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Updated: 01 अगस्त, 2017 11:15 PM
रिम्मी कुमारी
रिम्मी कुमारी
  @sharma.rimmi
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अभी फेमिनिज्म और फेमिनिस्ट लोगों का 'peak hour' चल रहा है. मतलब ये कि असल जीवन में हो ना हो सोशल मीडिया पर लड़कियां पितृसत्ता की बेड़ियां तोड़ने के लिए बेकरार नजर आ रही हैं. सेक्स, #NaturalSelfie #Period #BadTouch से लेकर सिगरेट, शराब से लेकर भरपूर गालियां देकर लड़ाई लड़ी जा रही है.

अब समय बदल रहा है तो लोगों की जरुरतें और विरोध के तरीक भी बदल रहे हैं. महिलाएं दबी जुबान के बदले अब खुलकर अपनी आपत्ति और गुस्से का इजहार कर रही हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि फेमिनिज्म के नाम पर हर बात का विरोध किया जा रहा है. त्योहारों तक में पितृसत्ता की झलक खोज ली जाती है. फिर चाहे वो करवाचौथ हो, तीज या फिर राखी. पसंद-नापसंद एक जगह है लेकिन हर बात में फेमिनिज्म का तड़का थोड़ा उबाऊ और नौटंकी जैसी फील देने लगता है.

एक फेमिनिस्ट की नजर से राखी जैसे भाई-बहन के पवित्र त्योहार में कैसे विरोध का तड़का लगाया जाता है और उसके लिए क्या-क्या कारण बताए जाते हैं ये खुद एक फेमिनिस्ट की जुबानी जानिए-

राखी भाई-बहन के बीच के प्यार और स्नेह का त्योहार है. ये ही एक त्योहार है जिसे एक भाई और बहन के बीच के संबंध को मजबूत करने वाला माना जाता है. इस त्योहार में एक भाई आजीवन अपनी बहन की सुरक्षा करने की कसम खाता है. इस साल रक्षाबंधन 7 अगस्त को है. सुबह से ही बहनें उपवास रहेंगी, पूजा करेंगी और उसके बाद अपने भाई की कलाई पर रंग-बिरंगी राखी बांधेंगी. ये त्योहार पवित्र तो है लेकिन अब लड़कियों को ये त्योहार मनाना बंद कर देना चाहिए. कम-से-कम उस तरीके से नहीं जैसे आजतक इसे मनाया जाता रहा है. आखिरकार हम 21वीं सदी में रहे हैं.

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अब आखिर ऐसा क्यों करना चाहिए वो भी सुन लीजिए-

राखी पितृसत्ता का नतीजा है

महिलाओं को हमेशा ही पुरुष से नीचे ही माना गया है. और जहां तक बात भाईयों की है तो भी चीजें अलग नहीं होती हैं. इस बात कोई इंकार नहीं कर सकता कि भाईयों को बहनों के मुकाबले ज्यादा स्वतंत्रता मिलती है. फिर बात चाहे उनके घर में आने और घर से जाने की हो चाहे उनके कपड़े पहनने और रहने के ढंग की हो. हमारा समाज हमेशे से ही लड़कियों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता रहा है.

अपने बहन की 'रक्षा' करने वाली परंपरागत धारणा और कुछ नहीं पितृसत्ता का ही एक रूप है. है ना? अब क्योंकि एक आदमी को हीरो की तरह मजबूत और हृष्ट-पुष्ट होना चाहिए, जो गुंडों से लड़ सके अपने आस-पास की औरतों की रक्षा कर सके. और इस बात की ट्रेनिंग घर में बहन के साथ ही शुरु हो जाती है. हमारे यहां हर चीज संस्कार से जुड़ी होती है और लड़कियों के संस्कारी होने का मतलब उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं के कैद में रखना है. और राखी हमारे यहां के इसी संस्कारी वातावरण को बढ़ावा देती है कि महिलाओं को हमेशा ही पुरुषों के नीचे दबकर रहना चाहिए और उनकी सुरक्षा हमेशा पुरुष ही कर सकते हैं.  

ये त्योहार महिलाएं पुरुषों से कमजोर हैं इसी बात को बढ़ावा देती है

आखिर किसी औरत को भाई की जरुरत क्यों होगी, ताकि भाई हमेशा ही उसका बॉडीगार्ड बनकर रहे? हमारे समाज में हमेशा से ही महिलाओं को कमजोर माना जाता है. हमारा पितृसत्तात्मक समाज इस बात को हजम ही नहीं कर पाता है कि महिलाएं खुद अपनी देखभाल करने में सक्षम हैं. अपनी देखभाल कर पाने का सामर्थ्य निर्णय लेने की क्षमता से आती है और साथ ही कुछ भी कर पाने की शक्ति में होती है. लेकिन क्या हमारा समाज महिलाओं को इतनी आजादी देता है कि  वो अपने निर्णय खुद ले सकें? नहीं बिल्कुल नहीं. बल्कि उन्हें तो पैदा होते ही भाई- पिता या घर में मौजूद हर मर्द को महिलाओं का गार्जियन बना दिया जाता है.

महिलाओं को अपनी रक्षा के लिए किसी मर्द की जरुरत नहीं है

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क्या आपको पता है कि महिलाएं न सिर्फ खुद का ख्याल रख सकती हैं, बल्कि दूसरों का भी रख सकती हैं. अगर समाज में महिलाओं को मां के रूप में और लोगों की देखभाल करने वालों के रूप में देखता है तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अगर महिलाएं प्रसव के दर्द को सहन कर सकती हैं तो फिर अपने बच्चे की भलाई के लिए भी सब कुछ कर सकती हैं.

और अगर हम 21 वीं सदी की बात करते हैं, तो आप कैसे भूल सकते हैं कि हमारे पास महिला पुलिस अधिकारी, सेना कर्मियों और यहां तक ​​कि कमांडो भी हैं. तो क्या जो औरतें आज दूसरों की रक्षा कर रही हैं उन्हें खुद भी किसी की सुरक्षा की आवश्यकता है?

अगर ये त्योहार भाई-बहन के प्यार की निशानी है तो फिर भाई क्यों अपनी बहनों को राखी नहीं बांधते?

अगर अभी भी आप ये तर्क देते हैं कि राखी का त्योहार तो भाई-बहन के बीच प्यार का बंधन है तो कोई हमें बताएगा कि आखिर हमारे भाई अपनी बहनों को राखी क्यों नहीं बांधते? बांड तो दोनों तरफ से होना चाहिए ना? यहां तक ​​कि अगर यहां बात सुरक्षा की है तो, भाई और बहन दोनों ही एक दूसरे की रक्षा कर सकते हैं.

भाई भी अपनी बहनों की कलाई पर राखी बांध सकते हैं. दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं और समय आने पर एक-दूसरे के साथ भी खड़े रहते हैं. ताकत और बनावट से अलग ये त्योहार भाई-बहन के बीच भावनात्मक लगाव को बढ़ावा दे सकता है. यहां तक ​​कि जब गिफ्ट की बात आती है तब भी. क्योंकि भाइयों द्वारा बहनों को ढेर सारे तोहफे देने का सीधा सा अर्थ ये होता है कि महिलाएं आर्थिक रुप से पुरुषों के बराबर नहीं हैं.

तो ये देखा आपने एक 'सशक्त' 'उन्मुक्त विचारोंवाली' और फेमिनिस्ट महिला के नजर से त्योहार का अर्थ. लेकिन मेरा एक सवाल है वो ये कि आखिर हम त्योहार को त्योहार के रुप में क्यों नहीं देख सकते? क्या हर चीज में औरत और मर्द की दीवार खड़ी करना जरुरी है. हां ये सही है कि समय के साथ प्रथा और परंपराओं में बदलाव आना चाहिए लेकिन उसके लिए त्योहार को चुनने की जरुरत नहीं. बल्कि सोच में बदलाव लाइए तो त्योहारों का मतलब नहीं बल्कि उसको देखने का अपना तरीका ही बदल जाएगा.

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लेखक

रिम्मी कुमारी रिम्मी कुमारी @sharma.rimmi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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