सुशील कुमार अब ओलंपियन नहीं, भगोड़े के रूप में ही याद किये जाएंगे!
अपराधी को सजा देकर अदालत को मिसाल कायम करनी चाहिये, लेकिन ओलंपियन से भगोड़ा (Olympian Turned Fugitive) बने सुशील कुमार (Sushil Kumar) को अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती दिवस (International Wrestling Day) पर पुलिस की गिरफ्त में मुंह छुपाते देखा जाना कोई नहीं भूल पाएगा.
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सुशील कुमार (Sushil Kumar) के मन में क्या होगा ये तो नहीं मालूम, लेकिन जो लोग भी कुश्ती के शौकीन हैं या किसी भी स्पोर्ट्स में दिलचस्पी रखते हैं वो आज बहुत निराश हुए होंगे - क्योंकि शायद ही किसी ने सोचा हो कि नौजवानों का रोल मॉडल ओलंपिक विजेता अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती दिवस (International Wrestling Day) के मौके पर पुलिस के हत्थे चढ़ेगा.
कोई गिला या शिकवा सुशील कुमार से इस बात को लेकर नहीं है कि वो किसी हत्या में शामिल हैं या नहीं - क्योंकि सुशील कुमार पर अभी महज आरोप लगा है और दिल्ली पुलिस ने अपनी शुरुआती जांच पड़ताल में उनको शक के दायरे में पाया है. शिकायत ये भी नहीं है कि सुशील कुमार ने हत्या जैसा कोई अपराध किया है क्योंकि पुलिस के गिरफ्तार कर लेने भर से कोई हत्यारा या अपराधी नहीं हो जाता.
शिकायत तो सुशील कुमार से सिर्फ ये भर है कि हत्या के ही सही एक केस में नाम आ जाने भर से वो भागते क्यों फिर रहे थे - जो बात उनके वकील ने अग्रिम जमानत की सुनवाई के दौरान कही है, वो अगर कानूनी खामियों का फायदा उठाकर बचाव पक्ष की कोई आम दलील नहीं है, तो सुशील कुमार को ये सब करने की क्या जरूरत थी?
मन में एक दिन ओलंपिक मेडल जीतने का सपना संजोये नौजवानों के लिए रोल मॉडल रहे सुशील कुमार को लेकर अफसोस की बात तो बस एक ही है - सागर की हत्या के मामले में अदालत का जो भी फैसला आये, आगे से सुशील कुमार को लोग एक ओलंपियन के तौर पर नहीं बल्कि एक भगोड़े (Olympian Turned Fugitive) के तौर पर याद करेंगे जिस पर पुलिस ने एक लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा था!
सुशील कुमार को लोग अब कैसे याद करेंगे
हत्या के आरोपी ओलंपियन सुशील कुमार और छत्तीसगढ़ में एक युवक को सरेआम थप्पड़ मारते एक कलेक्टर दोनों की करतूत- सिक्के के एक ही पहलू में नजर आते हैं.
दोनों घटनाओं में बुनियादी फर्क भले हो, लेकिन दोनों की जिम्मेदारियों के लिहाज से सोचें तो प्रकृति एक ही लगती है. दोनों में से किसी ने भी समझदारी नहीं दिखायी, लगता तो ऐसा ही है. पुलिस के दावे के हिसाब से सुशील कुमार को अपराध में शामिल मान लें तो ये सवाल उठता है कि क्या सुशील कुमार के मन में उस वक्त कोई वैकल्पिक उपाय नहीं सूझा होगा? ठीक वैसे ही देश की सबसे मुश्किल प्रतियोगी परीक्षा पास कर प्रशासनिक प्रबंधन की ट्रेनिंग और काम के अनुभव के बावजूद छत्तीसगढ़ के उस कलेक्टर को एक बार भी नहीं लगा कि वो क्या करने जा रहा है - अगर हाथ उठाने से खुद को नहीं रोक पाये तो क्या वो अपने उठे हाथ को रोक नहीं सकते थे.
एक 'था' ओलंपियन सुशील कुमार!
भारी दबाव और बेहद तनावपूर्ण स्थिति में चीजों को कैसे संभाला जाये, इंटरव्यू में ये समझाने के बाद ही कोई आईएएस की परीक्षा को पास कर पाता है, लेकिन सूरजपुर के कलेक्टर रणवीर शर्मा ऐसी बुनियादी चीज को भूल ही गये. जब किसी जिले के कलेक्टर का ये हाल हो तो वहां के अदने सिपाहियों के बिला वजह बल प्रयोग पर तो किसी को शिकायत तक नहीं होनी चाहिये.
सुशील कुमार ने भी बरसों बरस भारी दबाव और कितनी भी तनावपूर्ण स्थिति क्यों न हो, उसमें भी कैसे संयम बनाये रखना है इसका लंबा अभ्यास किया होगा. ऐसा किये बगैर तो कोई ओलंपिक में टिक ही नहीं सकता, सुशील कुमार ने तो दो दो मेडल जीते हैं.
सवाल ये है कि हत्या के मामले में नाम आने के बाद सुशील कुमार ने फरार हो जाने का फैसला क्यों किया होगा?
क्या सबूत मिटाने के लिए? क्या छिपने के दौरान सुशील कुमार ने सबूतों को मिटाने की भी कोशिश की होगी? लगता तो नहीं क्योंकि मौका ए वारदात तक पहुंचना तो उनके लिए नामुमकिन ही था. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल सुशील कुमार की लगातार तलाश कर रही थी - यूपी और उत्तराखंड पुलिस के संपर्क में भी रही ही होगी - क्योंकि एक टोल प्लाजा से सीसीटीवी फुटेज मिलने के बाद पुलिस को सुशील कुमार के हरिद्वार के किसी आश्रम में छिपे होने का शक था.
आखिर क्यों सुशील कुमार भागते फिर रहे थे - क्या पुलिस रिमांड से बचने के लिए? रिमांड के दौरान पुलिस की थर्ड डिग्री और टॉर्चर से बचने के लिए?
ये तो संभव न था कि वो पकड़े नहीं जाते. कुछ आर्थिक अपराधियों की तरह विदेश भाग जाने के बाद भी किसी न किसी दिन पकड़े ही जाते. ये तो पता होगा ही कि हर साल पुलिस, सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसियां भगोड़े अपराधियों को किसी भी मुल्क से प्रत्यर्पण करके लाती ही रहती हैं - वो सिर्फ फिल्मी डायलॉग है कि डॉन को पकड़ना मुश्किल नहीं नामुमकिन है. असली जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं होता.
ऐसा तो कभी भी संभव नहीं हो पाता कि पकड़े जाने के बाद सुशील कुमार को पुलिस रिमांड पर न ले. ऐसा भी संभव नहीं होता कि कोर्ट में पेश किये जाने के बाद अदालत पुलिस रिमांड पर न भेजे - फिर सुशील को भागते फिरने या छिपने की क्या जरूरत आ पड़ी थी?
पुलिस के हवाले से कभी सुशील कुमार के उत्तराखंड में छिपे होने की खबर आयी तो कभी हरियाणा में, लेकिन गिरफ्तार हुए दिल्ली के ही मुंडका से. विदेश भागने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने लुकआउट नोटिस भी जारी कर रखा था. पुलिस की अपील पर अदालत ने 15 मई को सुशील कुमार के खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी कर दिया था. रोहिणी के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में सुशील कुमार के वकील की तरफ से अग्रिम जमानत की याचिका दायर की गयी थी.
18 मई को सुशील कुमार की जमानत की याचिका कोर्ट ने खारिज कर दी थी. दिल्ली पुलिस के आगे सुशील कुमार के वकील की दलील को अदालत ने नहीं माना. सुशील कुमार के वकील की दलील थी कि बेबुनियाद इल्जाम लगाकर सुशील कुमार की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है. दिल्ली पुलिस का कहना रहा कि सुशील कुमार की अपराध में भूमिका है और मर्डर केस में वो मुख्य आरोपी हैं.
सुशील कुमार पर बड़ा आरोप पहली बार लगा है, लेकिन छोटे-मोटे आरोप कई बार लगे हैं. डोप टेस्ट में फेल होने के बाद चार साल तक बैन झेलने वाले एक पहलवान का तो आरोप रहा है कि उसके खाने में सुशील कुमार ने ही प्रतिबंधित दवायें मिला दी थीं.
किसी भी स्पोर्ट्सपर्सन में किलर इंस्टिंक्ट का होना बहुत जरूरी होता है, लेकिन ऐसी भी नहीं कि वो उसे हत्या का आरोपी बना दे, खेल भावना हमेशा ही सर्वोपरि होती है. माइक टायसन अपने गुस्से पर काबू न रख पाने और हमेशा कुछ न कुछ ऐसा वैसा कर देने की वजह से जेल की हवा खाते रहे हैं. मार्शल आर्ट कितना खतरनाक होता है, लेकिन ट्रेनिंग की शुरुआत ही इस बात से होती है कि हमेशा खुद पर काबू रखना है. अपनी कला को किसी के खिलाफ हथियार नहीं बनाना है. हर हाल में कूल रहना है.
जहां तक सुशील कुमार को भविष्य में याद किये जाने की बात है, तो वो हत्या जैसे संगीन जुर्म के महज एक आरोपी नहीं, बल्कि एक भगोड़े के तौर पर याद किये जाएंगे जिसके ऊपर पुलिस ने एक लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा था - और गिरफ्तारी के बाद मुंह ढक कर ले जाते देखा गया.
मिसाल पेश करने का पूरा मौका था, सुशील ने गवां दिया
सुशील कुमार चाहे होते तो मिसाल पेश कर सकते थे. रोल मॉडल सिर्फ मेडल ही नहीं जीतता, जीवन के हर मौके पर रोल मॉडल ही होता है - ऐसी मिसाल पेश करने का सुशील कुमार के पास बेहतरीन मौका था, लेकिन एक आरोप लगते ही गवां बैठे.
फिल्मों में हीरो सच के लिए तमाम गैरकानूनी काम करते देखने को मिलता है, लेकिन आखिर में वो खुद को कानून के हवाले कर देता है - क्योंकि समाज में ये मैसेज कतई नहीं जाना चाहिये कि कोई कानून को भी अपने हाथ में ले सकता है... और बच कर निकल भी सकता है.
ये तो सुशील कुमार को भी मालूम होगा ही कि कानून के हाथ लंबे होते ही हैं - और हमेशा लंबे ही रहेंगे जब तक धरती पर सभ्य समाज रहेगा. कोर्ट ट्रायल के दौरान सुशील कुमार के खिलाफ भले ही सबूत न मिलें. गवाह या दूसरे परिस्थितिजन्य साक्ष्य न मिलें, ऐसी सूरत में किसी भी आरोपी को न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के अनुसार बेनेफिट ऑफ डाउट मिलता ही है. सुशील कुमार को भी ये मौका मिलेगा ही. निचली अदालत और हाई कोर्ट से सजा हो जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट भी इसीलिए बनाया गया है ताकि वो नैचुरल जस्टिस दिला सके.
सुशील कुमार के वकील की जमानत पर सुनवाई के वक्त कोर्ट में पेश की गयी दलील को एक पल के लिए मान भी लें कि उनको फंसाने की साजिश हुई है, हो भी सकती है. जब तक केस में अदालत फैसला न सुनाये मान कर चलना चाहिये कि साजिश हुई हो सकती है - लेकिन अगर यही बात सुशील कुमार घटना के फौरन बाद ही बताते. खुद को कानून के हवाले कर जांच में सहयोग करते तो ये अपनेआप में देश के सामने एक बड़ी मिसाल होती.
बाद में भले ही सुशील कुमार को सजा हो जाती तब भी लोग कानून के प्रति उनकी इज्जत, खुद की गलती के लिए न भागने वाले वाली शख्सियत के तौर पर याद करते.
अब तो सुशील कुमार के अदालत से बरी हो जाने के बाद भी लोग पहले वाली निगाह से देखने से रहे - आगे से सुशील कुमार हमेशा एक भगोड़े के तौर पर जाने जाएंगे ओलंपियन के तौर पर तो कतई नहीं!
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