पद्मावती विवाद में अब सीता को घसीटा जाना ही बाकी था...
कितने लोग इस बहस में पड़ना चाहेंगे कि - 'रावण की कैद में होने के बावजूद सीता का ससम्मान संघर्ष पद्मावती के जौहर से कहीं बड़ा है. इसलिए संघर्ष के बजाए आत्महत्या को चुनने वाली पद्मावती कभी प्रेरणास्रोत नहीं हो सकतीं.'
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संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावती असल में विवादों का एक भरापूरा पैकेज है! जहां एक ओर करणी सेना द्वारा दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी और भंसाली साहब का सिर काट लाने के लिए पांच करोड़ के इनाम की घोषणा पर केंद्र चुप है, वहीं इस सबसे इतर सोशल मीडिया पर एक अलग ही विवाद उठ खड़ा हुआ है ! पद्मावती के जौहर पर विवाद !
किसी भी बात पर वाद या विवाद करने से पहले उसका सही अर्थ और उसके पीछे के कारणों को जानना निहायत ही ज़रूरी है !
आदि काल में जब एक सुल्तान/बादशाह युद्द में किसी राजपूत राजा को हरा देता था, तब वह हारे हुए राजा के राज्य के साथ-साथ उनकी रानियों पर भी अपना अधिकार कर लेता था! जिन्हें वो अपने हरम में रखते थे और मित्र बादशाह की सेवा में भी पेश करते थे, जो किसी वेश्यावृत्ति से कम नहीं था! ऐसे में कुछ राजपूतानियां हार की ख़बर पाते ही जौहर का रास्ता अपनातीं थीं! जौहर का शाब्दिक अर्थ वीरता है. वीरता इसलिये है कि अनजाने में लगा एक छोटा सा चटका हमें पूरा दिन तड़पाता है. लेकिन जौहर करने वाली वे रानियां हड्डी तक को जलाकर राखकर देने वाले अग्नि कुंड में सिर्फ़ अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये कूद जाती थी!
फिर भी आधे मानुष का मानना है कि जौहर कायरता की निशानी थी और रानी पद्मावती एक कायर रानी थी! ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने के ऊहापोह में कुछ बुद्धिजीवियों ने पद्मावती की तुलना ‘रानी लक्ष्मीबाई’, ‘फूलन देवी’ एवं अंततः दिमागी दिवालियापन की हालत में ‘सीता’ से कर दिया!
विषम परिस्थितियों में अगर सीता का जीवित रहना श्रेष्ठ है तो जीवन और मृत्यु में मृत्यु को चुनना निश्चित ही वीरता है! सौ से भी अधिक उम्र के वृद्ध में जीने की इच्छा का अंत नहीं होता. ऐसे में जौहर करने वाली वे रानियां स्वेच्छा से मौत का आलिंगन करतीं थीं. तो बताइये जौहर करने वाली स्त्रियां आख़िर कायर कैसे हुई? युद्ध में लड़ते लड़ते मर जाना निश्चित ही बहादुरी है. किंतु अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये स्वयं के साथ-साथ जीने की सारी जिजीविषा को भी जला कर राख कर देने वाली स्त्रियां कायर नहीं हो सकतीं बल्कि बहादुर ही होगीं!
आइये अब उन तुलनाओं पर भी नज़र डालते है जो सोशल मीडिया पर महामारी की तरह फैली हुई है!
रानी लक्ष्मी बाई:
लक्ष्मीबाई और पद्मावती दोनो ही रानियां थीं पर रास्ता दोनों ने अलग चुना
पद्मावती की तुलना लक्ष्मीबाई से बहुत हद तक तर्कसंगत है. क्यूंकि रानी तो दोनों ही थी. लेकिन एक ने जौहर का रास्ता चुना, तो दूसरी ने युद्ध का. पर आप ही बताइये क्या आपकी पांचों उंगलियां एक सी हैं? क्या आप सभी भाई-बहन एक जैसे हो? या क्या हम सभी स्त्रियों के सोचने का तरीक़ा एक है? सबका जवाब है ‘नही’. तो फिर हम क्यूं दो रानियों से एक सी उम्मीद करते हैं? और वो उम्मीद भी उम्मीद की शक्ल में कहां है? क्यूँकि वो तो गुज़र चुका है? और गुज़रे हुए से उम्मीद नहीं की जाती, बल्कि उसपर अफ़सोस किया जाता है! इसलिये यदि हम इस बात पर बहस करें कि क्या हो सकता था, तो शायद पद्मावती को भी आपसे ये पूछने का अधिकार है कि तुमने ऐसा क्यूं लिखा? तुम्हें तो वैसा लिखना चाहिये था या तुम लेखिका क्यूं बनीं? तुम्हें तो छिल्लर की तरह ब्यूटी क्वीन होना चाहिये था!
कहने का अर्थ है कि हर व्यक्ति अपना रास्ता अपनी क्षमता के आधार पर स्वयं चुनता है! पद्मावती को ये पता था कि वे युद्ध नहीं कर सकतीं हैं. इसलिये जौहर का रास्ता चुना. क्यूंकि उस युद्ध का आधार भी वह स्वयं थी. वह जानतीं थीं कि युद्ध में हार के उपरांत उसकी नियति हरम होगी. जहां उसकी स्थिति एक वेश्या सी होगी और शायद उसकी कलाई में तलवार थामने की ताक़त नहीं रही होगी, जिस कारण पद्मावती ने जौहर चुना !
चलिये मान भी लेते हैं कि वो हाथ में तलवार पकड़कर मैदान में उतर जाती. तो संभवतः प्रशिक्षण के अभाव में लड़ नहीं पाती और हरम के लिये बंदी बना ली जाती. क्यूंकि युद्ध उसे पाने की ख़ातिर ही हुआ था तब आप कहते जब लड़ नहीं सकती थी तो जौहर कर अपनी अस्मिता बचा लेती, असल में आपमें प्रशंसा की नीयत नहीं है. बल्कि ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में दूसरों को ग़लत कहने की ज़िद है!
उनके कृत्य के पीछे मात्र अस्मिता की रक्षा थी, जो उन्होंने किया. क्यूंकि उनके लिये उनकी अस्मिता महत्वपूर्ण थी. और हमें इस बात का सम्मान करना चाहिये कि वो इसमें भी सफल रही! क्यूंकि हर इंसान एक समान नहीं हो सकता, इसलिये इतिहास में कई रानियों ने हार के उपरांत जीते हुए बादशाह के हरम की शोभा बनना स्वीकार किया. अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये वह भी तलवार लेकर मैदान में उतर सकती थी या जौहर कर सकती थी. लेकिन उन्हें ख़ुद के लिये हरम उचित लगा!
फूलन देवी:
फूलन देवी से तुलना करना बेवकूफी है
यक़ीन मानिये मेरी नज़र में यह तुलना बेहद हास्यास्पद है. क्यूंकि पद्मावती और फूलन देवी के समय में बहुत अंतर था! दो अलग-अलग काल खंड में जन्में हुए लोगों की तुलना इसलिये भी नहीं की जा सकती, क्यूंकि उनके आचरण पर उनकी परवरिश का प्रभाव होता है. और परवरिश पर काल खंड और सामाजिक स्थिति का!
फूलन देवी ने बलात्कार के बाद नौ राजपूतों का सर उड़ाया था और उसके वाद स्वयं भी मारी गई थी! लेकिन पद्मावती ने ऐसा होने से पहले ही जौहर का रास्ता चुना! हर व्यक्ति की अपनी अलग प्राथमिकता होती है. संभवतः पद्मावती की प्राथमिकता उनकी अस्मिता थी और अपनी अस्मिता की रक्षा करना प्रत्येक स्त्री का व्यक्तिगत अधिकार है. लेकिन इससे फूलन देवी की बहादुरी से भी इंकार नही किया जा सकता.
सीता:
पहले हरम और अशोक वाटिका का अंतर तो जान लेते
पद्मावती की तुलना सीता से करना मुझे दिमाग़ी दिवालियापन के सिवा और कुछ नहीं लगता! अव्वल तो सीता को छल से हर लिया गया था. और हरण के उपरांत अशोक वाटिका में रखा गया था. यदि पद्मावती को भी हर लिया जाता तो पहले तो उन्हें जौहर की नौबत नहीं आती, दूसरे हरम में रखी जाती. अगर आप हरम और अशोक वाटिका में अंतर नहीं समझ पा रहे, तो आपको इस विमर्श पर चुप ही रहना था.
एक पुरुष जौहर की निंदा इसलिये करता है कि वह स्त्री को हमेशा भोग्या के रूप में ही देखना चाहता है. लेकिन एक स्त्री का विरोध स्वयं को पद्मावती से श्रेष्ठ साबित करने के लिये किया जा रहा है. स्त्री विमर्श में आजकल तथ्यों से ज़्यादा हवा में बात की जाती है.
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