इस्मत चुगताई ने बुर्के को अक्ल पर न पड़ने दिया, उस हौसले को सलाम!
इस्मत चुगताई (Ismat Chungtai) का शुमार उन लेखकों में है जिनके लिखे पर हमेशा ही विवाद हुआ. अपनी कहानियों में हमेशा ही महिलाओं के हक़ की आवाज़ उठाने वाली इस्मत ने हमें बताया कि एक मजबूत औरत (Empowered Women) क्या होती है. उनको पढ़कर हमने जाना कि वास्तविक महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) होता क्या है.
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भाई ने घूरा है
पिता ने कनखियों से तरेरा है
पहले निकाह पढ़ लो
फिर सब पढ़ने की आज़ादी है
मैनें जब यह पंक्तियां लिखीं, धीमे लहजे में ही सही, थोड़ी खुसर फुसर हुई थी आस-पास. यह फुसफुसाहट असल में डर है उस पर्दे के खिंच जाने का जो कभी यशपाल की 'परदा' कहानी में चौधरी पीरबख्श की ड्योढ़ी पे पड़ा था. डर, अपने घरेलू तौर-तरीकों के नुमाया हो जाने का. गरीबी, जाहिलियत ज़ाहिर हो जाने का. पर्दा/बुर्क़ा/नक़ाब मुस्लिम औरतों की शक्लों से ज़्यादा उनकी अक़्ल, शऊर को ढकने की एक कवायद रहा है. यह बात मैं पूरे एतमाद से 21वी सदी मैं कह रही हूं. सोचिये, 100 साल पहले मुस्लिम माशरे की औरतों की क्या हालत रही होगी. चलिये, सौ साल पीछे चले ही चलते हैं.
एक लड़की पूरे परिवार के साथ रिज़र्व डिब्बे में बैठी है. सख्ती से ताक़ीद है कि वह डेस्टिनेशन पर बुर्क़ा पहनकर ही उतरे. वो भी ऐसा है कि आंखें तक नुमाया नही. लड़की समझती है बुर्क़े का मनोविज्ञान कि बात सिर्फ चेहरा/जिस्म ढकने की नहीं, अक़्ल पर परदा गिराने की है. वह तिकड़म भिड़ाती है. होल्डाल/बिस्तर बंद का झाबा कसते वक़्त चुपके से उसी में बुर्क़ा लपेट देती है. स्टेशन उतरती है नीचे का झुब्बा पहने, जो वकीलों की ड्रेस सा मालूम पड़ता है. घरवाले जिस्म के ऊपरी हिस्से में चादर लपेटते हैं. जितनी बार चादर उतरती, चुटकियों और घूंसों की बौछार होती. क्या फर्क़ पड़ता है! वह अपने मक़सद में कामयाब विजेता सी चलती और आईन्दा के लिये बुर्क़ा पहनवाने की जुर्रत ना करने की धमकी भी देती जाती है.
वो इस्मत जिन्होंने अपनी रचनाओं में तमाम कुप्रथाओं का जिक्र किया
यह इस्मत चुगताई हैं. इस्मत याने इज़्ज़त, लाज. 10 भाई बहनों में 9वें नम्बर की मुन्नी का नाम अम्मा ने जो भी सोच के रखा हो, लेकिन वह थीं ठीक इसके उलट. लड़की याने घर के अंदर रहने, अम्मा का हाथ बटाने, भाई-अब्बा को चाय नाश्ते पहुंचाने, सीने-तागने, सालन का सही नमक-मिर्च जानने वाली लड़की. इस्मत क्या थीं-खरखरी, ज़बानदराज़, भाईयों के साथ क्रिकेट, गुल्ली-डन्डा खेलने, घुड़सवारी करने, अम्मा की जूतियों से बचकर हंसने वाली बेहया लड़की जिसकी पैदाईश के लिये अम्मा पानी पी-पी अपनीकोख को कोसतीं.
इसकी दो वजह हैं. पहली, अम्मा को उनके अंजाम की फ़िक्र है. वह जानती हैं यह तू तड़ाक, यह मर्दमार बातें औरतों को शोभा नहीं देतीं. हालांकि उन्होनें कभी इस्मत से कहा नहीं फिर भी भाईयों से प्रतियोगिता रखने वाली इस्मत समझती हैं कि अम्मा डरती हैं. वह डरती हैं कि 'यह मर्द की दुनिया है. मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है. औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनिया का जिसे उसने अपनी मोहब्बत और नफ़रत के इज़हार का ज़रिया बना रखा है. वह उसे मूड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है. औरत को दुनिया में अपना मकाम पैदा करने के लिए निस्वानी हर्बों (स्त्रैण साधनों) से काम लेना पड़ता है.
सब्र, होशियारी, दानिशमंदी (अक़्लमंदी), सलीक़ा जो मर्द को उसका मोहताज बना दे. उसकी ज़्यादतियों को सर झुका कर सहना कि वह शर्मिंदा होकर कदमों में गिर पड़े. मगर इस्मत को सब्र बुजदिली लगता है. यहां तक कि बनना, संवरना, सिंगार करना और भड़कीले कपड़े पहनना भी ऐसा जैसे कोई कमी छिपाकर धोखा दिया जा रहा हो. दूसरी, इस्मत के पास क्यों बहुत है.
करबला में अली असगर की हलक़ में तीर क्यों मारा? पड़ोसी के भगवान की तरह हमारे यहां अल्लाह मियां क्यों नहीं आते? शमीम भाई पढ़ना नहीं चाहते और मेरे पढ़ने पर पाबंदी. कौन मुसन्निफ़ (लेखक) है इस दुनिया का? मेरी ज़िंदगी का निर्माता कौन है? अगर वालिदैन हैं तो खुदा ने मुझे दिमाग क्यों दिया ? मैं उसका क्या करूंगी? बच्चा/लड़की वही अच्छी जो ज़िद्द ना करे. बहस ना करे. सवाल ना करे. सवाल करे भी तो जवाब की उम्मीद ना करे. जिस खूंटे बांध दिया जाए, जुटी रहे. जुगाली करे. जिए. मरे. उफ्फ़ ना करे.
इस्मत के ज़िद्दी और खुदसर होने की वजह एहसास ए कमतरी भी है. घर वालों के हिसाब से वह अच्छी खासी तंदुरुस्त हैं. नैन नक़्श भी खास नहीं। खाना बनाना आता नहीं। तिस पर मुंहफट, ज़बान दराज़ तो कौन रखेगा घर में. चार रोज़ में खसम तलाक़ देकर मायके फेंक देगा. इस्मत इस मुश्किल का हल भी निकाल लेती हैं- जो चीज़ मेरे नसीब में ही नहीं उसके लिये तरसने के बजाय क्यों ना उसे खुद ही ठुकरा दूं.
शादी ही ना करूं तो कौन अहमक़ मुझे तलाक़ देगा. मैं पढ़-लिख कर खुदमुख्तार (सेल्फ़ डिपेन्ड) बन जाऊंगी. मियां के ठुकराने के बाद भावजों के बच्चे पालकर ज़िन्दगी नहीं गुजारूंगी. (एक तरह से अचेतन में बसी झिड़कियों, उलाहनाओं का विस्थापीकरण था यह.)
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बीए, बीएड करने वाली देश की पहली मुस्लिम महिला हुईं. पढ़ाई के लिये चने चबाए. वह भी लोहे वाले. अब्बा जिनसे कभी नज़र भर कर बात ना की, पढ़ने के लिये बहस करती रहीं. अम्मा ने तब भी जूती फेंक के मारी. पानी पी के कोसा. उनकी भी कोई हराम मांग तो ना थी जो शर्मिंदा होतीं. अड़ी रहीं. भूख हड़ताल और तमाम कजबहसी के महज़ तीन दिन बाद अब्बा मान गये. और तो और बैंक के 6000 रूपए और आगरा का एक मकान भी नाम कर दिया. (इस्मत का उर्दू कहानियों वाली 'इस्मत आपा' बनने में अब्बा की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता.)
अब बचा प्रेम! वह भी हर रूप में सम्भावना ढूंढ ही लेता है. शाहिद लतीफ़ (फिल्म डायरेक्टर) ने उनसे ब्याह की ख्वाहिश की. उनसे कहा मेरा दिमाग बड़ा गड़बड़ है. निभ नहीं पाएगी. शाहिद माने नहीं. ब्याह हुआ. सीमा और सबरीना नाम की दो बेटियां भी हुईं. लेकिन इस्मत कभी नहीं बदली. शाहिद के एक दफ़ा यह कहने पर कि अब सेटल हो गयी है ज़िंदगी, तो ना लिखो. कहने लगी, 'मैं क्यों ना लिखूं ? लोग मुझे पढ़ते हैं. पसंद करते हैं. बल्कि तुम डायरेक्शन छोड़ दो.' बेचारे ने उनसे बहस ही छोड़ दी.
बताते चलें कि इस्मत फिल्मों से भी जुड़ी रहीं. लगभग 13 फिल्में. उनके उपन्यास 'ज़िद्दी' पर फिल्म बनी. 'जुनून' में एक रोल किया. उनकी आखिरी फिल्म 'गर्म हवा' को फिल्मफेयर भी मिला. उर्दू मॉडर्न कहानियों की मदर इस्मत ने, कहानी लिखने से पहले आर्टिकल्स लिखे. उसपर ज़्यादा तवज्जोह ना मिली. दो- चार कहानियां लिखी कि बवाल उठ गया. बक़ौल इस्मत जैसे टेलीफोन पर आप जो चाहें कह दीजिए, कोई थप्पड़ नहीं मार सकता.
वैसे ही कहानियो में कुछ भी लिख मारिये, कोई हाथ आपके गले तक नहीं पहुंचेगा. इस तरह छुई-मुई, धानी-बांके, शैतान, गेंदा, सास, अमर बेल, भाभी, चौथी का जोड़ा, एक रात, दोज़खी जैसी तमाम कहानियां लिखीं. 'लिहाफ़' (महिला समलैंगिक रिश्तों पर आधारित उर्दू की पहली कहानी) पर फुहाशी के इल्ज़ाम तहत मुक़द्दमा चला. सारी सहित्यिक मंचों से लिहाफ़ ईशनिंदा की तरह गूंजने लगा.
बेहूदा, फूहड़, असभ्य, लुगदी साहित्य जैसे तमाम इल्ज़ामों के बाद भी इस्मत बिन कालिख, काजल की कोठरी से बच निकली. इस तरह तमाम बार उनकी बहस, ज़िद्दत, हार ना मानने की प्रवित्ति के साथ कुछ क़िस्मत भी है. वह मानती हैं, मैं खुशकिस्मत हूं कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए. तरक़्क़ीपसंदों ने ठुकराया नहीं और ना ही सर पर चढ़ाया.'
इस्मत की कहानियों की ज़्यादातर नायिकाएं निम्न-मध्यवर्गीय औरतें, जवाँ होती लड़कियां हैं. बेमेल विवाह, बहु विवाह को ढोती, ढेर बच्चे पालती, पति से पिटती, गलियां खाती-देतीं महिलाओं के बहाने दरसल उन्होनें मुस्लिम बल्कि भारतीय समाज के उस सच को उजागर किया है जो ड्योढ़ी पर लगे 'पर्दे' से छिपा कर रखा जाता है. उनके किरदार तमाम परेशानियों के बावजूद रोतलू नहीं हैं.
हमदर्दी से चिढ़न खाए बैठी आपा से कोई औरत पति द्वारा पीटे जाने की शिकायत करती तो कहतीं, तंदुरुस्त हो. हट्टी-कट्टी भी. मियां को पलट कर मारती क्यों नहीं.लेकिन वे जानती हैं बेहद जाहिल, तंगख्याल इन्सां के वजूद पर भी शिद्दत से विरोध नहीं किया जा सकता. हर इन्सान अपने माहौल का अक़्स होता है. उसी माहौल की गिरफ्त में क़ैद होता है. उसे धक्के देकर या घसीटकर नहीं निकाला जा सकता.
आप इस्मत चुगताई की कहानियां पसंद करे ना करे, औरतों के लिये उनके क्लियर स्टैंड से इंकार नहीं कर सकते. महिला विमर्श की गोष्ठियों, सेमिनारों को इन लाईनों से शुरु किया जाना चाहिये. और जितना हो सके इसे दोहराया जाना चाहिये.
'एक लड़की अगर अपने वारिसों का हुक्म सिर्फ इसलिये मानती है की आर्थिक तौर पर मजबूर है तो फर्मांबरदार नहीं, धोखेबाज ज़रूर हो सकती है. एक बीवी शौहर से सिर्फ इसलिये चिपकी रहती है कि रोटी-कपड़े का सहारा है तो वो तवायफ़ से कम मजबूर नहीं. ऐसी मजबूर औरत की कोख से मजबूर- महकूम अधीन ज़हनियत इंसान ही जन्म ले सकेंगें. हमेशा दूसरे विकासशील क़ौमों के रहम ओ क़रम पर संतोष करेंगे. जब तक हमारे मुल्क़ की औरत मजबूर, लाचार, ज़ुल्म सहती रहेगी, हम इक़्तसादी और सियासी मैदान में एहसास ए कमतरी का शिकार बने रहेंगे.'
महिला सशक्तीकरण का जीता जागता उदाहरण/सबूत इस्मत आपा को हमारा प्यार और सल्यूट वाला सलाम.
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