माइकल बेट्स के इस कदम से, हम भारतीय आखिर क्यों प्रेरणा ले सकते हैं?
लंदन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में घटित हुई ये घटना हर उस भारतीय को देखनी चाहिए जिनका समय को लेकर हमेशा ही ढीला ढाला रवैया रहता है. शायद ये घटना उन्हें कुछ प्रेरणा ही दे दे.
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कुछ वाकये ऐसे होते हैं जो वाकई यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि क्या सच में ऐसा भी हो सकता है, ऐसा ही कुछ वाकया पिछले दिनों लंदन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में देखने को मिला, दरअसल हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सदस्य और इंटरनेशनल डेवलपमेंट के राज्य मंत्री माइकल बेट्स ने उस वक़्त सभी को भौचक्का कर दिया जब हाउस में मात्र कुछ मिनट देर से पहुंचने के कारण ही उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया. बेट्स ने देर से आने के बाद मात्र 1 मिनट के अंदर ही यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि, एक महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपने स्थान पर नहीं रहने के मेरी असभ्यता के लिए मैं बैरनेस लिस्टर के प्रति अपनी माफी मांगना चाहता हूं. सरकार की तरफ से सवालों के जवाब देने के लिए पांच वर्षों के दौरान मुझे यह विशेषाधिकार रहा है, मैं हमेशा मानता हूं कि हमें सरकार की तरफ से हर वैध सवालों के जवाब देने में उच्चतम मानक स्थापित करने चाहिए.
लंदन में हुई इस घटना को देखकर सवाल ये उठता है कि क्या इससे हमारे नेता कोई प्रेरणा ले पाएंगे
प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया, और अभी भी वो अपने पद पर बने हुए हैं. बेट्स भले ही अभी भी अपने पद पर बने हुए हैं, मगर अपने काम के प्रति जिस प्रकार की सुचिता उन्होंने दिखाई वो हम भारतीयों के लिए एक मिसाल है और ये खबर हम भारतियों के लिए इसलिए भी प्रेरणादायी भी हो सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां हमारे माननीय सदस्य संसद का बहुमूल्य समय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने और गैर जरुरी शोर करने में निकाल देते हैं.
संसद के कामकाज का अध्ययन करने वाली संस्था पीआरएस के आकड़ें बताते हैं कि पिछले कई सालों से संसद का मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र में संसद अपने तय समय का इस्तेमाल नहीं कर पाई है. और इस दौरान काम के लिए उपलब्ध कई घंटों को हमारे माननीयों ने यूंही जाया किया है. हालांकि इन जाया घंटों में देश को हुए नुकसान का आकलन करना भी मुश्किल है. आमतौर पर संसद की कार्यवाही पर हुए खर्च को ही संसद बाधित रहने की सूरत में अनुमानित नुकसान के रूप में गिना जाता है.
मगर सही मायनों संसद के बाधित रहने की सूरत में पूरे देश को नुकसान झेलना पड़ता है उसका आकलन भी असंभव है. मान लीजिये संसद में कोई बिल पढाई लिखाई से सम्बंधित हो, महिलाओं के बेहतरी के लिए हो, ऐसे में यह जितनी देर से संसद में पास किया जायेगा उतना ही नुकसान देश की उस जनता को होगा जिसके लिए यह बिल लाया गया है.
इस लेटलतीफी के लिए केवल माननीयों को दोष देना भी गलत ही होगा, क्योंकि हमारे देश में लेटलतीफी सामान्य तौर पर स्वीकार्य भी है.चाहे वो सरकारी दफ्तरों में बाबुओं का आना हो या स्टेशनों पर ट्रेनों का, कहीं ना कहीं हम ने यह स्वीकार कर लिया है कि समय पर होना जगह और व्यक्ति के अनुसार बदलने वाला है. ऐसे में हम सभी को माइकल बेट्स का कदम यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाकई सार्वजनिक जीवन में इतनी सुचिता लाई जा सकती है.
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