राम मंदिर केस: 'जनता की अदालत' ने जब पलटे सुप्रीम कोर्ट के फैसले
राम मंदिर विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने तो जल्दी सुनवाई की दलील को खारिज कर दिया, लेकिन जनता की अदालत से इस केस का फैसला आने लगा. इस केस में हो रही देरी पर लोगों ने नाराजगी जताई.
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राम मंदिर के मामले पर काफी समय से राजनीति हो रही है. आज सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई शुरू होनी थी, लेकिन महज 2 मिनट की सुनवाई में ही मुख्य न्यायाधीश ने खुद इस मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है. लोग निगाहें टिकाए बैठे थे कि अब जल्द ही राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला सुनाएगा, लेकिन उन्हें सिर्फ निराशा हाथ लगी. सुप्रीम कोर्ट ने तो सुनवाई की तारीख पर फैसले को टाल दिया है, लेकिन जनता की अदालत में भी राम मंदिर की सुनवाई काफी समय से चल रही है. राम मंदिर के मामले को सुप्रीम कोर्ट एक संपत्ति विवाद की तरह सुन रहा है, लेकिन लोगों के लिए यह उनकी आस्था और भावना से जुड़ा हुआ विषय है. सुप्रीम कोर्ट को इस मामले को टालते समय यह भी सोचना चाहिए था कि अगर उससे पहले जनता की अदालत ने कोई फैसला सुना दिया तो कैसे हालात पैदा हो सकते हैं. खैर, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भी जनता की अदालत में सुनवाई होती है. और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट नहीं, बल्कि जनता की अदालत जीतती है. कुछ उदाहरण इस तरह हैं:
मुख्य न्यायाधीश ने राम मंदिर के मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है.
सबरीमाला को ही ले लीजिए
28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर को लेकर फैसला सुनाया कि सभी महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं. इससे पहले सिर्फ 10 साल से छोटी बच्चियां और 50 साल से अधिक की महिलाओं को ही मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत थी. दरअसल, 10-50 साल के बीच ही महिलाओं को मासिक धर्म होता है, इसलिए इस दौरान उन्हें मंदिर में घुसने की इजाजत नहीं होती है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में भले ही हस्तक्षेप कर के सभी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत दे दी, लेकिन ये भी सच है कि उस फैसले का विरोध करने वालों में अधिकतर महिलाएं ही थीं. सड़कों पर इस फैसले के विरोध में हजारों महिलाएं उतर आई थीं. और इस सच को कोई नकार नहीं सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद एक भी महिला सबरीमाला मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकी है. भले ही दो हजार लोगों को गिरफ्तार करके संतोष कर लिया जाए, लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सबरीमला में लागू नहीं कराया जा सका है.
जगन्नाथ पुरी का मामला भी मत भूलिएगा
ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर का मामला भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था. मामला था मंदिर में लाइन लगाकर घुसने को लेकर. इतनी सी बात को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना पड़ा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला किसी ने माना नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने लाइन लगाने के आदेश दिए और अगले ही दिन मंदिर में घुसी भीड़ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पैरों तले रौंद दिया. कई सारे लोगों को हिंसा फैलाने के लिए गिरफ्तार भी किया गया था. लोगों ने साफ कह दिया कि वह लाइन में लगकर प्रवेश नहीं करेंगे. इस फैसले से सबसे अधिक दिक्कत मंदिर के पंडों को थी, जो भीड़ का फायदा उठाकर लोगों पर दबाव डालकर तरह-तरह के पूजा-पाठ के बदले पैसे ऐंठते थे. लाइन लगने पर उगाही संभव नहीं हो पाती, इसलिए वह लाइन का विरोध कर रहे थे. सुप्रीम कोर्ट ने भले ही अपना फैसला सुना दिया हो, लेकिन ये भी मानना होगा कि जगन्नाथ पुरी में अभी लाइन लग रही है या नहीं, इसका कोई अता-पता नहीं है.
लाइन से मंदिर में घुसने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा.
जल्लीकट्टू पर भी ऐसा ही हुआ था
तमिलनाडु में पिछले 400 सालों से जल्लीकट्टू होता आ रहा है, जिसमें लोग सीधे 300-400 किलो के सांडों से भिड़ते हैं. ये सुनने में जितना खतरनाक लग रहा है, उससे कहीं अधिक खतरनाक है. इस खेल में हर साल कई लोग मर जाते हैं और बहुत से घायल भी हो जाते हैं, लेकिन इसे खेलते जरूर हैं. 2011 में यूपीए की सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद एनडीए ने 8 जनवरी 2016 को इसे फिर से हरी झंडी दे दी. इस बीच 2014 में सुप्रीम कोर्ट भी इस पर बैन लगा चुकी थी. जब बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची तो वहां भी राज्य सरकार की याचिका को खारिज कर दिया गया, जिसमें कोर्ट से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा गया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में एक प्रस्ताव तक पारित कर दिया गया, ताकि जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध को हटाया जा सके. जल्लीकट्टू को लेकर प्रदर्शन भी खूब हुआ, हिंसा हुई. खुद अमित शाह भी बोल चुके हैं कि जल्लीकट्टू जैसे खेलों पर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से रोक लगाने के फैसले धरातल पर लागू नहीं किए जा सकते.
शनि शिंगणापुर में कोर्ट के फैसले पर हुआ अमल
अगर बात करें शनि शिंगणापुर मंदिर की तो वहां पर कोर्ट के फैसले पर अमल हुआ दिखाई देता है. नवंबर 2015 को एक महिला जबरदस्ती शनि के चबूतरे पर चढ़ गई थी, जिसके बाद विवाद शुरू हो गया था. दरअसल, महिलाओं को चबूतरे पर चढ़ने की इजाजत नहीं थी. मामला कोर्ट पहुंचा तो 30 मार्च 2016 को शनि शिंगणापुर मंदिर की 400 साल पुरानी परंपरा टूट गई. बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से ये सुनिश्चित करने के लिए कहा कि किसी भी महिला को न रोका जाए. इसकी लड़ाई लड़ी थी भूमाता ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई ने. आखिरकार मंदिर ट्रस्ट ने पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी शनि शिंगणापुर मंदिर में चबूतरे पर जाने की अनुमति मिल गई. लेकिन, इस लोगों में इस फैसले को लेकर अब भी कायम है.
त्रयंबकेश्वर मंदिर में महिलाओं को घुसने की अनुमति
इसका श्रेय भी भूमाता ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई को जाता है. उन्होंने नासिक के त्रयंबकेश्वर मंदिर में महिलाओं को घुसने की अनुमति दिलाई. महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने की लड़ाई में पहले तो मंदिर ट्रस्ट ने मंदिर के गर्भगृह में पुरुषों के प्रवेश पर भी रोक लगा दी. ट्रस्ट का कहना था कि ये सालों पुरानी परंपरा है. वैज्ञानिक कारण बताया जाता है कि मंदिर गर्भगृह में कुछ खास तरह की तरंगे निकले हैं, जो महिलाओं को नुकसान पहुंचा सकती हैं. हालांकि, ये लड़ाई आगे बढ़ी और अप्रैल 2016 में त्रयंबकेश्वर देवस्थान ट्रस्ट ने महिलाओं को भी भगवान शिव के प्रख्यात गर्भगृह में जाने की इजाजत दे दी, लेकिन कुछ शर्तों के साथ. शर्त ये रही कि पूजा अर्चना के लिए महिलाओं को सूती या सिल्क के कपड़े पहनकर ही जाना होगा. हालांकि, इसे लेकर भी बाद में विवाद हुआ.
इन सभी मामलों पर नजर डालने से एक बात तो साफ होती है कि कानून की अदालत जो भी फैसला दे, जनता की अदालत में एक समानांतर केस लड़ा जाता है. आस्था से जुड़े मामलों में जहां कुछ ज्यादा संवेदना होती है. जिस तरह इन दिनों राम मंदिर पर तरह-तरह के बयान आ रहे हैं, उसी तरह पहले भी होता आया है. खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी मान चुके हैं कि जल्लीकट्टू, मस्जिदों पर लाउड स्पीकर और सबरीमाला जैसे मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति जैसे फैसले धरातल पर लागू नहीं हो सकते. यानी वह मानते हैं कि देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले अक्षरश: पालन करने में कठिनाई होती है. यानी सबसे ऊपर है जनता की अदालत और उसमें जो फैसला होता है वह सुप्रीम कोर्ट माने या ना माने, पर लागू उसे ही किया जाता है.
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