TVF Aspirants Controversy: किताबें, कॉपीराइट और क...क...क...क...किरण!
किसी लेखक की कहानी चुराकर उससे फिल्म बनाना कोई नयी बात नहीं है. ताजा मामला TVF Aspirants का है. सोशल मीडिया पर लोकप्रिय लेखक निलोत्पल मृणाल ने कहा है कि TVF Aspirants ने उनके उपन्यास Dark Horse से कहानी चुराई और बिना उनकी अनुमति के वेब सीरीज बना दी.
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90 के दशक में हिंदुस्तान बहुत तेजी से बदला. ग्लोब्लाईजेशन का प्रभाव चहुंओर था. ये बदलाव राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षिक सभी स्तरों पर हो रहा था. विज्ञापनों और फिल्मों ने युवाओं पर प्रभाव डाला. हालांकि यह एक चर्चा का विषय हो सकता है कि युवाओं का प्रभाव फिल्मों पर था या फिल्मों का युवाओं पर. फिल्में भी तो कहीं न कहीं जीवन से ही बनती है. हम लोग जो उस समय किशोरावस्था में थे हमारी अब तक की अचीवमेंट पापा से नजर छुपा कर उनका स्कूटर चला लेना होता था. अब हमारे लिये अचीवमेंट के मायने पापा का स्कूटर नहीं, अपनी हीरो पुक होना था. 18 से कम होने पर स्कूटर के लिये लाइसेंस नहीं मिल सकता था, लेकिन 16 का होने पर हीरो पुक का लाइसेंस मिल जाता था. पिताओं पर हीरो पुक दिलाने का दबाव बढ़ने लगा. हीरो पुक होने अपने आप आपको अमीर बाप का बेटा घोषित कर देता. लड़कियों पर इम्प्रेशन भी ज्यादा पड़ता था.
लड़कियों पर इंप्रेशन जमाने के लिए लड़कों ने नए तरीके सीखे थे. पेन से लिखे छुपा कर दिए जाने प्रेम पत्र अब खून से लिखकर खुलकर दिये जाने लगे. शाहरुख खान की डर फिल्म ने लड़कों को बताया कि किरण अगर पसंद है तो वो तेरी है. अगर किरण पसंद है तो उसे कैसे भी पाना है. अपने हाथ पर प्रकार (Compass) से K गोद लेना है और आपके दोस्तों को लड़की को जाकर सेंटी करना है.
किसी नामी लेखक की कहानी चुराकर उससे वेब सीरीज बनाना अब कोई नयी है
हीरो पुक वाले जो लड़के होते हैं उनमें कई वाकई अमीर बापों की बिगड़ैल संतान होते थे. वो एक कदम आगे बढ़कर लड़की का पीछा करने लगते, उसे छेड़ते. यह सब 90 के दशक की आशिकी की कहानियों का एक अभिन्न हिस्सा है. नहीं, 90’s के दशक में किशोर रहा यह आदमी आज नॉस्टैल्जिक नहीं हो रहा है. दरअसल बात है कहानी की.
अगर कभी 90 के दशक की कोई प्रेम कहानी लिखनी हो तो ये सारा मसाला उसका हिस्सा हो सकता है. जिन्होंने उस युग को नहीं देखा उन्हें वह कहानी डर फिल्म से चुराई लग सकती है. कहानी चोरी होती आई है, होती रहेगी. कभी पूरी कहानी, कभी प्लॉट, तो कभी कहानी का कोई हिस्सा चोरी हो जाता है. जब चोरी होती है तो कॉपीराइट का मसला उठता है और कॉपीराइट का कानून बेहद पेचीदा है.
कॉपी करके बचना आसान है. अगर बचा जा सकता है तो सवाल उठता है कि क्या वाकई कुछ कॉपी हुआ या कॉपी होने का शक है? कॉपी करने वाला उस समय और ज्यादा सुविधा में होता है जब विषय समाज के किसी बड़े दृश्यमान वर्ग से जुड़ा हो. ऐसे में बहुत सी चीजें इतनी कॉमन होती है कि कॉपी हो या न हो, काफी कुछ एक सा ही होगा.
इनके एक जैसा होने का सबसे कारण है फॉर्मूला राइटिंग. मुझे कई बार लगता है कि आजकल फॉर्मूला राइटिंग बहुत होती है. पहले सिर्फ फिल्मों में था और अब किताबों में भी हो रहा है. फॉर्मूला राइटिंग मतलब कि आपने बड़े वर्ग से जुड़ा कॉमन विषय उठाया, उस विषय के सभी कॉमन एलिमेंट उठाए और उनको मिलाकर कहानी बना दी. ये कहानियां प्रायः अपने आसपास के परिवेश से उठाई जाती है.
आप में से जो भी लोग हॉस्टल में रहे होंगे वो जरा याद करिये कि क्या आपके हॉस्टल में कोई ऐसा सींकिया लड़का था जिसे गुस्सा बहुत आता हो और उसे सब पहलवान कहते हों? क्या आपके हॉस्टल में एक ऐसा अमीर लड़का था जो गाड़ी से आता था, दोस्तों के खर्चे उठाता था? क्या कोई ऐसा था जो क्लास बंक करके दिन भर सोता था और रात में मूवी देखता था?
क्या कोई ऐसा था जो नहाता नहीं था? कोई ऐसा जो सिगरेट सिर्फ दोस्तों से उधार लेकर पीता था? कोई ऐसा जो दिन में शरारत करता और रात को चुपचाप पढ़ कर टॉप कर जाता? कोई ऐसा जो प्रेसेंटेशन देने से पहले एक पेग मारता था? क्या कोई ऐसा सीनियर था जिसकी सब इज्जत करते थे? क्या कोई ऐसा था जो गुमसुम रहता था? कोई ऐसा जिसे हर लड़की में अपनी होने वाली बीवी दिखती थी?
हिंदुस्तान के हर हॉस्टल में ऐसे कई पीस मिलते हैं. हर हॉस्टल की जिंदगी लगभग एक सी होती है. वहां बोले जाने वाले डायलॉग, गालियां, बहाने ये सब एक से ही होते है. यदि आप किसी हॉस्टल की कहानी लिखें तो क्या इन पात्रों के बिना लिख पाएंगे? क्या आपके कई डायलॉग और बहाने एक से नहीं होंगे? जी हां, 2 लेखक जो अलग-अलग लिखेंगे उनकी कई घटना और पात्रों में समानता दिखेगी.
अभी हाल में एक सीरीज को लेकर एक लेखक ने एक सीरीज पर कहानी चुराने का आरोप लगाया है. हो सकता है कि सीरीज के लेखक ने किताब पढ़ी हों, हो सकता है ना भी पढ़ी हों. यदि न पढ़ी हों तो फिर साम्यता कैसे आई? पढ़ी है तो जवाब हम जानते हैं, नहीं पढ़ी तो जवाब है फॉर्मूला राइटिंग. जिस समाज को दिखाया गया है वह नजर आने वाला बड़ा हिस्सा है.
इन कथाओं के पात्र हमारे चारों ओर हैं, हमारे घर में भी है. यदि सिर्फ नजर आने वाली चीजों को दिखा रहे हैं तो फॉर्मूला राइटिंग कर रहे हैं आप. क्या यूपीएससी परीक्षा देने वाले किसी भी विद्यार्थी द्वारा विषय चुनने की दुविधा, या लड़की के लिये दोस्त से झगड़ा कोई ऐसी अलौकिक घटना है जो कभी न हुई, न देखी गई?
क्या ये कथा ऐसे पात्रों की है जो इस दुनिया में नजर कम आते हैं, या ऐसे पात्रों की है जिनके बारे में सामान्य तौर हम कम जानते हैं? यदि नहीं तो कहानी में साम्यता आएगी, चाहे वह कॉपी करके आए या बिना कॉपी किये. एम.ए. अर्थशास्त्र कर रहे मेरे एक क्लासमेट ने अर्थशास्त्र से यूपीएससी दिया, वहाँ तो नहीं हुआ लेकिन आरपीएससी में हो गया. उसने तीसरे चांस में पोलिटिकल साइंस से यूपीएससी दिया और आईएएस बना.
इसी बीच एक मजेदार बात ये है कि जिन्होंने आरोप लगाया उन्हीं के प्रकाशन से छपे एक अन्य लेखक ने भी यही दावा कर दिया कि सीरीज उनकी किताब से उठाई गई है. यदि दोनों लेखकों की किताब से उस सीरीज की कहानी मिलती है तो इसका अर्थ क्या यह हुआ कि दोनों किताबों की कहानी भी कहीं न कहीं आपस में मिलती है? क्या दोनों ही किताबों ने युवाओं के संघर्ष को एक सा ही दिखाया है?
क्या सफलता, प्रेम, असफलता के पैमाने एक से हैं? क्यों किताबों को एक दूसरे की कॉपी नहीं कहा गया? वजह स्पष्ट है कि दोनों ने एक ही विषय पर लिखा और कहानी अलग हो. कहानी के कई element होते हैं. बहुत कुछ एक सा होकर भी ये एलिमेंट उन्हें अलग बना देंगे. यही वजह है प्रेमचंद की बहुत सी कहानियां एक ही परिवेश में होकर भी अलग है.
दोस्तों की कहानी रंग दे बसंती भी है, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा भी है और थ्री इडियट्स भी. दोस्ती और हंसी मजाक के एलिमेंट के साथ पूरा परिवेश अलग है. क्या छात्र राजनीति में राजनेताओं का दखल, जातिगत प्रभाव, गुंडे लड़कों का सीधे लड़कों को परेशान करना और चुनाव लड़ना किसी एक यूनिवर्सिटी की कहानी है?
जब भी इस विषय पर लिखा जाएगा इनमें से बहुत सी चीजों का जिक्र होगा. छात्र राजनीति पर तीन किताबें जनता स्टोर, अशोक राजपथ और बागी बलिया साल भर के भीतर आई लेकिन कभी किसी को एक दूसरे से प्रेरित नहीं कहा गया क्योंकि तीनों ही उसी राजनीति के अलग-अलग पहलुओं को छू रहे थे. विषय भले ही तीनों का एक हो, कुछ एलिमेंट भी एक से होंगे, लेकिन प्लॉट और प्रेज़न्टैशन में जमीन आसमान का फर्क है क्योंकि ये फॉर्मूला राइटिंग नहीं थी.
यदि आप लेखन की दुनिया में आना चाहते हैं तो फॉर्मूला राइटिंग से बचना होगा. यदि आप सिर्फ इसलिए किताब लिखना चाहते हैं क्योंकि आपने प्रेम, परीक्षाएं या राजनीति पर किताब पढ़ी और आपको लगा कि मैंने भी चुनाव लड़ा था, मैंने भी यूपीएससी दिया था, मैंने भी इश्क किया था और मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था तो मेरे दोस्त मत लिखिए. आप सिर्फ तब लिखिये जब आपको लगे कि आप इसी दुनिया को एक नए नजरिए से दिखा सकते हैं.
लेखन में एक दिक्कत और आती है वह ये है कि एक ही आइडिया का एक ही साथ कई लोगों के दिमाग में आना. आप जो अभी सोच रहे हैं वही शायद इस वक्त कोई और भी सोच रहा होगा. यदि दोनों फॉर्मूला राइटर होंगे तो चीजें मिल जाएंगी, यदि नहीं तो सिर्फ विषय या प्लॉट एक होगा लेकिन कहानी एकदम अलग.
हाल में एक मलयालम फिल्म देखी C U Soon, जिसमें फिल्म की पूरी कहानी वीडियो कॉल पर ही चलती है. कल मैंने एक हिंदी सीरीज देखी The Gone Game जिसमें भी 90% कहानी वीडियो कॉल पर दिखाई गई है. मुझे एक बार को लगा कि The Gone Game ने वीडियो का आइडिया मलयालम फिल्म से लिया है, लेकिन जब मैंने रिलीज की तारीखें देखी तो दोनों सिर्फ एक महीने के अंतर पर आई थी.
यानि एक ही समय में दो लोग एक ही आइडिया पर काम कर रहे थे लेकिन फॉर्मूला राइटिंग नहीं थी. दोनों सस्पेंस एलीमेंट वाली फिल्म थी, दोनों में एक गुम हुए व्यक्ति को ढूंढा जाना था. एक ही तरीके से शूट हुई लेकिन विषय के प्रस्तुतीकरण बहुत अलग था. ऐसे में कोई किसी को प्रेरित या कॉपी बताना बेहद कठिन हो जाता है. फॉर्मूला बेस्ड लिखा होता तो आसान था.
चोरी सब ओर से हो रही है, कोई बच जाता है, कोई शोर मचा देता है. फिल्मों की दुनिया किताबों से चुराती आई है लेकिन हमारे पास तो हमारे पास तो ऐसे भी उदाहरण हैं फॉर्मूला राइटिंग के जहाँ किसी फिल्म की या पुराने उपन्यास की कहानी में पात्रों के स्थान और समय को बदल कर नया उपन्यास लिख दिया और पकड़े जाने पर चुप्पी धारण कर ली या उसे प्रेरणा बता दिया.
यदि चोरी हुई तो रुकना नहीं है, मुकदमा करना है. यदि आपने फॉर्मूला राइटिंग की है तो भी दिक्कत नहीं, शोर तो मचा ही सकते हैं. याद रखिये, हाथ पर लड़की का नाम ब्लेड से या compass से लिखने की बात कई कहानियों में मिल जाएगी लेकिन क..क..क..क.. किरण कहने वाली बात सबमें नहीं होगी.
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