या तो हम पुलिस वालों का मज़ाक़ उड़ाते हैं या फिर उन्हें गालियां देते हैं!
मैं जिस राज्य, जिले से आता हूं वहां ‘दारोग़ा’ के लिए एक कहावत कही जाती है. दारोग़ा मतलब द (दीजिए) रो के चाहे गा के. मतलब अगर दारोग़ा आया तो या तो उसे हंसी-ख़ुशी कुछ दे दो या रोने-धोने के बाद दो. देना तो पड़ेगा ही.
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ये अक्सर होता है. कोई नहीं बात नहीं है. हम अक्सर पुलिस का मज़ाक़ उड़ाते हैं. देश के किसी चौक-चैहारे पर खड़े हो जाइए, बात कीजिए, जिससे मिलेंगे, जिससे बात करेंगे वो ही पुलिस वालों के लिए ग़लत शब्द का प्रयोग करेगा. बिना इसके कोई बात ही नहीं करता. इसकी एक बड़ी वजह पुलिस के काम करने का तरीक़ा, उनका व्यवहार और इस संस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है.
मैं जिस राज्य, जिले से आता हूं वहां ‘दारोग़ा’ के लिए एक कहावत कही जाती है. दारोग़ा मतलब द (दीजिए) रो के चाहे गा के. मतलब अगर दारोग़ा आया तो या तो उसे हंसी-ख़ुशी कुछ दे दो या रोने-धोने के बाद दो. देना तो पड़ेगा ही.
पुलिस का मजाक उड़ाने से पहले ये तो सोच लीजिए कि वो किन हालात में काम कर रही है
ऐसी ना जाने कितनी कहावतें देश के अलग-अलग हिस्सों में होंगी. हम पुलिस वालों का मज़ाक़ करने से कभी नहीं चुकते. अगर वर्दी में कोई जवान नाचता हुआ देखा गया तो मज़ाक़ बनाते हैं. अगर दो लोग आपस में भीड़ गाए तो मज़ाक़ उड़ाते हैं. प्रेस या मीडिया में भी जब इनके बारे में बात होती है तो गम्भीरता कम और मज़ाक़िया लहजा ज़्यादा होता है.
आजकल एक वीडियो क्लिप वायरल हो रही है. इस वीडियो क्लिप में यूपी पुलिस के जवान रात के अंधेरे में गन्ने के खेत में किसी आरोपी की तलाश कर रहे हैं. वो इस क्रम में रह-रहकर गोली चला रहे हैं. आवाज़ लगा रहे हैं. शोर भी मचा रहे हैं. इसे हमारी तरफ़ हाहाकार मचाना भी कहते हैं. इस वीडियो में एक पुलिस का सिपाही मुंह से ठांए-ठांए की आवाज़ भी लगा रहा है.
#WATCH: Police personnel shouts 'thain thain' to scare criminals during an encounter in Sambhal after his revolver got jammed. ASP says, 'words like 'maaro & ghero' are said to create mental pressure on criminals. Cartridges being stuck in revolver is a technical fault'. (12.10) pic.twitter.com/NKyEnPZukh
— ANI UP (@ANINewsUP) October 13, 2018
इस वीडियो के सामने आते ही सोशल मीडिया अपने काम पर लग गया. शुरू हो गया मज़ाक़ करना. इस बारे में मीडिया ने जो रिपोर्ट दी उसका लहजा भी मज़ाक़िया ही था.
ख़ैर, मुझे इस वीडियो में कुछ और दिखा. वो दिखा जो हमें कई सालों से नहीं दिख रहा. इस वीडियो के आने के बाद चर्चा होनी चाहिए कि हम अपने जवानों को बिना किसी सुरक्षा इंतज़ामों के ऐसे शूटआउटस करने के लिए कैसे भेज देते हैं? मुझे दिखे वो जवान जिनके बदन पर ना तो बुलेटप्रूफ़ जैकेट था और ना ही माथे में हैलमेट. अगर ऐसे में सामने से किसी भारी हथियार से फ़ायरिंग होती तो इन जवानों की क्या हालत होती? वो कबतक टिकते? कैसे मुक़ाबला करते? अगर ऐन मौक़े पर उनके पिस्टल और राइफ़ल नहीं चल रहे थे तो ये कितना ख़तरनाक है? कितनी बड़ी लापरवाही थी?
इन सवालों के जवाब हुकमरानों से क्यों नहीं मांगे जा रहे? क्यों हम केवल इन जवानों का मज़ाक़ उड़ाकर आगे बढ़ जा रहे है? देश की सुप्रीम अदालत तक कह चुकी है कि जल्द से जल्द पुलिस सुधार किया जाना चाहिए लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं है. ये तथ्य देखिए-1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके पुलिस सुधार की मांग की. याचिका में उन्होंने अपील की थी कि कोर्ट केंद्र व राज्यों को यह निर्देश दे कि वे अपने-अपने यहां पुलिस की गुणवत्ता में सुधार करें और जड़ हो चुकी व्यवस्था को प्रदर्शन करने लायक बनाएं.
इस याचिका पर न्यायमूर्ति वाईके सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई करते हुए 2006 में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए. न्यायालय ने केंद्र और राज्यों को सात अहम सुझाव दिए.
इन सुझावों में प्रमुख बिंदु थे- हर राज्य में एक सुरक्षा परिषद का गठन, डीजीपी, आईजी व अन्य पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल दो साल तक सुनिश्चित करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन. कोर्ट के इस दिशा-निर्देश को करीब 12 साल बीत चुके हैं और अब तक कोई कारगर पहल नहीं हो सकी है.
सरकारें सुन नहीं रही हैं. पुलिस आज भी अंग्रेज़ों के बनाए नियम-क़ानूनों से चल रही है. उनकी डीयूटी और काम के घंटें सुनेंगे तो आपके होश उड़ जाएंगे. अगर किसी के परिवार से कोई सदस्य पुलिस कांस्टेबल या हवलदार होगा तो वो इस दर्द को समझ रहा होगा. हमने झेला है. मेरे पिता जी हाल ही में बिहार पुलिस से रिटायर हुए हैं. बचपन में जब मैं ग़लती से उनकी टोपी लगा लेता था तो वो बहुत गुस्साते थे इसलिए नहीं कि मैं उनकी टोपी ख़राब कर दूंगा बल्कि इसलिए कि टोपी लगाने से मैं भी पुलिस में ही भर्ती होऊंगा. वो नहीं चाहते थे कि जिन हालात में उन्होंने ने नौकरी की, जैसी परेशानियां उन्हें उठानी पड़ीं वो उनके बेटे को भी उठानी पड़े.
अगर आप लेख पढ़ते हुए यहां तक आ गए हैं और आपको लग रहा है कि मैं पुलिस का बचाव कर रहा हूं तो ऐसा कतई नहीं है. मैं एक गंभीर मद्दें की तरफ़ आप पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, बस.
मैं नहीं चाहता कि आप केवल पुलिस का मज़ाक़ उड़ाएं. आप पुलिस के द्वारा किए गए ग़लत कामों का विरोध करें. जमकर करें. पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाएं. उनकी आलोचना करें, लेकिन आत्मसुख के लिए पुलिस वालों का मज़ाक़ ना उड़ाएं.
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