सेवक नहीं ये तो ‘अहंकारी’ साहब है!
जब जनता स्वयं यह स्वीकार कर रही है कि वो निम्न है तो कोई अफसर क्यों खुद को बराबर समझेगा? यही कारण है निरंतर इन सेवकों और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है.
-
Total Shares
सोशल मीडिया पर एक तस्वीर खूब शेयर हो रही है जिसमें एक आईएएस अफसर, जिसका नाम डॉ जगदीश सोनकर बताया जा रहा है, मरीज के बेड पर पैर रखकर ये 'निरीक्षण' कर रहे हैं कि उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि वो किसी अपराधी का जायजा लेने अस्पताल गये हों जिससे एक मिनट के लिए उनके अकड़ को स्वीकार भी कर लिया जाए! हद तो ये है कि अस्पताल के उस कमरे में सिर्फ महिलाएं और बच्चे दिख रहे हैं. कल्पना कीजिये कि जो सिविल सेवक अस्पताल में महिलाओं के प्रति इतनी असंवेदनशीलता दिखा सकता है वो 'सेवक' अन्य मौकों पर नागरिकों से कैसे पेश आता होगा? उस पर ये स्थिति तब है जब उनको इस ‘इस्पाती व्यवस्था' का अंग बने बहुत दिन नहीं हुआ है. वैसे, ये कोई नयी घटना नहीं है. आये दिन हम इन अफसरों के शक्ति प्रदर्शन का कोई न कोई नमूना देखते ही रहते हैं. कभी अधीनस्थ को थप्पड़ मार देना, कभी किसी फरियादी को ऑफिस से बाहर निकलवा देना जैसे उदाहरण बरबस ही उस औपनिवेशिक ढांचे की याद दिला देते हैं जो किसी न किसी रूप में सिविल सेवा से भी जुड़ा हुआ है.
Hospital photo goes viral, IAS officer in Chhattisgarh caught on the wrong foot https://t.co/hGNwjCsKXS pic.twitter.com/umWyvSUYwr
— Hindustan Times (@htTweets) May 4, 2016
मूल सवाल ये है कि आखिर ये सिविल सेवक ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा कहां से प्राप्त करते हैं? इसका सबसे बड़ा कारण है- उनमें अतिशय शक्ति का केंद्रीकरण. अगर उन्हें ‘लोकतंत्र का राजा' कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. नीति निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक में उनकी बड़ी अहम भूमिका होती है. ऐसे में शक्ति का अहं हो जाना स्वाभाविक ही है. फिर महत्त्वपूर्ण ये जानना है कि ऐसे शक्ति प्रयोग करने की ‘वैधता' इन्हें कहां से मिलती है? इसकी जड़ें हमारे सामाजिक व्यवहार में छुपी हुई हैं. दरअसल इस नौकरी को लेकर हमारे समाज में गजब का आकर्षण है तथा एक बार इसमें सफल हो जाने के बाद व्यक्ति को इतना एक्सपोजर मिलने लगता है कि उसमें ये बात घर कर जाना आम ही है कि वो सामान्य से कुछ हटकर है. धीरे धीरे ये भावना मजबूत होती जाती है और उनके अंदर एक विशेष प्रकार का आत्मविश्वास पनपने लगता है. वह क्रमश: शासकीय चरित्र में ढलने लग जाता है.
हालांकि ये सब अनायास नहीं होता है, इसकी एक पूरी सामाजिक प्रक्रिया है. बचपन से ही समाज हमें यह बताता रहता है कि एक बार आईएएस बनकर लाल बत्ती ले लो फिर तो पूरा संसार ही तुम्हारा है. इस प्रकार का सामाजिक व्यवहार न केवल इन अफसरों को असीमित अधिकार प्रदान कर रहा है बल्कि उसे अनैतिक आचरण के लिए प्रोत्साहित भी कर रहा है. जब जनता स्वयं यह स्वीकार कर रही है कि वो निम्न है तो कोई अफसर क्यों खुद को बराबर समझेगा? यही कारण है निरंतर इन सेवकों और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. दरअसल जिस सत्ता की हनक के लिए हम उन्हें कोसते हैं, उसी बेलगाम सत्ता को उन तक पहुंचाने में हम भी बराबर के भागीदार रहे हैं. जब तक ये सामाजिक व्यवहार नहीं बदलेगा तब तक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं बदस्तूर जारी रहेंगी.
आपकी राय