'कश्मीरियत' एक धुंध है, जो बस देश को तबाह करना चाहती है...
'कश्मीरियत' और आजादी के नाम पर जैसा तांडव कश्मीर में आम कश्मीरियों द्वारा किया जा रहा है यदि उसपर नकेल अभी नहीं कसी गई तो फिर आने वाले वक्त में हमारे पास बचाने को कुछ नहीं होगा.
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पुलवामा हमले ने भारत और भारतीयों की स्थिति को काफी हद तक स्पष्ट कर दिया है. 'कश्मीरियत' एक धुंध है. ऐसी धुंध जो कश्मीर की बात करते वक्त हमारे नेताओं और श्रेष्ठी वर्ग की आंखों के सामने छा जाती है. परंतु शेष भारत की आम जनता अब इस संकीर्ण 'स्थानीय अस्मिता' (regional identity) के नाम पर पल रही अलगाववाद की विध्वंसक लपटों को देख और समझ रही है. ऐसी इसलिए क्योंकि उसी का घर इन लपटों में जलकर भस्म हो रहा है.
कश्मीर की समस्या को सिर्फ 1947 के बाद के लेंस से देखने वालों को या फिर भारत के अन्य हिस्सों में चल रहे अलगाववाद से अलग करके देखने वालों में संपूर्ण परिदृश्य की अनदेखी करने का दोष है. भारत के जिन भी हिस्सों में अलगाववाद पनप रहा है वहां से भारतीयता को, भारतीय चिह्नों को हटाने का कार्य पहले किया गया है और इस काम में मजहब, नस्ल और भाषा को एक हथियार के तौर पर प्रयोग में लाया गया है. जो कि एक स्थापित तथ्य है परंतु कश्मीर के संबंध में इस्लाम के नाम पर फैलाए जा रहे आतंकवाद को इस्लामिक आतंकवाद कहने में 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' आड़े आ जाती है.
यह एक वाजिब प्रश्न है कि राजनीतिक दल जब कश्मीर समस्या के समाधान की बात करते हैं तो 'कश्मीरियत' पर क्यों अटक जाते हैं? क्या 'भारतीयता' के नाम पर आह्वान करने का साहस उनमें नहीं है? या उन्हें कश्मीर में रहने वालों की नीयत पर विश्वास नहीं कि वह भारत के नाम पर इकट्ठा हो सकेंगे? और यदि किसी के लिए भारतीयता त्याज्य है तो भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के लिए आग्रह कैसा? यह वह सवाल हैं जिनका जवाब तमाम कॉलमिस्ट और नेता ढूंढ़े या नहीं परंतु शेष भारत की जनता ढूंढ़ रही है.
आज कुछ छिटपुट परंतु निंदनीय घटनाओं के आधार पर समस्त शेष भारत को अपराधी की भांति खड़ा कर दिया गया है. यह हमारे नैतिक बल और मूल्यों का परिचायक हो सकता है. परंतु यह इस बात को भी स्पष्ट करता है कि हम असहज कर देने वाले प्रश्नों से पलायन कर रहे हैं परंतु आम जनता अपने अनगढ़ या कम नैतिक तौर तरीकों से ही यह प्रश्न पूछ रही है.
बेहतर है कि कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान निकाल लिया जाए वरना हम ऐसे ही अपने जवानों को खोते रहेंगे
कश्मीरी छात्रों के हॉस्टलों के बाहर लग रहे 'भारत माता की जय' के नारों के नीचे आपको यह सवाल सुनाई दे जाएगा कि जिस उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में कश्मीर के नौनिहालों के लिए शिक्षा और बेहतरी के रास्ते हमेशा से खुले रहे हैं. उसी कश्मीर में इन राज्यों के बेटों को पत्थर और गोलियां क्यों खानी पड़ती हैं? क्या स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियों के हाथ में पत्थर सिर्फ 500 रुपयों के लिए ही है? क्या 17 और 18 साल के लड़कों के हाथों में एके 47 सिर्फ मिलिटेंसी और डेयरडेविल वाले चार्म की वजह से है? पूरे भारत में गूंजता How's the Josh आखिर कश्मीर पहुंचते ही How's the Jaish में कैसे बदल जाता है?
क्यों जीडीपी का इतना बड़ा हिस्सा कश्मीर पर खर्च हो जाने के बावजूद भारत पराया और पड़ोसी मुल्क अपना हो जाता है? महेंद्र सिंह धोनी की मौजूदगी में जानबूझकर, प्रतीकात्मक रूप से ही सही 'बूम बूम अफरीदी' के.नारे क्यों लगते हैं? शेष भारत के प्रतीक और आदर्श कशमीर पर लागू क्यों नहीं होते?
यह 70 साल की थकी और ज़ख्मी जनता के प्रश्न हैं, जिनके जवाब कश्मीरी छात्रों के साथ हुए दुर्व्यवहार से दुखी लोगों ने सोचने की जहमत नहीं उठाई क्योंकि उसमें दिमागी कसरत हो जाती. ऐसा प्रत्येक व्यवहार निंदनीय है और देश को बांटने वाला है इसमें संदेह नहीं परंतु क्या यह सोच पाना कि जिस प्रकार कश्मीरी छात्रों से मारपीट या दुर्व्यवहार, कश्मीर के भीतर शेष भारत की बुरी छवि बनाता है ठीक उसी प्रकार कश्मीर से आनेवाला हुतात्माओं का प्रत्येक शव शेष भारत में कश्मीर की भी भयावह छवि बनाता है, इतना कठिन है?
हमें ये भी समझना होगा कि आखिर कश्मीरी किस स्वतंत्रता की बातें कर रहे हैं
आज अत्यंत दुखी इन लोगों ने क्या कश्मीर के लोगों का शहीद जवानों के प्रति ऐसा ही भाव इतने वृहद स्तर पर देखा है और यदि नहीं देखा तो यह किस मानसिकता का परिचायक है? सोशल मीडिया पर शहीदों से संबंधित पोस्ट्स पर होने वाला हर 'हाहा' रिएक्ट क्या हर शहीद की मां के आंसुओं पर नहीं था?
यदि हम इतने दरियादिल हो सकते हैं कि सकते हैं कि 70 सालों तक चोट पर चोट सहने के उपरांत भी सबको गले लगाने की बात कर सकते हैं, पत्थरबाजों को रिहा कर सकते हैं तो क्या एक विवश, खीझी हुई जनता के दृष्टिकोण को समझने का एक संवेदनशील प्रयास नहीं कर सकते?
जनता का यह जायज या नाजायज गुस्सा, सरकार, तमाम दलों के नेताओं और अपनी श्रेष्ठता का झूठा अभिमान लिए बैठे तथाकथित प्रबुद्धजनों को संदेश है कि जनता यह 'नासूर' और अधिक दिनों तक पालने हेतु सज्ज नहीं है. बाकी वो आस्तीन के सांप जिन्होंने पूरे नैरेटिव को बदलने और भारत की पीड़ित जनता को ही अपराधी बनाने का काम किया है उनसे सिर्फ यही कहना है कि, "तुम्हारी शिनाख्त हो चुकी है और जनता के आगे तुम और तुम्हारा किरदार नंगा है".
(संशोधन: इस स्टोरी में प्रतिनिधि तस्वीर के तौर पर इस्तेमाल हुई फोटो को हटाया गया है. वह एक Photoshopped तस्वीर थी.)
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