नेतागिरी छोड़िए, महिलाओं की चुनौतियां सबरीमाला से ज्यादा कठिन हैं
चाहे सबरीमाला (Sabarimala Mandir) हो या कोई और मंदिर, वहां जाने का आंदोन तो बहाना है. असल में तो बस अपना नाम चमकाना है. अगर मंदिर जाने भर से स्त्रियां सशक्त हो जाती तो आज देश की आधी आबादी को उनके हिस्से का आसमान मिल चुका होता.
-
Total Shares
सबरीमला मंदिर (Sabarimala Mandir) में औरतों को जाने का हक़ मिले इसके लिए लड़ रहीं फ़ेमनिस्टों से रिक्वेस्ट है कि वो बजाय इसके. उन औरतों के हक़ लिए आवाज़ उठायें. जिन्हें आज भी अपने ससुराल से मायके जाने की आज़ादी नहीं है. ये सो कॉल्ड ऐक्टिविस्ट सिर्फ़ अपने एजेंडे के लिए काम करती हैं. इन्हें लाइट-कैमरा-ऐक्शन जहां दिखता है वहां जाना चुनती हैं. फ़िलहाल सबरीमला में जाने के लिए ऐक्टिविस्ट तृप्ति देसाई ने स्टेटमेंट दिया है कि वो 16 नवम्बर को मंदिर जाएंगी. इसके पहले भी वर्ष 2018 में उन्होंने सबरीमला मंदिर में जाने की असफल कोशिश की थी. जैसा कि हम जानते हैं मंदिर के गर्भ-गृह में दस साल से पचास साल की आयु-वर्ग की स्त्रियों का जाना वर्जित है. इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ाइनल वर्डिक्ट आना अभी भी बाक़ी है.
तृप्ति देसाई का मानना है कि सबरीमाला जाकर दर्शन करने से महिलाएं पहले से ज्यादा सशक्त होंगी
काश कि ये ऐक्टिविस्ट-फ़ेमिनिस्ट बिना अपना मतलब साधे उन औरतों के हक़ लिए भी आवाज़ उठाती जिन्हें न तो मन का खाना मिलता, न मन का कपड़ा. हर रात बिस्तर पर बलात्कार होता है. और पत्नी धर्म समझ कर वो सह रही हैं. ये ऐसी औरतें हैं जिनको मंदिर-मस्जिद जाने की आज़ादी नहीं चाहिए. इन्हें बस इनकी मर्ज़ी से कभी अपने मायके जाने को मिल जाए तो ये उसी में ख़ुश हो जायेंगी. इन्हें कभी शौक़ से चौक-बाज़ार तक जा कर अपनी पसंद की चूड़ी-बिंदी ख़रीदने की छूट दे दी जाए तो उन्हें लगेगा कि वो आज़ाद तो हैं.
कहीं और की बात नहीं करूंगी. बिहार में अभी महीना गुज़ार कर आयी हूं. देख कर आयी हूं वहां के गांव में रह रही स्त्रियों की स्तिथि. मंदिर-मस्जिद जाने की बात छोड़िए इन औरतों को घर के दरवाज़े पर निकलने के लिए पुरुषों से परमिशन लेना पड़ता है. जब तक पति या ससुर नहीं कहेंगे तब तक तो वो अपने मायके नहीं जा पाएंगी. मगर इनकी बात कोई नहीं करता क्योंकि वहां की खबरें हेड-लाइन जो नहीं बनती.
ये मंदिर में औरतों के चले जाने और नहीं जाने से कोई भला नहीं होने वाला. हैं तो हज़ारों मंदिर जहां लाखों की तादाद में जाती हैं औरतें मगर अकेली नहीं अपने पति-पिता-बेटे-भाई या समाज के किसी और पुरुष के साथ. अब कोई मुझे समझाओ कि ये मंदिर जाने वाली औरतें आख़िर सशक्त कैसे हो गयी? क्या इन्हें मंदिर जाने भर से अपनी ज़िंदगी के हर अहम फ़ैसले लेने का हक़ मिल गया. तो क्या सबरीमला मंदिर में जाने के बाद वो अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी चुन पाएंगी? जो करना होगा कर पाएंगी?
मंदिर में जाने की आज़ादी से पहले स्त्रियों को उनके बेसिक राइट्स मिलने चाहिए. वो ज़िंदगी में जो करना चाहती है उसके लिए उन्हें रास्ता दिखाया जाना चाहिए. कभी महिला-अधिकारों के लिए लड़ रहीं इन देवियों को गांव की उन स्त्रियों से मिल कर उनसे पूछना चाहिए कि उन्हें आख़िर अपनी ज़िंदगी से क्या चाहिए. क्या वो मंदिर जाना चाहती हैं या अपनी मर्ज़ी से अपने मायके. सिर्फ़ इसलिए कि धार्मिक-आस्था से जुड़ी बात है और किसी भी धर्म की आस्था के ख़िलाफ़ बोलने से लाइम-लाइट मिलेगी इसलिए कुछ नहीं करना चाहिए. ऐसा करके आप उन औरतों के संघर्ष को और कठिन बना रही जो सच में अपनी लड़ाई लड़ रहीं.
ये भी पढ़ें -
Sabarimala Verdict: तैयार रहिए 'दक्षिण की अयोध्या' पर फैसले के लिए!
सबरीमाला पर सियासत जारी रहेगी, राफेल का कांग्रेसी-किस्सा खत्म
सबरीमला हो या कोल्लूर मंदिर: चुनौती आस्था को नहीं पितृसत्ता को है
आपकी राय