2000 के नोटों की वापसी का फरमान: हकीकत कुछ और है!
रिज़र्व बैंक ने क्लीन नोट पॉलिसी की बिना पर जो लॉजिक दिया है, हास्यास्पद है. आरबीआई के मुताबिक़ दो हजार रुपए के नब्बे फीसदी नोट मार्च 2017 से पहले ही जारी हो गए थे और चूंकि ये नोट चार पांच साल तक अस्तित्व में रहने की अपनी सीमा पार कर चुके हैं या पार करने वाले है, इन्हें हटाया जाना बनता है.
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रिज़र्व बैंक ने हवाला दिया है क्लीन नोट पॉलिसी का; जबकि वे बेचारे तो नितांत कोरे है, सहेजकर जो रख रखे हैं "जिसने" भी रखे हैं. सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ तुरंत ही, "अभी ना जाओ छोड़कर दिल अभी भरा नहीं; 2016 में तो आये हो दिलों में भी छाये हो, कभी तो कुछ कहा नहीं..."
सिचुएशन को क्या खूब हिंदी समाचार पत्र 'पत्रिका' में डिस्क्राइब किया गया है. शीर्षक हम दे देते हैं, '2000 के नोट की मार्मिक अपील'. भारत में नोटबंदी के बाद 2016 में मैं पैदा हुआ. लोगों के हाथ में पहुंचा. लोग खुश हुए. लेकिन धीरे धीरे मेरा चलन कम होने लगा. एटीएम ने तो मुझे पहले से ही लेना बंद कर दिया. लोगों ने मुझे बैंक तक पहुंचाया तो रिज़र्व बैंक ने वापस नहीं आने दिया. आरबीआई ने तो 2019 में मेरे "अवतार" जारी करना बंद कर दिया. अब मेरा जीवन सिर्फ 134 दिन बचा है. मुझे 30 सितम्बर तक बैंक पहुंचा दीजिये. ताकि आपको कष्ट ना हो, नुकसान ना हो. मेरे बदले बैंक से छोटे नोट ले लीजिए.
देखा जाए तो आज की तारीख में यूं भी आम लोगों में 2000 के नोटों का चलन पहले से काफी कम है. क्योंकि पिछले चार सालों से न तो एटीएम दे रहा था और न ही बैंक. सो आम आदमी तो प्रभावित होने से रहा. हां, किसी ने दबाकर यदि दस बीस या पचास नोट भी रख रखें हैं तो पर्याप्त समय है ही बदलवा लेने का; चाहे तो दो चार बार में बदलवा ले या पूरे एक साथ ही निज के खाते में डाल दे.
रिज़र्व बैंक ने क्लीन नोट पॉलिसी की बिना पर जो लॉजिक दिया है, हास्यास्पद है. आरबीआई के मुताबिक़ दो हजार रुपए के नब्बे फीसदी नोट मार्च 2017 से पहले ही जारी हो गए थे और चूंकि ये नोट चार पांच साल तक अस्तित्व में रहने की अपनी सीमा पार कर चुके हैं या पार करने वाले है, इन्हें हटाया जाना बनता है. सवाल है क्या यही लॉजिक आरबीआई 100, 200 और 500 के नोटों पर भी अप्लाई करती है? जबकि इन मूल्यवर्ग के नोटों का तो कई गुना ज्यादा आदान प्रदान होता है.
दरअसल अघोषित वापसी तो 2019 से ही चालू थी; जो नोट बैंक पहुंचे, ना तो उन्हें वापस दिया गया और ना ही उनके बदले नए छापे गए. एक और लॉजिक है आरबीआई का उद्देश्य वाला कि 2016 में दो हजार रुपये के नोट इसलिए जारी किये गए थे चूंकि उस समय चलन से हटाई गई 500 और 1000 रुपये की करेंसी से बाजार और इकोनॉमी पर पड़ने वाले असर को कम किया जा सके. ये लॉजिक भी समूचा तो गले नहीं उतर रहा है.
दरअसल इस निर्णय की असल वजहें राजनीतिक होते हुए भी वाजिब है. सर्वविदित है बड़े मूल्य के नोटों का इस्तेमाल धन को अवैध तरीके से जमा करने के लिए किया जाता है. सो काले धन का मुकाबला करने के लिए उच्च मूल्य के नोटों को चलन से हटाना उचित है. और ऐसा कई देशों द्वारा किया जाता रहा है. परन्तु सवाल गंभीर है क्या वास्तव में ब्लैक मनी निशाना बनेगा इस कदम से ? यही राजनीति है. पिछले दिनों ही एक राज्य के मंत्री के पास से पचास करोड़ की बरामदगी में पिंक 2000 ही अधिकांश थे.
हालांकि केंद्र की मौजूदा सरकार के इस कदम का विरोध बनता नहीं है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करना विपक्ष का शगल बन चुका है, सो ठोस कुछ कह नहीं सकते तो कहा जा रहा है कि कम से कम सरकार को देश और जनता को विश्वास में लेना चाहिए था और बताना चाहिए था क़ि 2000 का नोट बंद करने के पीछे उनकी मंशा क्या है, किन कारणों से बंद कर रहे हैं?
वैसे देखा जाए तो हेडलाइन जरूर बन रही हैं कि 2000 के नोट बंद कर बीजेपी सरकार ने साहसिक कदम उठाया है. लेकिन हकीकत कुछ और है. आम चुनाव अगले साल है, चार चार राज्यों में विधानसभा चुनाव इसी साल है. सो जनता को एक बार फिर भ्रमित कर दो. आरबीआई के 31 मार्च 2022 के आंकड़ों के हिसाब से तब तक देश में 2000 के 214 करोड़ नोट यानी 4,28,394 करोड़ रुपए चलन में थे. लेकिन वे चल नहीं रहे थे बल्कि जमाखोरों के पास दबे थे.
अब सरकार ने उन्हें लंबा समय देकर एक तरह से सेफ एस्केप तो दे ही दिया है. खरी खरी कहें तो हर बार डेमोक्रेसी ही इन जमाखोरों को बचा ले जाती है. वरना तो आज की तारीख में जिनके पास भी 2000 के नोट हैं , उनका ब्लैक मनी ही है. किसलिए समय दिया गया है? ठीक बात है कि आटे के साथ 'घुन' भी पिसता है, लेकिन इन 'घुनों' ने दबा ही क्यों रखा है ? जबकि चार साल से नोट बाजार से गायब ही है. गाहेबजाहे कहा भी जा रहा था कि सरकार की मंशा 2000 के नोटों को बंद करने की है. इन्हें कोलैटरल डैमेज समझ लीजिये और सिर्फ उन्हें भर राहत भी दी जा सकती थी. लेकिन आपने तो सारे जमाखोरों को खूब राहत दे दी इन चंद "घुनों" को राहत देने के चक्कर में.
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