इस फोटो को देख मिला सुकून, लेकिन याद आई मस्जिद में हत्या की वो खौफनाक तस्वीर
आज सोशल मीडिया पर एक तस्वीर घूम रही है. एक तस्वीर अभी कुछ दिन पहले भी घूमी थी. जब दोनों तस्वीरें इबादत से जुड़ी हैं तो फिर एक की निंदा और दूसरी की तारीफ क्यों होनी चाहिए.
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सोशल मीडिया उतना भी बुरा नहीं है, जितना बुरा हम उसे मान बैठे हैं. कई बार यहां ऐसा भी बहुत कुछ दिख जाता है जो दिल को ठंडक देता है. ऐसी चीजें या ऐसी बातें, जिसको देखकर लगता है कि लोगों में सहिष्णुता बरकरार और मानवता अभी जिंदा है. बात आज सुबह की है, ट्विटर स्क्रॉल करते हुए मेरी आंखों के सामने एक तस्वीर आई. तस्वीर श्रीनगर सेक्टर सीआरपीएफ ने पोस्ट की थी जो देश की सेवा करने वाले फौजियों से सम्बंधित थी.
इस तस्वीर की सबसे खूबसूरत बात ये थी कि इसमें एक जवान सड़क किनारे रुमाल बिछाकर नमाज पढ़ रहा है तो वहीं दूसरा जवान उसकी हिफाजत में बंदूक लेकर खड़ा है और अपनी ड्यूटी कर रहा है. तस्वीर हर मायने में अच्छी है.
सड़क किनारे नमाज पढ़ता एक जवान
हां, मगर इस तस्वीर को देखकर, इस्लाम के ठेकेदार ये भी कह सकते हैं कि अगर जवान को इबादत करना था तो उसे रोड पर नमाज पढ़ने की क्या जरूरत थी. वो किसी मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ सकता था. कहा जा सकता है कि जो भी इस तस्वीर को देखेगा वो इसको लेकर अपने हिसाब से तर्क-वितर्क करेगा.
बहरहाल, मैं इस तस्वीर को देखते हुए अतीत की गुजरी बिसरी यादों में खो गया हूं. ऐसी यादें, जो कठोर से कठोर व्यक्ति को तकलीफ दे सकती हैं. इस दृश्य को देखते हुए मुझे वो दृश्य याद आ गया जब नमाज के ही वक्त, नमाज से निकलते हुए कुछ लोगों ने मस्जिद परिसर में ही डीएसपी अयूब पंडित की सरे आम हत्या की थी.
एक इबादत का ये रूप है एक इबादत का वो रूप था जब लोगों ने एक डीएसपी को मार दिया था
जी हां, बिल्कुल सही सुना आपने. मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है. शब-ए-कद्र के दिन डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित आवारा भीड़ के खतरों का शिकार हो गए. एक ऐसी भीड़ ने उन्हें मार डाला जो अल्लाह के घर से इबादत करके निकली थी. एक ऐसी भीड़ ने उनका भरा पूरा परिवार नष्ट कर दिया जो मस्जिद से बाहर आई थी. एक ऐसी भीड़ जिसके दिमाग में उसके कट्टरपंथी नेताओं ने आजादी के झूठे फसाने लिख दिए हैं.
जब मैं आज, इस तस्वीर की तुलना उस तस्वीर से निकल रही नमाजियों की भीड़ से कर रहा हूं. तो ये तस्वीर मुझे ज्यादा पवित्र और निर्मल लग रही है. इस तस्वीर में इत्मिनान है, भरोसा है, अपनापन है, इंसानियत है. जबकि उस तस्वीर में रोष, घृणा और गुस्सा था. वो एक ऐसी तस्वीर थी जो ये बता रही थी कि, यदि मस्जिद से निकलती भीड़ ऐसी होती है तो उसकी निंदा हर हाल में होनी चाहिए. उसे सिरे से खारिज किया जाना चाहिए.
अब वो समय आ गया है जब मुसलमानों को फैसला करना है कि उन्हें कैसी इबादत करनी है
खैर, मैं औरों का नहीं जानता. मैं जितनी बार इस तस्वीर को देख रहा हूं उतनी ही बार, व्यक्तिगत रूप से मुझे वो सड़क का किनारा जहां सीआरपीएफ का वो जवान नमाज पढ़ रहा है कहीं ज्यादा पवित्र लग रहा है. उस मस्जिद से जहां से निकलकर लोगों ने अपने कर्मों से न सिर्फ धर्म को बल्कि सम्पूर्ण मानवता को शर्मसार कर दिया.
अपनी बात खत्म करते हुए अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि अब इस बात का निर्धारण स्वयं इस देश के मुस्लिम समुदाय को करना होगा कि वो खुद क्या बनना चाहेंगे. अगर बिना दिखावे के वो अपनी इबादत करते हैं और अमन चैन के साथ रहते हुए जीवन जीते हैं तो ये एक बहुत अच्छी और तारीफ योग्य बात है.
अगर वो एक ऐसी भीड़ बनने का प्रयास करते हैं जो धर्म के नाम पर किसी मासूम के प्राण ले ले, तो उनके इस कृत्य की निंदा होना लाजमी है. कहा जा सकता है कि अब समय आ गया है कि समुदाय के लोग बैठे और अपनी गलतियों से सीख लेते हुए कुछ ऐसा करें जो एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो.
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