भारत में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के तीस वर्ष: सफ़र, पड़ाव, और चुनौतियां...
भारत में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के 30 साल का सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है. यूएनसीआरसी को स्वीकार करने के बाद हमारे देश में बच्चों के पक्ष में कई उल्लेखनीय पहल की गयी हैं, कई नए कानून, नीतियां और योजनायें बनायीं गयी हैं. सवाल ये है कि क्या ये कारगर हैं? आइये समझते हैं...
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यह भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते को अंगीकार करने का 30वां वर्ष है. भारत सरकार द्वारा 11 दिसम्बर 1992 को इस बाल अधिकार समझौता पर हस्ताक्षकरअपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी थी. गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा द्वारा 20 नवम्बर 1989 को 'बाल अधिकार समझौते' को पारित किया गया था. यह ऐसापहलाअंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो सभी बच्चों के अधिकारों को समग्रता से पहचान प्रदान करता है. ये अधिवेशन चार मूल सिद्धांतों पर आधारित हैं जिसमें जीवन जीने का अधिकार, विकास का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार और सहभागिता का अधिकार शामिल है. यूएनसीआरसी के कुल 54 अनुच्छेद हैं जिसमें के 1 से 42 तक के अनुच्छेद में बच्चों के अधिकार शामिल हैं. जबकि अनुच्छेद 43 से 54 में इन बाल अधिकारों को लागू करने की कार्यप्रणाली और विभिन्न प्रशासनिक मुद्दों से सम्बंधित है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों पर अब तक होने वाली संधियों में सबसे ज़्यादा देशों से स्वीकृति इसी समझौते को प्राप्त हुई है. इस समझौते पर विश्व के 193 राष्ट्रों की सरकारों ने हस्ताक्षर करते हुए अपने देश में सभी बच्चों को जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, संपति, योग्यता आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के संरक्षण देने का वचन दे चुके हैं.
अब वो वक़्त है जब हमें बाल अधिकारों जैसे अहम मुद्दे पर बात करनी ही चाहिए
इस समझौते ने भारत सहित दुनिया भर के लोगों में बच्चों के प्रति नजरिये और विचारों को बुनियादी रूप से बदलने का काम किया है तथा बाल अधिकार-आधारित दृष्टिकोण आधारित ढांचों व कार्यपद्धति को स्थापित किया है. आज इस संधि का असर सभी मुल्कों के क़ानूनों और नीतियों पर साफ-तौर पर देखा जा सकता हैं. भारत में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के 30 साल का सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है, यूएनसीआरसी को स्वीकार करने के बाद हमारे देश में बच्चों के पक्ष में कई उल्लेखनीय पहल किये गये हैं, कई नए कानून, नीतियां और योजनायें बनायीं गयी हैं.
इसी कड़ी में भारत सरकार द्वारा साल 2013 में दूसरे राष्ट्रीय बाल नीति की घोषणा की गयी जिसमें कहा गया है कि सरकार अधिकार आधारित दृष्टिकोण अपनाते हुये दीर्घकालिक, टिकाऊ और समावेशी दृष्टिकोण के माध्यम से बच्चों के समग्र और सामंजस्यपूर्ण विकास के लिये प्रयास करेगी. राष्ट्रीय बाल नीति-2013 में चार प्रमुख प्राथमिक क्षेत्रों की पहचान की है: (1) जीवन रक्षा (2) स्वास्थ्य और पोषण (3) शिक्षा और विकास (4) संरक्षण और भागीदारी. इसके बाद भारत सरकार द्वारा 24 जनवरी 2017 (राष्ट्रीय बालिका दिवस) को 'बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना, 2016' की घोषणा की गयी.
यह राष्ट्रीय बाल नीति, 2013 में निहित सिद्धांतों पर आधारित है. कार्य योजना के चार प्रमुख प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं- अस्तित्व, स्वास्थ्य एवं पोषण, शिक्षा और विकास, संरक्षण और भागीदारी. बच्चों के लिय राष्ट्रीय कार्य योजना 2016 इन चार प्रमुख प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के तहत प्रगति मापने के लिए उद्देश्य, उप-उद्देश्य, रणनीतियां, कार्यबिंदु और संकेतकों को परिभाषित करती है. कार्य योजना के रणनीति और कार्य बिंदुओं को मुख्य रूप से विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के मौजूदा कार्यक्रम और योजनाओं से लिया गया है. इसमें सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को भी ध्यान में रखा गया है.
इसलिए हम देखते हैं कि भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते की अंगीकार किये जाने के बाद से देश में बच्चों से सम्बंधित कई सूचकांकों में पहले के मुकाबले सुधार देखने में आया है. मिसाल के तौर पर अगर शिक्षा की बात करें तो समझौते के बाद भारत में बच्चों तक शिक्षा की पहुंच में काफी सुधार हुआ है, 1980 के दौरान जहां 15 साल से अधिक उम्र वालों में से साक्षरता की दर 40.8 प्रतिशत थी वो आज बढ़कर 74.4 फीसदी हो चुकी है.
आज प्राथमिक स्तर पर नामांकन दर सौ प्रतिशत होने के करीब है. इसी प्रकार से इस दौरान बाल मृत्युदर में भी काफी सकारात्मक सुधार देखने को मिला है. संयुक्त राष्ट्र की बाल मृत्यु दर में स्तर और रुझान रिपोर्ट 2020 के अनुसार 1990 से 2019 के बीच देश में बाल मृत्युदर में लगातार कमी हुई है, 1990 में जहां पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर (प्रति 1000 जीवित जन्म में) 126 थी, जो 2019 में घटकर केवल 34 रह गई. यानी 1990 से 2019 के बीच इस दर में 4.5% वार्षिक कमी दर्ज की गयी है.
लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद अभी भी कई चुनौतियां कायम हैं. देश में शिक्षा की गुणवत्ता लगातर कम हो रही है, साथ ही हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था लगातार ध्वस्त होती गयी है, शिक्षा पर सरकारों द्वारा खर्च भी कम हुआ है. 1994 में भारत के कुल जी.डी.पी. का 4.34 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता था, जो आज घट कर 3.35 प्रतिशत रह गया है. इसी प्रकार से इस दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है जोकि बहुत चिंताजनक है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले डेढ़ दशक के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में जबरदस्त तेजी देखने को मिली है और यह आंकड़ा 1.8 से बढ़कर 28.9 फीसदी तक जा पहुंचा गया है. इसी प्रकार से देश में 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट जारी है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी, वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 हो गयी है.
इधर करोना महामारी ने पूरी दुनिया में बाल अधिकारों पर व्यापक असर डाला है. बच्चे इस महामारी के सबसे बड़े पीड़ितों में से एक हैं खासकर गरीब और वंचित समुदायों के बच्चे. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि कोरोना संक्रमण और इसके प्रभावों के चलते दुनिया भर में करीब 42 से 66 मिलियन बच्चे अत्यधिक गरीबी की दिशा में धकेले जा सकते हैं. महामारी के कारण करोड़ों बच्चों की औपचारिक शिक्षा व्यापक रूप बाधित हुई है, उनके पोषण पर असर पड़ा है और वे पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गये हैं.
कोरोना महामारी के कारण स्कूलों के बंद हो जाने से बच्चों की शिक्षा पर बहुत प्रभाव पड़ा है विश्व बैंक के अध्ययन के अनुसार, स्कूल बंद होने के कारण न केवल सीखने की हानि होगी, बल्कि इसके चलते ड्रापआउट के दर में बड़ी वृद्धि भी हो सकती है जिसका असर असर बाल श्रम के रूप में देखने को मिल रहा है. संसद में पेश की गयी राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के आंकड़ों के मुताबिक 2019-20 से 2020-21 के बीच बाल श्रमिकों की संख्या में 6.18% की वृद्धि हुई है.
कोविड 19 का बच्चों मानसिक स्वास्थ्य पर काफी गहरा प्रभाव देखने को मिला है. किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर कोविड-19 की महामारी के प्रभाव को समझने के लिए माइंड स्पेशलिस्ट्स द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार कोविड का किशोरों पर नकरात्मक प्रभाव पड़ा है और वे अपने आप को पहले के मुकाबले अधिक चिंतित, क्रोधित, निराश और उदास महसूस करने लगे हैं.
रिपोर्ट के अनुसार आने वाले भविष्य में वे अपनी शिक्षा से सम्बंधित आशंकाओं को लेकर भी चिंतित हैं साथ ही वे आनलाईन शिक्षा को भी भौतिक कक्षाओं के मुकाबले पर्याप्त और प्रभावी नहीं मानते हैं. इसी प्रकार से महामारी में लड़कियों की शिक्षा के प्रभावित होने के चलते उनका कम उम्र में शादी होने का खतरा बढ़ गया है. राष्ट्रीय हेल्पलाइन 'चाइल्डलाइन' से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में अप्रैल से लेकर अक्टूबर माह के बीच चाइल्डलाइन को बाल विवाह से सम्बंधित 18,324 डिस्ट्रेस कॉल्स किए गए थे.
इस प्रकार हम देखते हैं कि पिछले 30 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है लेकिन बाल अधिकार और अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौता आज भी उतने ही मायने रखते हैं. इस दौरान कुछ नई चुनौतियां भी सामने आई हैं आज बच्चों को कुछ नये खतरों का सामना करना पड़ रहा है जिसमें डिजिटल प्रौद्योगिकी, जलवायु परिवर्तन, बड़े पैमाने पर प्रवास व शहरीकरण और महामारी जैसे वैश्विक चुनौतियां शामिल हैं.
लेकिन इस दौरान बच्चों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के नये अवसर और सकारात्मक माहौल मिले हैं. भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ बाल संधि को स्वीकार किये जाने के 30 साल पूरे होने का यह मौका ख़ास हैं इस दौरान हुई उपलब्धियों का जश्न जरूर मनाया जाना चाहिए लेकिन इसके साथ यह मौका देश बाल अधिकारों को लेकर नई संकल्पों और उम्मीदों के साथ आगे बढ़ने का भी है.
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