...तो डिग्री लेकर बेरोजगार रह गए वयस्कों का खर्च कौन उठाएगा?
एक मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पिता को बेटे का खर्च सिर्फ वयस्क होने तक नहीं बल्कि उसके पहली डिग्री पाने तक उठाना होगा. सवाल ये है कि जैसे हालात देश में रोजगार को लेकर युवाओं के हैं. क्या आने वाले वक्त में डिग्री लेकर बेरोजगार रह गए वयस्कों के लिए भी घरवालों की तरफ से किसी तरह के कोई भत्ते का प्रावधान होगा? सवाल न सिर्फ दिलचस्प है बल्कि सोचनीय भी है.
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इंसान अदालत का दरवाजा कब खटखटाता है? जवाब है जब चारों ओर से न्याय की आस खत्म हो जाती है. या फिर जब ये यकीन होता है कि कोर्ट तो है ही सेटलमेंट के लिए. अब कारण क्या रहा हो? मगर देश के सर्वोच्च न्यायालय में पिता पुत्र विवाद के मद्देनजर अपनी तरह का एक अनोखा मामला आया है, जिसमें सुनवाई के दौरान ऐसी बातें कही गयीं हैं जिसने पुत्र को तो फायदा पहुंचाया. लेकिन जिससे आने वाले वक्त में पिता का ठीक ठाक नुकसान हो सकता है. कोर्ट ने कहा है कि पिता को बेटे का खर्च सिर्फ वयस्क होने तक नहीं बल्कि उसके पहली डिग्री पाने तक उठाना होगा. हम कोर्ट का पूरा सम्मान करते हैं. यदि उसने कोई बात कही है तो सोच समझकर और अध्ययन करके कही है. मगर सवाल ये है कि जैसे हालात देश में रोजगार को लेकर युवाओं के हैं. क्या आने वाले वक्त में डिग्री लेकर बेरोजगार रह गए वयस्कों के लिए भी घरवालों की तरफ से किसी तरह के कोई भत्ते का प्रावधान होगा? सवाल न सिर्फ दिलचस्प है बल्कि सोचनीय भी है.
सुप्रीम कोर्ट ने बेरोजगारों को खुश होने की वजह दे दी है
सुप्रीम कोर्ट में अपनी तरह का एक विचित्र मामला आया है जिसमें जस्टिस डी वाई चद्रचूड़ और एमआर शाह ने न केवल एक व्यक्ति को 31 मार्च 2027 तक अपने बेटे की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाने को कहा बल्कि ये भी कहा कि जब तक बच्चा ग्रेजुएट न हो जाए उसे आर्थिक सहयोग की ज़रूरत रहेगी.मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के एक आदेश में थोड़ा फेरबदल भी किया है और कहा है कि, 'आज के जमाने में जब कॉलेज पूरा कर लेने पर बेसिक डिग्री मिलती है ऐसे में बेटे को सिर्फ व्यस्क होने तक पैसे देना काफी नहीं है. आपको उसकी पढ़ाई का खर्च कम से कम तब तक उठाना चाहिए जब तक वह कॉलेज की डिग्री नहीं ले लेता.
बताते चलें कि कर्नाटक फैमिली कोर्ट ने सिंतबर 2017 में एक व्यक्ति को हर महीने अपने बेटे को 20 हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था. दिलचस्प बात ये है कि कर्नाटक सरकार के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत इस व्यक्ति ने 1999 में विवाह किया था और 2005 में अपनी पत्नी से तलाक लेकर दूसरी शादी की थी. इस शादी से व्यक्ति को एक बेटा है और इसी की परवरिश के लिए मामला कोर्ट की क्षरण में आया था जहां कर्नाटक फैमिली कोर्ट ने उस व्यक्ति को हर महीने अपने बेटे के लिए 20 हज़ार रुपये खर्च देने का आदेश दिया. इस आदेश से नाखुश व्यक्ति कर्नाटक हाई कोर्ट की क्षरण में आया और हाई कोर्ट ने भी फैमिली कोर्ट के उस आदेश को जस का तस रखा.
बाद में व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और वहां ये दलील पेश की कि उसे हर माह मात्र 21 हज़ार रुपये तनख्वाह मिलती है और क्यों कि उसकी दूसरी शादी से उसे अन्य दो बच्चे भी हैं इस लिए पहली पत्नी से हुए पुत्र को हर माह 20 हज़ार रुपये देना उसके लिए एक टेढ़ी खीर है. जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं कोर्ट ने ये कहकर सारी दलीलों को खारिज कर दिया है कि जब तक बच्चा ग्रेजुएट न हो जाए उसे आर्थिक सहयोग की ज़रूरत रहेगी.
कोर्ट के इस फैसले से देश का वो बेरोजगार बहुत खुश है जो डिग्रियों का बोझ लादे साल दर साल इधर से उधर रोजगार की तलाश में टहल रहा है. इस वर्ग का खुश होना लाजमी भी है. ये डिग्री वाला बेरोजगार है तो क्या हुआ खर्च तो इसके भी हैं. हक़ तो इसे भी इसका मिलना चाहिए.कोई बड़ी बात नहीं कल की तारीख में हम देश की अदालतों में ऐसे केस देख लें जिसमें कोई बेटा इसलिए कोर्ट की शरण में आ गया क्योंकि उसे नौकरी खोजनी थी मगर उसके पास पैसे न थे इसलिए वो जा न पाया.
कुल मिलाकर इस फैसले से कोर्ट ने एक नई इबारत लिखी है. देखना दिलचस्प रहेगा कि इसका अंजाम क्या होगा? कितने मां बाप होंगे जो इसकी चपेट में आएंगे. इस विषय पर सवाल कई हैं जिनका जवाब हमें केवल वक़्त देगा।
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