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Updated: 15 अगस्त, 2019 12:15 PM
आईचौक
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'यूं बैठी रही तो बीमार पड़ जाओगी.' 'यहां से जाने की वजह भी तो नहीं है? 'बरसात बस आने ही वाली है.' 'ये बूंदें देखो, धूप की किरणों से छनकर आ रहीं हैं. क्या गज़ब कॉम्बिनेशन है धूप, बारिश और हवा का. है ना? देखो वहां धनक खिल आया. जिज्जी चहक उठी थी. हां...बहुत अद्भुत नज़ारा है, किन्तु वहां छत पर जो कबूतर बैठे हैं न उनके विचारों से मैं कतई सहमत नहीं हूं. संबल ने छज्जे की ओर इशारा करते हुए कहा था. मुझे तो वे बड़े क्यूट लग रहे हैं, एक कतार से आंखें मूंदें बैठे हैं मानों दुनिया की कोई फ़िक्र ही ना हो उन्हें. जिज्जी मुस्कुराई थी. बस यही एक बात मुझे आपकी नागवार गुज़रती है जिज्जी. क्यों भाई? आंखें मूंदे वे अपनी ही दुनिया में तल्लीन हैं मानो साधनारत हों. हरगिज़ नहीं बल्कि वे परिस्थितयों से भागे हुए भगोड़े लग रहे हैं वही एस्केपिस्ट काइंड ऑफ़. तुम हमेशा लीक से अलग ही सोचते हो, अभी छोटे हो न, जब बड़े...'

रक्षाबंधन, भाई, बहन, रिश्ते, प्यार, Rakshabandhan चाहे कितनी भी बाधाएं क्यों न आ जाएं भाई बहन का रिश्ता हमेशा ही खास रहता है

रहने दो जिज्जी मुझे आपके जैसे बड़े नहीं होना कभी, इस बड़प्पन ने आपको महान बनाया है किन्तु क्या मिला आपको? एकाकीपन और घर के नाम पर ये चार ईंट का मकान? संबल ने उन्हें बीच में ही टोकते हुए अपनी बात कही थी, 'सुकून भी तो मिला, त्याग का नाम ही जीवन है.' 'रहने दीजिये जीवन किसे कहते हैं आपको पता भी है? जीवन एक रंग है, रूप है, शाश्वत सत्य है, रोना है, हंसना है या फिर ये जीवन अगले जन्म की ओर रुख करने वाली कर्मों की कोई सीढ़ी है? 'जीवन सिर्फ दुःख और सुख का संगम है' जिज्जी एक लम्बी सांस भरकर ज़मीन को अपने बाएं पैर के अंगूठे से कुरेदने लगती है.'

अगर जो आप अपने सवाल से आश्वस्त हैं तो फिर ये ज़मीन को अंगूठे से कुरेदने की क्रिया न होती? जिज्जी ये अनजाने में की गयी क्रिया है किन्तु मस्तिष्क ने अपनी बैचेनी का संदेश शरीर द्वारा यूं साझा किया है. तू बात को कितनी गहराई से बूझ लेता है, क्यों पढ़ता रहता है वो किताबें?  कौनसी? अरे वो? पास ही कि तिपाही पर कुछ मैगज़ीन रखी थीं जिसपर सफ़ेद दाढ़ी वाले और मैचिंग टोपी व रोब पहने हुए एक सन्यासी की भव्य तस्वीर थी.

'इनकी आंखें कितनी बड़ी-बड़ी हैं. कितनी भाव प्रधान व दृष्टि एकदम चुम्बकीय और चेहरे पर कैसा अद्भुत तेज व्यापी है. मस्तक पर तो देखो कैसी अभूतपूर्व चमक कि आंखें ही चुंधिया जाएं. सन्यासी ऐसे ही भव्य हो जाते हैं, जीवन के गूढ़ रहस्यों को बूझते-बूझते उनके व्यक्तित्व में ज्ञान की पावन धारा प्रवाहित होने लगती है. ये जिसे आप सम्मोहन समझ रही हैं न? दरअसल संसार से मोक्ष व मुक्ति की परम शांति है. जब किसी व्यक्ति के चारों और ऐसे आभा दमक रही हो तो समझ जाना कि उस व्यक्ति ने जीवन को सही अर्थों में पहचान लिया है.'

'अच्छा ..?' जिज्जी को अवाक करता हुआ संबल अपनी बात आगे बढ़ाता है. हां,हर व्यक्ति अपने साथ-साथ एक ऊर्जा लिए चलता है जो कि उसके जीवन में चल रही सकारात्मक या नकारात्मक गतिविधियों से उत्पन्न होती है, जिसे हम उस व्यक्ति का ऑरा या आभा मंडल कहते हैं. हां... तभी बाज़दफ़ा हम किसी व्यक्ति से मिलकर प्रसन्नता से भर उठते हैं तो इसके उलट कभी किसी से बात करना भी दूभर जान पड़ता है. यक़ीनन जिज्जी यही तो है कि मैं आपके पास दौड़ा चला आता हूं अपने सुख-दुःख लेकर,आपके आस-पास भी यही तो संतुष्टि बसती है.'

चल हट... बहन को खुश कर रहा है, ये बातें जो अभी-अभी तूने बताई ये तो किताबी बातें ठहरी. चल तू बता कि तेरे लिए इस जीवन के मायने क्या है? मेरे लिए तो ये जीवन मुहितो में भीगे मिंट की मानिंद है, जिसका स्वाद अनबूझा है. कभी तो इस मुहितो की तुर्शी देर तक जुबान पर जमी रहती है तो कभी बूझ नहीं पाता. मोजितो?  नहीं मेरी जिज्जी उसे मुहितो कहते हैं, ये एक स्पेनिश शब्द है जिसे लिखा मोजितो जाता है किन्तु पढ़ा उसे मोहितो ही जाता है. हे प्रभु ! तभी तो कहती हूं घर का खाना खाया करो तुम लोग, ऐसे अटरम-शटरम भोजन और ऐसे ही ऊटपटांग इनके नाम.

घर के बने खाने और आपके हाथों से बने सुस्वादु भोजन के लिए ही तो आया हूं आपके पास, कल वही थाली परोसना मेरी फेवरेट - आमरस, पूरी, दाल की कचौरी, घी से लबालब मीठे चावल और केरी व लसोड़े का खटमिट्ठा अचार' अचार के नाम के साथ ही संबल ने मुंह से चटखारा भरने की ध्वनि उच्चारित की थी और दोनों भाई-बहन ठठाकर हंस पड़े थे.

रक्षा जिज्जी अपने परिवार की तीसरी संतान है, दो बड़ी बहनों के बाद रक्षा और फिर सबसे छोटा भाई संबल. कभी-कभी तीनों बहनें हंसती थी कि संबल की उम्मीद पर वे तीनों इस धरती पर आ गिरीं वरना उनका पत्ता साफ़ था. मां की डपट के बाद पापा का घूरकर देखना तीनों बहनों को चुप करा जाता था, शायद इस हकीकत से वे भी वाकिफ थे बस उसे स्वीकारना नहीं चाहते थे हालांकि माता-पिता ने उन्हें पुत्रों की भांति ही पाला-पोसा था और उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी नहीं रखी थी.

चारों बहन-भाई अभी पढ़ ही रहे थे कि अचानक पापा चल बसे थे. परिवार पर अचानक से आन पड़ी इस विपत्ति से जूझने के लिए मां  के कमज़ोर कंधों में जैसे अचानक से जान आ गयी थी किन्तु उनकी गृहस्थी व सेहत दोनों ही गड़बड़ाने लगी थी. रिश्तेदारों से मदद लेना मां के स्वाभिमान को गवारा न था. उनका कहना था इंसान को हमेशा अपनी मेहनत पर भरोसा करना आना चाहिए, किसी के दिए रुपए चंद दिनों की रोटी का जुगाड़ कर सकते हैं किन्तु आत्मा को तृप्त तो सिर्फ अपनी मेहनत की रोटी ही करती है.

पापा के दफ़्तर में रक्षा ने नौकरी के लिए एक एग्जाम पास किया था और उन्हीं के ऑफिस में ज्वाइन कर लिया था. संबल की उम्र नौकरी लायक नहीं थी और दोनों बड़ी बहनों की नौकरी लगवाने में दिक्कत ये आती कि उनके ब्याह के बाद परिवार का भरण-पोषण कैसे होता सो बहुत सोच-विचारकर मां ने रक्षा को ये ज़िम्मेदारी सौंपी थी. रक्षा ने भी इस ज़िम्मेदारी को फ़र्ज़ की तरह निभाने की पूरी कोशिश की थी उसे बस एक ही बात का गम था कि उसे अपनी पढ़ाई बीच ही में छोडनी पड़ी थी.

दोनों बड़ी बहनों की नौकरी लगते ही विवाह प्रस्ताव आने लगे थे, मां ने भी झटपट उनके रिश्ते कर दिए थे. दोनों बहनों के विवाह के पश्चात मां ने कहा था- अब मैं कुछ दिन चैन की नींद सोना चाहती हूं. रक्षा को कहां आभास था कि ऐसी चिरनिद्रा में समां जायेगी कि लाख उठाने पर भी वे नहीं जागेगी. रक्षा टूट चुकी थी, पिता का साया न था किन्तु मां की ममता के साए तले वह सुरक्षित महसूस करती थी. परिस्थितियां व्यक्ति को मजबूत इरादा बना देती हैं, उसने संबल की ज़िम्मेदारी और अपनी बहनों के पीछे छूटे मायके की तमाम अपेक्षाओं की पूर्ती के लिया अपना जीवन लगा दिया था. बरसों तक रक्षा बिना किसी शिकायत के दुनियादारी व रीति-रिवाजों को निभाती आई थी. उसने अपने परिवार पर अपनी ममता के आंचल को ढंक लिया था.

संबल पढाई करके अपने परिवार सहित विदेश में जा बसा था, उसने जिज्जी को कई बार समझाया कि वह भी अपने विवाह के बारे में सोचे. हर बार वे संबल को समझाती कि उसका जीवन समाज को समर्पित है फिर उसे किसी एक बंधन की क्या आवश्यकता? रक्षा अपनी दो आंखों के सपनों के द्वारा कई हज़ार आंखों के सपनों को पूरा करना चाहती थी. उसने अपनी संपत्ति शहर की बालिका विद्यालय को दान दे दिया था. उसके अपने पास एक कमरे के अलावा अगर कुछ था तो बहुत सारा समय जो वह स्कूल के बच्चों के साथ बिताती थी.

संबल के अलावा घर के सभी सदस्यों ने उसके निर्णय का विरोध किया था. किसी ने उसके वृद्धावस्था में आने वाली परेशानियों का हवाला दिया था तो किसी ने उसकी परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियों का किन्तु रक्षा अडिग थी. उसने निर्णय अटल था.

परिवार के सभी सदस्य अपनी-अपनी जिंदगी में रच-बस थे, गाहे-बगाहे परिवार का कोई सदस्य उससे मिलने आ जाता था तो कभी रक्षा ही उनसे मिल आती थी बस इसी आने-जाने को सभी उसके प्रति अपने फ़र्ज़ की इतिश्री मान बैठे थे.  रक्षा को किसी बात का दुःख नहीं था, उसकी प्रसन्नता व आत्मसंतुष्टि पूरे समाज के प्रति जुडी थी, वह स्कूल में पढने वाली सभी बच्चियों को अपना परिवार मानती थी.  स्कूल में सभी उसकी इज्ज़त करते थे. छोटी-छोटी बालिकाओं के साथ वह स्नेह से आकंठ डूबी रहती थी.

रक्षा जानती थी कि ताउम्र पक्षी एक ही घोंसले में नहीं बसते फिर भी वर्ष में एक दिन ऐसा आता था जब रक्षा की आंखें हवा की सरसराहट पर भी दरवाज़े से जा लगती थी. इंतज़ार में अपनी सजल हो उठती पलकों की नमी को अपने आंचल के सुपुर्द करती रक्षा कई-कई बार भावुक हो उठती थी.

संबल शुरुआत में हर रक्षाबंधन पर आया करता था फिर धीरे-धीरे अपने परिवार की बढ़ती ज़िम्मेदारियों के कारण उसका आना कम होता गया. हां मगर रक्षा बंधन के दिन वह जिज्जी को फ़ोन करना नहीं भूलता था. हर रक्षाबंधन पर भारत आने के वचन को न निभा पाने पर झिझकते संबल को जिज्जी अपने आशीर्वाद से ढांप देती थी.  उसके अपने परिवार के प्रति कर्तव्य का पाठ पढ़ाकर जिज्जी फ़ोन तो रख देती थी किन्तु अंतर में हर बार कुछ रीतता हुआ महसूस होता था फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपने मन को ढाढ़स बंधा लिया था. अब वे स्कूल के ही कुछ बच्चों को घर पर आमंत्रित कर लेती थीं. बच्चों के बीच वह संबल की पसंद का भोजन परोसती तो मन सुकून से भर उठता था.

इस मरतबा संबल ने रक्षाबंधन के दो दिन पूर्व आकर सचमुच उसे चौंका दिया था. भाई के साथ दो दिन हंसते-बतियाते बीत गए थे और अगले दिन रक्षाबन्धन का पर्व था. संबल शहर से कुछ खरीददारी करके लौटा ही था और उसने जिज्जी को हमेशा की तरह अपने में तल्लीन बगीचे में बैठा पाया था.  हल्की बूंदाबांदी के बीच उभरते इंद्रधनुष के रंगों को निहार ही रही थी कि संबल चाय के दो कप लिए वहीं चला आया था और उस वक़्त उनसे तर्क में डूबा था.

रक्षा जानती थी संबल ये सारे तर्कों द्वारा उसे बचपन की याद दिलाना चाहता था. संबल हर बार उससे तमाम बहसों में जीतता आया था और उस दिन भी मोजितो व मोइतों के उच्चारण के बीच उसने जिज्जी के समक्ष जीवन की सारी परिभाषाएं रख दी थीं. जिज्जी जानती थी कि संबल समझता है कि जीवन सुख-दुःख का संगम है और संबल भी भलीभांति जानता है कि जिज्जी उससे जानबूझकर हार जाती हैं. उस वक़्त भी वे मोहितो को मोजितो सिर्फ उसे चिढाने के लिए बोल रही थी.

अगले दिन सुबह सूरज की पहली किरणों के साथ जिज्जी की रसोई महकने लगी थी. उस दिन जिज्जी ने संबल की पसंद के सभी पकवान बनाए थे और जिज्जी ने उसकी कलाई पर रक्षाबंधन का प्रतीक के रूप में मौली का धागा बांधा था. इस बरस रक्षाबंधन व स्वतंत्रता दिवस दोनों पर्व एक ही दिन आए थे. दो पर्वों के पवित्र संगम से आसमान धनक-सा खिल उठा था. संबल ने रक्षाबंधन के दिन जिज्जी को वचन दिया था कि वह उनके इस परिवार अर्थात स्कूल के लिए प्रति माह एक निश्चित राशि अवश्य भेजा करेगा और साथ ही उसने एक और निर्णय लिया था कि वह हर छुट्टियों में अपनी दोनों बेटियों को भी जिज्जी के विद्यालय में कुछ समय के लिए भेजेगा. संबल ने रक्षा से भी एक वचन लिया था कि वह अपनी अधुरी पढाई पूरी करेगी.

'इस उम्र में?' ' उम्र महज़ दिमागी कसरत है जिज्जी, आपने छोटी उम्र से जिस आत्मविश्वास व बुलंद इरादों से अपने परिवार को जिस जिम्मेदारी से संभाला है कि जीवन की कोई परीक्षा आपके लिए असंभव नहीं हो सकती.' रक्षा की आंखों में एक अधूरे सपने को पूरा करने का हौसला जाग उठा था, उसने अपने भाई के कंधे पर सिर टिका दिया था. मैं वैसे ही आपके साथ हर इम्तेहान में साथ चला करूंगा जैसे बचपन में आप मेरे साथ चलती थीं.' संबल ने अपने नाम को चरितार्थ करता हुआ विश्वास का एक अनूठा संबल जिज्जी को प्रदान किया था.

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