भारतीय पब्लिशिंग इंडस्ट्री में छाया ट्रांसलेशन का जलवा
भारतीय संविधान में इस वक्त 22 आधिकारिक भाषाओं को जगह मिली हुई है अन्य 15 भाषाओं को जगह देने की प्रक्रिया जारी है.
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हमारे देश की सबसे अनोखी बातों में से सबसे अहम है इस तथ्य का होना कि हमारे देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मिलाकर कुल आधिकारिक भाषा की संख्या 18 के आसपास है और ये जरूरी नहीं कि इन भाषाओं को संविधान की अनुसूची-8 में शामिल किया जाए. भारतीय संविधान में इस वक्त 22 आधिकारिक भाषाओं को जगह मिली हुई है अन्य 15 भाषाओं को जगह देने की प्रक्रिया जारी है. सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि किसी भी भारतीय राज्य की आधिकारिक भाषा अंग्रेज़ी नहीं है और त्रिपुरा जैसे राज्य की आधिकारिक भाषा को संविधान की अनुसूची में शामिल भी नहीं किया गया है.
हमारे विविध भाषाओं वाले देश में अनगिनत ऐसी बोलियां हैं जिन्हें पहली बार लिखित में दर्ज करने की कोशिश की जा रही है. इन बोलियों को अब तक भाषा कि उपाधि इसलिए नहीं मिली है क्योंकि उसका इस्तेमाल छोटे समुदायों और सामाजिक वर्गों में होता आया है लेकिन उनकी उपयोगिता, उनके दर्शन और उनकी गहराई किसी भी अन्य भाषा से कम नहीं है. इसलिए अगर हम कहीं भी भारत की साहित्यिक या सामाजिक पर्यावरण की बात करते हैं तो उसमें हर हाल में इन सभी परिस्थितियों और विभिन्नताओं का संयोजन होना बेहद जरूरी है और इसी वजह से साहित्य में ट्रांसलेशन या अनुवाद की प्रक्रिया को बेहद जरूरी कदम माना गया है.
साहित्य अकादमी इस क्षेत्र में साल 1954 से लगातार काम कर रही है और उनका जोर भारत के एक हिस्से की साहित्य को भारत के दूसरे कोनों में पहुंचाने का रहा है. ऐसा भारतीय भाषाओं में हो रहे पारस्परिक अनुवाद के कारण ही हो पा रहा है. इसी विषय पर अकादमी ने हाल ही में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें देश के कई जानी-मानी साहित्यिक हस्तियां शामिल हुईं और उन्होंने अपनी राय रखी. इसमें अंग्रेज़ी भाषा की लेखिका मालाश्री लाल की अध्यक्षता में, साहित्यकार नमिता गोखले, असमिया लेखक अरुणी कश्यप, उर्दू और हिंदुस्तानी भाषा में काम कर रहीं लेखिका रक्षंदा जलील, पब्लिशर नीता गुप्ता और जया भट्टाचार्या रोज़ ने हिस्सा लिया.
साहित्य में ट्रांसलेशन या अनुवाद की प्रक्रिया को बेहद जरूरी कदम माना गया है |
क्रॉस-कलचरल लिटरेरी जर्नी
यात्रा बुक्स की पब्लिशर नीता गुप्ता के अनुसार एक तरफ पूरी दुनिया का ट्रेंड ये है कि लोग अंग्रेज़ी से अपनी भाषाओं में किताबें ट्रांसलेट कर रहे हैं, पर भारत में इसका ठीक उल्टा है, हमारे यहां का साहित्य न सिर्फ विविध है बल्कि समृद्ध भी इसलिए इसका ट्रांसलेशन भारतीय भाषाओं से अंग्रेज़ी और दूसरी भारतीय भाषाओं में किया जा रहा है. उनके अनुसार यात्रा पब्लिकेशन ने साल 2005 में अनुवाद के काम को गंभीरता से लेना शुरु किया था, तब न उनके पास कोई अनुभव था, न काम और न ही कोई पॉलिसी लेकिन यात्रा पब्लिकेशन ट्रांसलेशन के जरिए ‘क्रॉस कल्चरल लिटररी जर्नी’ को एक प्लैटफॉर्म पर लाने की कोशिश कर रही है.
भारत में साहित्य अकादेमी के अलावा कई अन्य संस्थाएं अनुवाद की कला को लगातार बढ़ावा दे रही हैं. अनुवाद का कोई एक तरीका या शैली स्थापित नहीं है. इसकी वजह एक बार फिर से भारत के हर व्यक्ति का मल्टी-लिंग्वल या बहुभाषीय होना है, और बहुभाषीय होने के पीछे की वजह साहित्यिक या अकादमिक न होकर भौगोलिक है. और इसलिए जब हम अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ते हैं तब हमारा हिंदी, बांग्ला या तमिल मानस वहां टकराकर द्वंद पैदा करता है. इसी वजह से ट्रांसलेशन एक ‘लिंग्विस्टिक-एक्ट’ के बजाय एक ‘कल्चरल एक्ट’ ज़्यादा है. मालाश्री लाल के मुताबिक भारतीय शिक्षण संस्थानों में छात्रों को ये नहीं बताया जाता है कि ट्रांसलेट कैसे किया जाए, बल्कि उन्हें ये बताया जाता कि ट्रांसलेशन क्या है. शायद यही कारण है कि ट्रांसलेशन या अनुवाद सिर्फ भाषायी प्रक्रिया न होकर, एक राजनैतिक प्रक्रिया भी है जो पूरे देश को आपस में जोड़ती है.
अनुवाद एक राजनैतिक प्रक्रिया भी है जो पूरे देश को आपस में जोड़ती है |
अंग्रेज़ी-हिंदी के बीच तनातनी
अंग्रेज़ी लेखिका और जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की डायरेक्टर, नमिता गोख़ले ने बताया कि कैसे साल 2002 के दौरान अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बीच सौहार्द की कमी थी. एक तरफ़ जहां हिंदी के लेखक अंग्रेज़ी लेखकों से नाराज़ रहते थे वहीं खुशवंत सिंह और सलमान रुश्दी जैसे अंग्रेज़ी के लेखकों ने भारतीय भाषाओं को शब्दावली के मामले में काफी ग़रीब घोषित कर दिया था. लेकिन कुछ समय बाद विक्रम सेठ की बहुचर्चित अंग्रेज़ी किताब ‘A Suitable Boy’ का हिंदी अनुवाद गोपाल गांधी ने किया और तभी से चीज़ें बदलने लगीं. नमिता ने ये भी कहा कि भारतीय मीडिया उसी चीज़ के पीछे भागती है जो उन्हें ग्लैमरस लगती है, लेकिन अब हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के लेखन में भी एक किस्म का सॉफ़िस्टिकेशन आ गया है जिससे इस इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया है. अब जयपुर लिटरेचल फेस्टिवल जैसे आयोजनों में भी भारतीय भाषा लेखकों की धूम रहती है और उन्हें सुनने के लिए उतनी ही तादाद में भीड़ जुटती है जितनी सलमान रुश्दी या वी.एस. नायपॉल को.
उर्दु लेखिका और हिंदुस्तानी ज़बान में अनुवाद करने वाली रक्षंदा जलील के अनुसार उर्दु और हिंदी ज़बान के लोगों का आपस में परहेज़ का रिश्ता रहा है जो कभी प्यार तो कभी तक़रार में बदल जाता है, लेकिन उनका मानना है कि भले ही दोनों ज़बान एक न हो पर एक जैसे हैं, इसलिए वहां आपस में बातचीत होती रहनी चाहिए और हिंदुस्तानी ज़बान में अनुवाद के ज़रिए जिसे लिपिआंतर भी कहा जाता है वे अपनी संस्था हिंदुस्तानी आवाज़ का इस्तेमाल इस खाई को पाटने में कर रहीं हैं, क्योंकि एक ट्रांसलेटर अब सिर्फ़ मूल शब्द पर ध्यान नहीं देता बल्कि पूरे प्रसंग को समझता है. इसी परिचर्चा में इंडिपेंडेंट पब्लिशर जया भट्टाचार्य रोज़ ने बताया कि मौजूद समय में ट्रांसलेशन इंडस्ट्री अपने बेहतरीन दौर में है, सिर्फ राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर. पहली बार ऐसे लिटरेरी अवार्ड दिए जा रहे हैं जिनके केंद्र में लेखक नहीं बल्कि अनुवादक हैं. पिछले साल किसी अंतर्राष्ट्रीय लेटरेरी अवॉर्ड राशि लेखक और अनुवादक में बांटा गया. वौ दौर आ गया है जब पब्लिशर से लेकर साहित्यिक समारोह के आयोजक तक ट्रांसलेटर को पैसा देने को तैयार हैं. यानि फंड की भी कोई कमी नहीं है, जिससे आने वाले दिनों में भारतीय पब्लिशिंग इंडस्ट्री का एक बड़ा हिस्से का ट्रांसलेशन से संचालित होना लाज़िमी है.
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