धारा 377 बरकरार है और उससे जुड़ा भय भी
सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उससे समलैंगिक लोगों में एक जश्न का माहौल तो है, लेकिन समाज का भय अभी उनके दिल से निकला नहीं है. धारा 377 के भी सिर्फ एक प्रावधान को खत्म किया गया है, ना कि पूरी धारा को.
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समलैंगिकता को कानूनी बनाने की लड़ाई में आखिरकार जीत हासिल हुई. सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए धारा 377 के उस प्रावधान को खत्म कर दिया है, जिसके तहत समलैंगिकता को अपराध माना जाता था. सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक लोगों को स्वीकार कर लिया है, लेकिन क्या समाज भी उन्हें स्वीकार करेगा? क्या अब हाथ में हाथ डाले घूमते समलैंगिकों को समाज से कोई डर नही होगा? सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उससे समलैंगिक लोगों में एक जश्न का माहौल तो है, लेकिन समाज का भय अभी उनके दिल से निकला नहीं है. धारा 377 के भी सिर्फ एक प्रावधान को खत्म किया गया है, ना कि पूरी धारा को.
धारा 377 के सिर्फ एक प्रावधान को खत्म किया गया है, ना कि पूरी धारा को.
धारा 377 बदस्तूर बरकरार है !
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कई लोग ये समझ रहे हैं कि धारा 377 को ही खत्म कर दिया गया है. यहां ध्यान देने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ दो बालिग लोगों के बीच सहमति से संबंध बनाने को अपराध की कैटेगरी से हटाया है, ना कि पूरी धारा को रद्द किया है. यानी अगर अभी भी संबंधों में असहमति हुई तो सजा धारा 377 के हिसाब से ही मिलेगी. इतना ही नहीं, बच्चों और जानवरों के साथ संबंध बनाना अभी भी धारा 377 के तहत अपराध है.
आपसी सहमति से समलैंगिकों को यौन संबंध बनाने की छूट सुप्रीम कोर्ट ने भले ही दे दी है, लेकिन धारा 377 का खौफ उन लोगों में जरूर रहना चाहिए जो समलैंगिकता के कारण बच्चों को यौन शिकार बनाते हैं. NCRB ने 2016 में जो आंकड़े दर्ज किए हैं उनमें 1133 अपराध बच्चों पर किए गए. इनमें सबसे ज्यादा 111 एफआईआर दिल्ली में दर्ज करवाई गई.
क्या सुनाया फैसला?
सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को मनमाना कहते हुए उसके उस प्रावधान को खत्म कर दिया गया है, जिसके तहत समलैंगिकता को अपराध माना जाता था. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सहमति से बालिगों के बीच संबंध नुकसानदेह नहीं है. साथ ही कोर्ट ने कहा कि यौन रुझान पर रोक लगाना संवैधानिक अधिकारों का हनन है. समलैंगिकों को भी अन्य लोगों की तरह जीने का हक है और ये सुनिश्चित करना अदालत का काम है. सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 में दिए अपने ही फैसले को पलट दिया है और 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए फैसले को सही ठहराया है.
दिक्कत कानून की नहीं, समाज की है
सुप्रीम कोर्ट का फैसला समलैंगिकों के लिए जश्न तो लेकर आया है, लेकिन दिक्कत कानून की नहीं, बल्कि समाज की है. एक साथ दो लोग कमरे में क्या करते हैं और क्या नहीं, ये किसी को पता नहीं होता. समाज को दिक्कत इस बात से है कि उनके आस-पास समलैंगिंक लोग क्यों हैं? न तो समलैंगिकों को समाज पसंद करता है, ना ही समलैंगिंक लोगों को समाज अपना हिस्सा मानता है. कानूनी लड़ाई तो समलैंगिक समुदाय ने जीत ली है, लेकिन उन्हें सामाजिक लड़ाई अभी हर मोड़ पर लड़नी होगी. क्योंकि कानूनी मान्यता के बावजूद समाज उन्हें किसी हाल में पसंद नहीं करेगा और पहले भी समाज इन्हें पसंद नहीं करता था.
अब अगर देखा जाए तो समलैंगिंक समुदाय के लिए सिर्फ एक कानून बदला है, लेकिन उनका जीवन जिन संघर्षों से पहले जूझ रहा था, उनसे उन्हें आगे भी जूझना होगा. समलैंगिक लोगों का संबंध बनाना अभी तक अपराध था, लेकिन एक बंद कमरे में कोई संबंध बना रहा है या नहीं, इसके बारे में किसी को ना पहले पता चलता था ना अब चलेगा. पहले भी अगर कोई शिकायत करता था, तो कार्रवाई होती थी. अब भी जब तक शिकायत नहीं होगी, तब तक कार्रवाई नहीं होगी. समलैंगिक समुदाय के लोगों का जश्न सिर्फ कानूनी जीत के लिए है. अभी उन्हें सिर्फ आपसी सहमति से संबंध बनाने की इजाजत मिली है, शादी करने की नहीं. जब तक समाज की सोच नहीं बदल जाती है, तब तक समाज से उनकी लड़ाई पहले की तरह ही बदस्तूर जारी रहेगी.
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