Promise day: भारतीय समाज और वादे का नाजुक शीशमहल
यह प्रॉमिस, लौंग के तेल वाला टूथपेस्ट नहीं, बल्कि किसी सघन दलदल में बिछे सूखे पत्तों पर चलने जैसा अभिशाप है जहां प्रत्येक क़दम फूंक-फूंककर रखना होता है. जान हथेली पर होती है.
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भारतीय समाज में वादा, प्रॉमिस, वचन की महत्ता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक वचन के कारण ही पूरी रामायण रच दी गई. 'प्राण जाय पर वचन न जाय' को लोगों ने अपना जीवन-सूत्र बना लिया. तमाम युद्ध और घटनाओं की जड़ में भी कहीं-न-कहीं ये वचन ही रहा. कोई राजा किसी रूपवती पर इस क़दर मुग्ध हुआ कि स्वयं को ही वचन दे डाला...."मैं इसे पाकर रहूँगा", उसके बाद की कहानी का तो इतिहास में तुरंत स्थान पा लेना सुनिश्चित था ही. इधर वर्तमान में कुछ नासमझ अपनी पत्नी को वचन दे अपनी जान सांसत में डाल लेते हैं जबकि भारतीय समाज में आज भी पत्नी को वचन देने का मतलब, उम्र भर का ताना मोल ले लेना है.
इसे 'कुल्हाड़ी पर डायरेक्ट पैर मारना' भी कह सकते हैं. बड़ा भावुक दृश्य होता है जब वह अपने मायके वालों से आप ही के समक्ष बड़ी मासूमियत से कह रही होती है, "इनका तो का बताएं जिज्जी, 1989 में लाल किले पे घुमाने को कहा था, आज तक न ले गए. 1992 में गुप्ता जी की दुकान से साड़ी भी न खरीदने दी, बोले बाद में दिलवाऊंगा और फिर 93, 94 से लेकर 2018 तक की पूरी सूची से आपका साक्षात्कार हो रहा होता है. पति बेचारा अपनी पत्नी की उत्कृष्ट स्मृति-शक्ति पर गर्व करने का दुस्साहस भी नहीं कर पाता! इधर कुआं, उधर खाई वाली मर्मस्पर्शी परिस्थिति होती है उसकी.
प्रॉमिस, लॉन्ग के तेल वाला टूथपेस्ट नहीं, सघन दलदल में बिछे सूखे पत्तों पर चलने जैसा अभिशाप है
पर इससे भी अधिक ख़तरनाक है, बच्चों से कोई वादा करना. ओहोहो, ग़र आपने गलती से प्रॉमिस कर दिया कि "हां, बेटा कल वहां चलेंगे या तुम्हारे लिए समोसे बनाऊंगी" आदि और इसके बाद निभा नहीं पाए तो दिन रात उनकी आग्नेय आंखों और तत्पश्चात आपके भीतर उत्पन्न होते घनघोर ग्लानि-भाव के लिए आप ही स्वयं ज़िम्मेदार हैं. यह प्रॉमिस, लौंग के तेल वाला टूथपेस्ट नहीं, बल्कि किसी सघन दलदल में बिछे सूखे पत्तों पर चलने जैसा अभिशाप है जहां प्रत्येक क़दम फूंक-फूंककर रखना होता है. जान हथेली पर होती है.
अब ये मानकर भी नहीं चलना चाहिए कि वादा-खिलाफ़ी दूसरा पक्ष ही करता है. तनिक वज़न कम करने वाले गोलू मासूमों से पूछिए कि वो वीकेंड में पिज़्ज़ा-बर्गर का सात्विक भोजन करते समय, हर सोमवार के लिए स्वयं से क्या-क्या वादे कर रहे होते हैं! कितनी निष्ठा से वे सुबह पांच बजे का अलार्म लगाकर उठते हैं और स्वयं को सांत्वना देते हुए पांच बजकर, पांच मिनट को पुनः बिस्तर रूपी स्वर्ग धारण करते हैं. इस तरह इनके आलस्य के निवारण का सोमवार कभी नहीं आ पाता! लेकिन हिम्मती इतने कि हर वर्ष के इकत्तीस दिसंबर को निर्मित कार्यतालिका में 'वेट लॉस' का गोला प्रथम स्थान पाता है और जनवरी के प्रथम सप्ताह तक किसी निर्दयी इरेज़र से मिट, स्थानांतरित होता नज़र आता है.
अब जब घरेलू स्तर पर हम वादों के शीशमहल को बेधड़क चकनाचूर होते देख, हंसते हुए सह जाते हैं तो पक्ष / विपक्ष के नेताओं से चुनावी वादों को पूरा करने की उम्मीद क्यों कर बैठते हैं? उन पर तो पूरे देश का भार है, अत: हमें उनका आभारी होना चाहिए एवं उनकी 'वादीय क्षमता' पर अत्यधिक गर्व का अनुभव करना चाहिए.
'वादे' नामक चुम्बकीय तत्त्व को बॉलीवुड ने भी ख़ूब भुनाया है. चाहे 'जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा' वाला सदाबहार गीत हो या अपने सल्लू - भाग्यश्री का "वादा किया है तो निभाना तो पड़ेगा" वाला क्यूट-सा, रोमांटिक डायलॉग.
कभी मुस्काती, हेमा जी यह जताती रहीं कि "ओ मेरे राजा, खफा न होना देर से आयी, दूर से आयी, मजबूरी थी फिर भी मैंने वादा तो निभाया" तो कभी स्मित चेहरा लिए सुनील दत्त साब "तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूँ ही मस्त नगमे लुटाता रहूं /तुम मुझे देख कर मुस्कुराती रहो, मैं तुम्हें देख कर गीत गाता रहूं" कहकर लाखों दिल लूट ले गए. जीतू सर "कितना प्यारा वादा है, इन मतवाली आंखों का" पर सबको नचाते रहे तो "क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम, वो इरादा/ भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हें" ने दर्शकों को बाल्टी भर-भर टेसुए बहाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी. "वादा कर ले साजना" गीत पर विनोद खन्ना के साथ थिरकती प्यारी सिमी ग्रेवाल आज भी सबको याद हैं.
इसके अतिरिक्त "तू-तू है वही, दिल ने जिसे अपना कहा", "मिलने की तुम कोशिश करना, वादा कभी न करना", "दोनों ने किया था प्यार, मगर मुझे याद रहा तू भूल गई", "वादा तेरा वादा","वादा करो नहीं छोडोगी, तुम मेरा साथ, जहां तुम हो वहां मैं भी हूं", "वादा रहा सनम, होंगे जुदा न हम" और ऐसे सैकड़ों गीतों ने श्रोताओं के ह्रदय को, विविध भावों और संवेदनाओं के महासागर में डुबकी लगाने को बाध्य कर दिया है, साथ ही वादे के सभी मूर्त रूपों से उन्हें परिचित कराने में भी इनके अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता.
लेकिन कई दशकों से अब तक,यह गीत जीवन-दर्शन का प्रतिबिम्ब बनकर उभरता रहा है-"देते हैं भगवान को धोखा, इनसां को क्या छोड़ेंगे/ अगर ये हिन्दू का है तो फिर, मंदिर किसने लूटा है /मुस्लिम का है काम अगर फिर, खुदा का घर क्यूं टूटा है/ जिस मज़हब में जायज़ है ये, वो मज़हब तो झूठा है /कस्मे-वादे, प्यार, वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या/कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या!"
खैर, भावुक न होइए!
सायोनारा सायोनारा, वादा निभाऊंगी सायोनारा, इठलाती और बलखाती....कल फिर आऊँगी, सायोनारा!
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