खुदा के दरबार में मंटो की जिरह सही सी लगती है...
मंटो जब खुदा के दरबार में पहुंचा तो उसने खुदा से कहा 'तुमने मुझे क्या दिया, 42 साल, कुछ महीने, और कुछ दिन.' वाकई मंटो की ज़रुरत हर दौर को है और इसीलिए खुदा से उनकी ये जिरह सही ही लगती है.
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मरा नहीं यार, देखो अभी जान बाकी है
रहने दो यार, थक गया हूं
दो लाइनों की ये लघुकथा मंटों की रचना 'बंटवारे' के रेखाचित्र ''से ली गई है. मुल्क के बंटवारे का दर्द मंटो की कलम से जाने कितनी कहानियों में एक आह की शक्ल में निकला है. किसी ने मंटो के बारे में क्या खूब कहा है कि टोबा टेकसिंह का वो पागल सिख, जो बंटवारे को स्वीकार नहीं करता दरअसल कोई और नहीं मंटो ही है, जिसने इस ज़मीन पर जबरन खींची इस लकीर को कभी नहीं माना.
मंटो की ही जबान में बात करें तो आप पूछेंगे कि भई मंटो आखिर है कौन ? 42 साल की अपनी ज़िंदगी में कालजयी रचनाएं लिखने वाला शख्स मंटो है. अश्लीलता के लिए छह बार अदालत में हाजिर होने वाला शख्स मंटो है.
22 लघु कहानी संग्रह, एक उपन्यवास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखने वाला मंटो है.
बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह जैसी कहानियां लिखने वाला शख्स मंटो है. नहीं जनाब हम कहेंगे महज़ ये ही मंटो नहीं है.
मंटो को ज़रा उन्हीं के लफ्ज़ों में जानते हैं. मंटो ने मरने से एक साल पहले खुद अपनी कब्र के लिए कतबा लिख डाला था जो कुछ ऐसे है कि ....... मिट्टी के नीचे दफन सआदत हसन मंटो आज भी यह सोचता है .. कि सबसे बड़ा अफसाना निगार वह खुद है या खुदा.
सआदत हसन मंटो |
दरअसल किसी ने सही ही कहा कि मंटो एक शख्स, एक लेखक नहीं मंटो हमारा ज़मीर है....मंटो हमारा ईमान है. सआदत हसन मंटो की कलम से निकले अफसाने ज़िंदगी की वो सच्चाईयां है जिन पर किसी दुनियावी दिखावे का लबादा नहीं चढ़ा है. सीधा, सपाट, तीखा सच. ज़िंदगी जिस हाल में जो रंग दिखाए उसी को मंटो ने अपनी रचनाओं में दिखाने की कामयाब कोशिश की है. कामयाब इसलिए कि मंटो को पढ़ते वक्त आदमी उसके किरदारों में खुद को देखता है, ज़िंदगी को देखता है. मंटो के किरदार एकदम असल हैं, वो सच्चे लगते हैं, वो गलतियां करते हैं ...प्यार करते हैं...नफरत करते हैं....लालच और वासना में डूबते हैं....पश्चाताप भी करते हैं... इसीलिए उनकी कहानियां हैरान करती है... बेरहमी की हद तक रुलाती हैं. इंसानी फितरत को मंटो की इन छोटी सी कहानियों से समझिए कि वो त्रासदी में इंसानी फितरत को किस तरह नंगा करते हैं.
स्याह हाशिये
उस आदमी के नाम जिसने अपनी खुरेंजियों का जिक्र करते हुए कहा ''जब मैंने एक बुढ़िया को मारा तो मुझे लगा, कि मुझसे कत्ल हो गया.'
दावते-अमल
आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया सिर्फ एक दुकान बची है,जिसकी पेशानी पर ये बोर्ड लगा हुआ था ''यहां इमारत साज़ी का सारा सामान मिलता है''
यानि मंटो अपने लिखे किरदार शैदा की तरह है जो हिंसक तो है लेकिन इश्क में जुनूनी और नर्मदिल भी. वो यजीद का करीमदाद भी है जिसने जंग देखी, बंटवारा देखा लेकिन उसके दिल में किसी के लिए कसैलापन नहीं. इसीलिए तवायफ खानों और बदनाम गलियों में ज़िंदगी की पाक खूबसूरती ढूंढने वाले मंटो के किरदार दुनियावी ढकोसलों से दूर लेकिन मानवीय अच्छाई के करीब लगते हैं.
ऐसा इसलिए था कि मंटो ज़िदगी का वो पक्ष सामने रखते थे, जो समाज को नंगा करता है. इसीलिए उनकी कहानियों पर अश्लीलता के केस चलते थे, वो जीवन भर विवादों में रहे. लेकिन कहानी कहने का जो सलीका उन्होंने एक बार पकड़ा तो फिर छोड़ा नहीं. लेखन को लेकर उनकी सोच उनके ही कहे से ज़ाहिर है.....उन्होंने एक बार लिखा कि 'हर शहर में बदरौएं और मोरियां मौजूद हैं जो शहर की गंदगी को बाहर ले जाती हैं.'
हम अगर अपने मरमरी गुसलखानों की बात कर सकते हैं, अगर हम साबुन और लैवेंडर का जिक्रकर सकते हैं तो उन मोरियों और बदरौओं का जिक्र क्यों नहीं कर सकते जो हमारे बदन की मैल पीती हैं.
आखिर में मंटो को लेकर देवेन्द्र सत्यार्थी का लिखा याद आ जाता है जिसमें वो बताते हैं कि किस तरह मंटो जब खुदा के दरबार में पहुंचा तो उसने खुदा से कहा ' तुमने मुझे क्या दिया, 42 साल, कुछ महीने, और कुछ दिन.' वाकई मंटो की ज़रुरत हर दौर को है और इसीलिए खुदा से उनकी ये जिरह सही ही लगती है.
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