को बोला. राजा ने ऐसा ही किया और उन्हें एक बेटे की प्राप्ति हुई. सुकेतमन और वैदिक देवों के बीच हुई इस मुलाकात को ही पौष पुत्रदा एकादशी के रूप में मनाया जाता है.
कहानी तो पढ़ ली, अब इन बातों पर विचार करिए
आज के दिन जिन विवाहित जोड़ों ने मौत के बाद अंतिम संस्कार की चिंता करते हुए बेटे की प्राप्ति के लिए ये व्रत रखा है, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि मां-बाप की मौत से बेटे और बेटी को समान दुख होता है. पुराने समय में बनाई गई हिंदू परंपराओं में अब काफी बदलाव की गुंजाइश आ चुकी है. बेटे या बेटी से कोई फर्क नहीं पड़ता. यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह बदलाव को अपनाता है या नहीं. इस तरह से बेटे की चाह में व्रत रखना कोई मायने नहीं रखता है.
हिंदू परंपराओं में बदलाव का ये दौर 1704 में शुरू हुआ, जब गुरु गोबिंद सिंह की बेटी बीबी हर्षकरन कौर ने चमकौर के युद्ध में मारे गए शहीदों का अंतिम संस्कार किया था. यह युद्ध सिखों और मुगलों के बीच हुआ था.
लैंगिक समानता का एक अन्य उदाहरण देते हुए राजनेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे ने 2014 में अपने पिता की चिता को आग दी थी.
2016 में नागपुर की एक महिला तोमिना बोबाडे ने अपने पिता सुमित मुंशी का अंतिम संस्कार किया था और सदियों पुरानी हिंदू परंपरा को चुनौती दी थी.
इसी तरह के बहुत से ऐसे मौके देखने को मिलते हैं, जहां पर बेटियां आगे आई हैं और उन्होंने एक बेटे का कर्तव्य निभाया है. अगर आप इतने सारे उदाहरणों के बावजूद खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं तो आइए आपको एक साइंटिफिक अप्रोच बताते हैं, जो आपको आज के दिन के महत्व पर सवाल उठाने के लिए मजबूर कर देगा.
अभी तक ऐसी कोई भी स्टडी सामने नहीं आई है, जिससे यह पता चलता हो कि व्रत रखने से स्पर्म या फिर क्रोमोसोम पर कोई असर पड़ता है. आज या किसी और दिन व्रत रखने से XX क्रोमोसोम (लड़की) XY क्रोमोसोम (लड़का) में नहीं बदलने वाला. इससे यह तो साफ होता है कि प्रकृति ने ऐसा कोई रास्ता नहीं बनाया है, जिससे इंसान 'जीवन' में कोई हस्तक्षेप कर सके, क्योंकि प्रकृति लड़का और लड़की को समान मानती है.
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