एक प्रधानमंत्री जिसके दौर में क्रिकेट नहीं, किसानों की हुकूमत थी
चौधरी चरण सिंह एक सफल मुख्यमंत्री, उल्लेखनीय उपप्रधानमंत्री, गृहमंत्री व वित्त मंत्री जरूर रहे, और वक़्त मिलता, तो अच्छे प्रधानमंत्री भी साबित हो सकते थे.
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भारत के एक प्रधानमंत्री ऐसे भी थे, जिनको क्रिकेट की रनिंग कोमेंट्री से सख्त एतेराज था. वे इसे दफ़्तरों में व्याप्त काहिली का बड़ा कारण समझते थे. क्रिकेट को निठल्लों का खेल बताने वाले उस प्रधानमंत्री ने आंखों देखा हाल सुनने वाले को महाबैठारू करार दिया. ख़ासकर टेस्ट सिरीज के दौरान एक मैच में 5-5 दिन लोग कान से रेडियो चिपकाए रहने वाले. वे तो उसके प्रसारण पर रोक लगाने का फ़ैसला करने जा रहे थे. लेकिन ऐसा हो न पाया. ये प्रधानमंत्री कोई और नहीं, किसान नेता चौधरी चरण सिंह थे.
कई मायने में चरण सिंह युनिक थे. चिरकुटई और जुमलेबाज़ी से परे आज देश को फिर से एक दमदार किसान नेता की ज़रूरत है. चौधरी चरण सिंह जैसे ही. आज किसानों के हमदर्द इस नेता की 31वीं पुण्यतिथि है. वे भारत के 5वें प्रधानमंत्री थे. इसके पहले वे थोड़े-थोड़े वक़्त के लिए दो बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री और मोरारजी के मंत्रिमंडल में हिन्दुस्तान के गृहमंत्री, वित्तमंत्री और उपप्रधानमंत्री भी रहे. चौधरी साहब और दो बार भारत के उपप्रधानमंत्री रहे ताऊ देवीलाल, दो ऐसे किसान नेता हुए जिनकी जनता के बीच जबरदस्त पैठ थी. यह किसानों की ही ताकत थी कि चौधरी साहब और ताऊ द्वारा वोटक्लब पर दो रैली कर देने से हिन्दुस्तान का शासन हिलने लगता था. सही मायने में वे जननेता थे. अन्नदाताओं पर गोली चलवाने वाली आज की हुकूमत को किसानों की शक्ति का अंदाजा नहीं है. आज भी ग्राम्य अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि और पशुपालन पर निर्भर है. संस्कृति की बात करने वाले शायद भूल गए हैं, "There's no culture without agriculture".
चौधरी चरण सिंह (23 दिसंबर 1902 - 29 मई 87)
एक बार जब बतौर प्रधानमंत्री चरण सिंह बिहार के सादगी पसंद मुख्यमंत्री कर्पूरी जी के घर समस्तीपुर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई. चरण सिंह ने कहा, "कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ." ठाकुर जी बोलते थे कि जब तक बिहार के गरीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा? रौब भी चौधरी साहब का उतना ही था, खगड़िया की एक सभा को वो संबोधित कर रहे थे, कर्पूरी जी ने बीच में उन्हें कुछ याद दिलाना चाहा, तो चरण सिंह ने हाथ पकड़ कर उन्हें बिठा दिया. वो जिन्हें मानते थे, उन पर हक भी समझते थे और स्नेह भी लुटाते थे. 80 के दशक में इंदिरा गांधी की दुखद मौत के बाद सहानुभूति में उपजी राजीव लहर में बड़े-बड़े दिग्गज चुनाव हार चुके थे, आलम यह था कि मुख्य विपक्षी पार्टी तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) थी. बिजनौर सीट जब खाली हुई, तो उपचुनाव में रामविलास पासवान को बिहार से लाकर लड़वाया. हालांकि, मायावती, मीरा कुमार और पासवान के बीच हुए त्रिकोणीय मुक़ाबले में मीरा कुमार ने तकरीबन 5 हज़ार वोटों से पासवान को हरा दिया.
इससे पहले चरण सिंह ने संजय की मौत के बाद खाली हुई अमेठी सीट से राजीव गांधी के खिलाफ समूचे विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में शरद यादव को मध्यप्रदेश से लाकर चुनाव लड़वाया. उनसे चौधरी साहब ने कहा कि हारजीत की परवाह किए बगैर जाकर जमके लड़ो, बड़े मुक़ाबले में ज़्यादा मज़ा आएगा. शरद जी के ड्रॉइंग रूम में बस चरण सिंह की तस्वीर आपको मिलेगी. वो उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं. लालू, शरद, मुलायम, पासवान जैसे नेताओं के आगे बढ़ने का एक कारण यह भी था कि उनके दौर में लोहिया, जेपी, चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, ताऊ देवीलाल जैसे उदार नेता थे जो तलाश कर, तराश कर नयी रोशनी को निखरने का भरपूर मौका देते थे, बुला-बुला कर मंच प्रदान करते थे.
हर दौर में चुनाव लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती रही है. संचय-संग्रह की प्रवृत्ति, दिखावे और फिज़ूलखर्ची की प्रकृति न हो, तो कम पैसे में भी चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है. इसके लिए नेता का अंदर-बाहर एक होना ज़रूरी है. तभी वह अपने कार्यकर्ताओं को भी मितव्ययिता के लिए तैयार कर पाएगा. 77 में मुंगेर से कांग्रेस के डीपी यादव के खिलाफ नरेंद्र सिंह के बाबूजी कृष्ण सिंह चुनाव लड़ रहे थे. टाउन हॉल में जेपी का कार्यक्रम तय था, पर वे किंचित कारणों से आ न सके. फिर उनके भाषण का टेप सुनाया गया. कार्यकर्ताओं ने अपने सामर्थ्य के हिसाब से योगदान दिया, जनता ने चंदे दिये. 77 के जेपी लहर में इस तरह चंदाचुटकी कर न सिर्फ कृष्ण सिंह जीते, बल्कि जनता अलायंस ने कुल 345 सीटें हासिल की, जिनमें बिहार में 54 में 54 और यूपी में 85 में 85 सीटें जीती.
शरद यादव चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं
यह भी सच है कि जनता सरकार में आंतरिक कलह जब ज़्यादा बढ़ गया, दूसरी तरफ जनसंघ वालों की दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब विद्रोह शुरू हुआ, तो सरकार चलाने के लिए स्थिति सहज नहीं रह गई. बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाए जाने के मशवरे को न मोरारजी ने माना न चरण सिंह ने. चरण सिंह ने तो संसद भंग करने की सिफारिश ही कर डाली और संपूर्ण क्रांति का नारा महज नारा बन कर रह गया.
कांग्रेस ने चरण सिंह के साथ बदमाशी यह की कि बीच में ही चंद दिनों के अंदर समर्थन वापस लेकर चरण सिंह के लिए एंबैरेसिंग सिचुएशन पैदा कर दिया और इस तरह चौधरी साहब हिन्दुस्तान के अब तक के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्हें कभी बतौर प्रधानमंत्री संसद सत्र में जाने का मौका नहीं मिला. मात्र 24 दिनों के अंदर उन्होंने प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया यह कहते हुए कि आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं को लेकर चल रहे मुक़दमे के मामले में वो इंदिरा गांधी द्वारा ब्लैकमेल नहीं होना चाहते थे.
चरण सिंह को उनकी ख़ूबियों के साथ-साथ इस बात के लिए भी इतिहास में याद रखा जाएगा कि उन्होंने जगजीवन राम के समर्थन में पर्याप्त सांसदों की संख्या होने की जानकारी के बावजूद लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से कर दी. और, इस तरह से सबसे ज़्यादा 32 साल तक कैबिनेट मंत्री रहने वाला देश का एक सामर्थ्यवान दलित नेता, जिनकी सभी वर्गों में राष्ट्रीय स्वीकार्यता थी; प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गया.
जेपी, मोरार जी, चरण सिंह, जगजीवन राम और कृपलानी की भूमिका और 77 की सरकार के असमय कालकवलित होने का जब सबब ढूंढते हैं तो पता चलता है कि जेपी इनलोगों के आचरण से बहुत क्रुद्ध हो चले थे, उन्होंने कृपलानी से कहा कि आप इन सबके चक्कर में क्यूं पड़ते हैं? ये बड़े बदमाश लोग हैं. ग़लत लोग सत्ता में आ गए हैं, सब चौपट करके रख दिया.
कुल मिलाकर यह वह दौर था, जब संपूर्ण क्रांति व व्यवस्था-परिवर्तन के नाम पर बनी सरकार ने कांग्रेस की ज़्यादतियों और संजय गांधी की अतिरिक्त-संवैधानिक शक्तियों के दोहन से आज़िज जनता के उपजे आक्रोश को पलीता लगा दिया था. इंदिरा गांधी के ख़िलाफ अभद्रतम भाषा में आग उगलने वाले व रायबरेली से उन्हें शिक़स्त देने वाले राजनारायण उसी कांग्रेस से मिलकर चरण सिंह को पोंगापंथी व ज्योतिष विद्या के मायाजाल में उलझाते चले गए. मोरारजी देसाई के अपने नखरे थे, वे जेपी को भी नहीं गुदानते थे. नेताओं की यह वयोवृद्ध जमात किसी को भी अपने से बड़ा नेता मानने को तैयार नहीं थी, अव्वल हर कोई दूसरे की लकीर को छोटा करने पर तुला हुआ था. लम्बे-चौड़े वादे-दावे व भ्रष्टाचार-विरोध में मुट्ठियां तान कर जनता के बीच विश्वास हासिल करने के बाद जनता का मोहभंग कराने का आज़ाद भारत का इसे पहला एपिसोड माना जाना चाहिए.
मुलायम सिंह यादव के साथ चौधरी चरण सिंह
चरण सिंह के स्टैंड पर बिहार विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष व 1967 से 2000 तक 7 बार विधायक रहे गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु बताते हैं कि सरफ़ेस पर यह जरूर लग सकता है कि चरण सिंह ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया, पर यहां चौधरी जी सही थे, वो सैद्धांतिक आदमी थे. उसूल से समझौता नहीं करते थे. जगजीवन राम नेहरू और इंदिरा दोनों के समय में प्रभावशाली आदमी थे, पर बेवकूफ़ी कर बैठे. इंदिरा जी ने उन्हें ही इमरजेंसी का प्रस्तावक बना दिया, तो जो आदमी आपातकाल का प्रस्तावक हो, वो आपातकाल के विरोध में भारी जनसमर्थन से बनी सरकार का मुखिया हो जाए, तो यह मैंडेट का अपमान होता. इसलिए, यहां मैं चरण सिंह को गलत नहीं मानता.
बहरहाल, चरण सिंह एक सफल मुख्यमंत्री, उल्लेखनीय उपप्रधानमंत्री, गृहमंत्री व वित्त मंत्री ज़रूर रहे, और वक़्त मिलता, तो अच्छे प्रधानमंत्री भी साबित हो सकते थे. पर, प्रधानमंत्री बनने की ओर तीव्रतम गति से अग्रसर जगजीवन राम का रास्ता रोककर उन्होंने महत्वाकांक्षाओं की टकराहट का कुरूपतम नमूना पेश किया. मगर, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने चंद महीने के कार्यकाल में उन्होंने किसानों के हितों के लिए जो काम किए, वो अद्भुत था. युपी के मुख्यमंत्री के रूप में तो उनकी कल्याणकारी योजनाओं और भूमिसुधार को लेकर की गई पहल की मिसाल दी जाती है.
हां, इतिहास उनके दबे-कुचलों के प्रति हमदर्दी और शरद-मुलायम-लालू-रामविलास-नीतीश जैसे नए-नए लोगों की हौसलाअफजाई करने व सियासी मंच मुहैया कराने के लिए जरूर याद करेगा. उन्होंने ठीक ही कहा था -"हिन्दुस्तान की ख़ुशहाली का रास्ता गांवों के खेतों व खलिहानों से होकर गुजरता है".
67 से पहले वे कांग्रेस में सक्रिय रहे, फिर भारतीय लोकदल और जनता पार्टी में. आख़िरी दिनों में उन्होंने जनता पार्टी (सेक्युलर) का गठन कर लिया. चरण सिंह 80 में बिहार विधानसभा चुनाव के प्रचार में आते हैं. मुंगेर में एक ही सभा में 3 विधानसभाओं - हवेली खड़गपुर, मुंगेर और जमालपुर के लिए प्रचार करते हैं. अपने अंदाज़ में वे कहते हैं, "देखो जी, ये है जयप्रकाश जादव, कल इसके यहां ठहरा हुआ था, इसके घर में टूटी खाट नहीं है अतिथियों को बैठाने के लिए. इसको जिता देना". फिर वे रामदेव सिंह यादव को खड़ा करवा के कहते हैं, "ये देखो कई बार से कोशिश कर रहा है, भैंस बेचकर नोमिनेशन कराया है, रामदेव को जिता देना, ग़रीब-ग़ुरबों के दु:ख-दर्द को समझेगा". अब वे उपेंद्र वर्मा की ओर मुखातिब होते हैं, और लोगों से अपील करते हैं, "इस जुझारू आदमी को जिता कर विधानसभा भेजो, तुम्हारी आवाज़ बुलंद करेगा. खेती-बाड़ी समझता है, समस्या सुलझाएगा. पैसे-कौड़ी के लालच में पड़ोगे, तो 5 साल तक तुम्हारे हितों के साथ सौदा होगा".
तीनों उम्मीदवार जीत गए. एक दशक बीतने के बाद इन्हें न जेपी याद रहे, न लोहिया, न लिमये, न चरण सिंह, न कर्पूरी. कुछ वर्षों तक तो बहुत ठीक चला, लालू जी ने दो साल तक सिर्फ़ 10 कैबिनेट मंत्री के साथ सरकार चलाई, जिनमें एक तामझाम से अलग रहने वाले कर्पूरी जी के सुयोग्य पुत्र रामनाथ ठाकुर जी भी शामिल थे. बाद में लोगों को असंयत लोकल नेताओं की कतिपय उल-जलूल बातों से कोफ़्त होने लगी.
मधु लिमये के संपादन में एक किताब कोई 12 साल पहले पढ़ी थी – चौधरी चरण सिंह: कुछ विशिष्ट रचनाएं. इसमें वो Freya Stark को उद्धृत करते हैं:
Manners are like zero in arithmetic.They may not be much in themselves,But they're capable of adding a great deal of value to everything else.
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