जैसी घोर राजनीति टोंक सीट को लेकर हुई, उतनी कहीं और भी हुई क्या?
टोंक सीट पर कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई तो दिलचस्प है ही, तमाम राजनीतिक तिकड़म भी नजर आते हैं. आखिर क्यों अशोक गहलोत अपने गढ़ में जमे हैं और सचिन पायलट वहां जहां 2013 में कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गयी थी?
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ये तो महज संयोग ही रहा होगा जब सचिन पायलट कांग्रेस की ओर से नॉमिनेशन फाइल करने के बाद बाहर निकल रहे थे तो बीजेपी उम्मीदवार यूनुस खान दाखिल हो रहे थे. संयोग के हिस्से इतना ही भर रहा, राजस्थान की टोंक विधानसभा सीट पर बाकी जो कुछ हुआ, या जो हो रहा है, या फिर आगे भी जो होने वाला है उसे घोर राजनीति ही कहेंगे.
हार-जीत के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन ये जरूर है कि सचिन पायलट बनाम यूनुस खान की लड़ाई काफी दिलचस्प होती जा रही है. वैसे दोनों के टोंक तक पहुंचने का सफर भी कम दिलचस्प नहीं है. यूनुस खान को लेकर तो राजनीति साफ साफ है, लेकिन सचिन पायलट के मामले में तस्वीर और ज्यादा साफ होनी जरूरी है.
कुछ भूगोल, कुछ इतिहास
राजस्थान के टोंक जिले की ही एक विधानसभा सीट है - टोंक. टोंक जिले की सीमा जयपुर के साथ ही अजमेर, दौसा, भीलवाड़ा और बूंदी जिलों से लगती है. अजमेर में आठ विधानसभा क्षेत्र हैं, दौसा में पांच, भीलवाड़ा में सात और बूंदी जिले में तीन सीटें हैं.
राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट और टोंक से जुड़ी ताजा बात तो यही है कि वो यहां से कांग्रेस प्रत्याशी हैं. पुरानी और विशेष बात ये है कि सचिन पायलट टोंक जिले से सटे दो लोक सभा क्षेत्रों अजमेर और दौसा की नुमाइंदगी कर चुके हैं. सचिन पायलट 2004 में अजमेर और 2009 में दौसा से लोक सभा का चुनाव जीते थे. 2014 में भी सचिन पायलट अजमेर से ही चुनाव लड़े थे लेकिन बीजेपी उम्मीदवार से वो हार गये थे.
सचिन की उम्मीदवारी के पीछे की राजनीति क्या है?
2014 में अजमेर ही नहीं, टोंक-सवाईमाधोपुर से भी कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था जहां कांग्रेस के टिकट पर पूर्व क्रिकेट कप्तान मोहम्मद अजहरूद्दीन चुनाव मैदान में थे. हैरानी की बात यही रही कि मुस्लिम प्रत्याशी होने के बावजूद अजहरूद्दीन को गुर्जर बीजेपी नेता सुखबीर सिंह जौनपुरिया ने शिकस्त दे डाली.
सचिन पायलट के खिलाफ यूनुस खान के चुनाव मैदान में होने से यही सवाल उठ रहा है कि आखिर मुस्लिम मत निर्णायक होंगे या गुर्जर वोट? टोंक से सचिन पायलट की उम्मीदवारी तय होते वक्त उनके चुनाव क्षेत्र से नजदीक होने के साथ ही एक फैक्टर वहां गुर्जर मतदाताओं की ठीक ठाक आबादी पर भी गौर किया गया होगा. सचिन पायलट गुर्जर समुदाय से ही आते हैं.
इसी तरह बीजेपी में यूनुस खान को टिकट दिये जाते वक्त टोंक के मुस्लिम वोटर का हवाला दिया गया होगा. वैसे टोंक में 50 हजार मुस्लिम और 30 हजार गुर्जर मतदाताओं के अलावा एससी-एसटी वोटर की भी अच्छी खासी आबादी है.
2013 के विधानसभा चुनाव में भी टोंक में कांग्रेस उम्मीदवार जकिया की जमानत जब्त हो गई थी. फिर भी कांग्रेस की ओर से सचिन पायलट को उम्मीदवार बनाया गया है जिन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी माना जा रहा है.
...और खूब सारी राजनीति
यूनुस खान ने पहले तो खुद के टोंक पहुंचने को वैसे ही प्रोजेक्ट किया जैसे नरेंद्र मोदी वाराणसी पहुंचे थे. अब वो टोंक में घूम घूम कर कह रहे हैं - सचिन पायलट हवा मे उड़ने वाले हैं, मैं सड़क छाप व्यक्ति हूं, सड़क पर रहूंगा. पायलट हवा में उड़ते है, उनकों टोंक लैंड नहीं होने दिया जाएगा. असल में यूनुस खान वसुंधरा सरकार में परिवहन मंत्री हैं.
दावा जो भी करें सच तो ये है कि वसुंधरा के करीबी होने के बावजूद वो संघ को कभी पसंद नहीं आये. यही वजह रही कि डीडवाना से उन्हें दोबारा टिकट मिलना भी काफी मुश्किल था. एक दलीय ये जरूर दी जा रही है कि कांग्रेस द्वारा बीजेपी के बागी मानवेंद्र सिंह को वसुंधरा के खिलाफ उतारे जाने के चलते ही सचिन के खिलाफ यूनुस खान चुनाव लड़ रहे हैं. मगर, पूरा सच यही नहीं है. टोंक संघ की अरसे से प्रयोगशाला रही है. संघ के चलते ही भारी भरकम मुस्लिम आबादी होने के बावजूद टोंक से बीजेपी की लड़ाई हिंदू उम्मीदवार ही लड़ता था. वो भी कांग्रेस के मुस्लिम कैंडिडेट के खिलाफ. इस बार दोनों ने स्वैप किया है.
ऐसा लगता है वसुंधरा राजे सिर्फ बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व से ही दो-दो हाथ नहीं करती रहतीं, उन्हें संघ से भी अच्छे से डील करना आता है. देखा जाय तो वसुंधरा ने डीडवाना से यूनुस का टिकट काट दिया जिस बात को लेकर संघ का दबाव था. लेकिन मानवेंद्र को कांग्रेस द्वारा उनके खिलाफ उतारे जाने के नाम पर और टोंक में मुस्लिम आबादी का हवाला देकर वसुंधरा ने अपने मन की बात कर डाली. हिसाब बराबर भी हो गया और संघ को कुछ कहने का मौका भी नहीं मिल पाया.
सचिन पायलट की उम्मीदवारी को लेकर राजनीतिक गुत्थी काफी उलझी हुई लगती है.
सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही राजस्थान में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. सचिन पायलट उस सीट से चुनाव लड़ रहे हैं जहां पिछले ही चुनाव में कांग्रेस की जमानत जब्त हो गयी थी. अशोक गहलोत सरदारपुरा की अपनी उस सीट से चुनाव लड़ रहे हैं जहां से वो छह बार विधायक रहे हैं.
आखिर क्यों अशोक गहलोत अपनी ही सीट से लड़ रहे हैं और सचिन पायलट अजमेर या दौसा नहीं बल्कि किसी नये इलाके से चुनाव मैदान में उतारे गये हैं?
उम्मीदवारों की सूची या औपचारिक घोषणाएं भले बाद में होती हों, फैसले काफी पहले लिये जा चुके होते हैं. वैसे भी सचिन पायलट का टिकट बीजेपी के यूनुस खान की तरह आखिरी दौर में तो तय हुआ नहीं होगा. अगर ऐसा हुआ भी है तो स्वाभाविक नहीं लगता.
कुछ सवाल ऐसे हैं जिनकी वजह से टोंक से सचिन पायलट की उम्मीदवारी सीधे सीधे गले के नीचे नहीं उतरती. क्या सचिन पायलट की उम्मीदवारी तय होते समय तक मानवेंद्र सिंह को लेकर रणनीति नहीं तैयार थी? अगर ये तय था कि मानवेंद्र सिंह को वसुंधरा के खिलाफ खड़ा किया जाना था तो क्या बीजेपी की अगली चाल का किसी को अंदाजा नहीं था?
क्या सचिन पायलट को टोंक से लड़ाया जाना कोई रणनीतिक भूल है, या कुछ और? सुना है राजस्थान में टिकट के बंटवारे में अशोक गहलोत की ही चली है. आखिर ये कौन सा जादू है जिसके अंदर की राजनीति समझ में नहीं आ पा रही है?
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