कपड़े हमारे शरीर की जरूरत हैं, हमारे चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं बस इतनी सी ही बात समझनी है!
कपड़े हमारे शरीर, जगह, मौसम, माहौल, पसंद की ज़रूरत होते हैं. हमारे चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं, हमारी आधुनिकता की पहचान नहीं, हमारे पिछड़े होने का तमगा नहीं, ना ही इस बात की गारंटी देते हैं कि साड़ी पहनने वाली स्त्री ही सही संस्कार दे सकती है, और जीन्स पहनने वाली नहीं. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को बस इतनी सी ही बात समझनी है.
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यदि कोई नई उम्र की लड़की अपने साथ में खड़ी साड़ी पहने युवती को देखकर नाक-भौं इसलिए सिकोड़ लेती है क्योंकि वह साड़ी पहने है और ख़ुद को उससे बेहतर सिर्फ इसलिए मानती है क्योंकि उसने स्वयं ने जीन्स पहना है तो वह भी कपड़ों को लेकर उसी मानसिकता की शिकार है जिसके विरोध में वह कभी लड़ी होगी.यदि कोई स्त्री अपने पास में बैठी लड़की के आधुनिक कपड़े देखकर उसके चरित्र को आंकती है तो वह भी उसी बीमार मानसिकता की शिकार है. यदि किसी पुरुष की वजह से रेस्टोरेंट में बैठी मां को दूध पिलाने के लिए टॉयलेट में जाना पड़े, या वह पुरुष उस समय स्तनपान में मातृत्व नहीं बस महिला का स्तन देख रहा है तो वह भी उसी बीमार मानसिकता का शिकार है.
यदि कोई स्त्री साड़ी पहनकर, माथा ढंककर अपने दो साल के बच्चे को चिकनी चमेली और पतली कमरिया पर नाचना सिखा रही है तो उसके लिए भी संस्कारों की परिभाषा दुरुस्त करने की ज़रूरत है. क्योंकि जिस उम्र में बच्चा 5 भाषाएं, नैतिकता, मानवीयता और बौद्धिकता का सबसे अहम पाठ सीख सकता है, कल्पनाओं से हर समय नए-नए लोक बुन रहा हो, हर नए शब्द का अर्थ जानने की कोशिश करता है उस उम्र में आप उसे चिकनी चमेली और पतली कमरिया जैसे निहायती ग़ैर ज़रूरी और मस्तिष्क को भ्रमित करने वाले शब्दों के अर्थ सिखा रहे हैं.
कुछ जरूरी बातें हैं जिन्हें उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को हर सूरत में समझना चाहिए
यदि कोई पुरुष या स्त्री भी यह मानती है कि जीन्स पहनने वाली या पारंपरिक परिधान ना पहनने वाली लड़कियाँ बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे सकती तो वे लोग भी उसी बीमार मानसिकता के शिकार है. यदि कोई पुरुष यह मानता है कि 'ऐसे ही कपड़े पहने स्त्री संस्कारी है' तो वह भी उसी बीमार मानसिकता का शिकार है.
यदि कोई पुरुष राह चलते शॉर्ट्स, जीन्स या ऐसी ही किसी तरह के कपड़े पहने लड़की को देखकर यह मान लेता है 'वह तो चालू होगी, इसे पटाया जा सकता है, इसके साथ सोया जा सकता है, आदि आदि' तो वह भी उसी बीमार मानसिकता का शिकार है. आप आदिवासियों की बस्ती में उन्हें कुछ समझाने बिकनी, शॉर्ट्स, फटी जीन्स में, वुडलैंड के जूते पहनकर जाएंगे तो वे आपकी बात सुनने से पहले ही ख़ारिज कर देंगे.
वहीं यदि आप उनके बीच सूट/पेंट-शर्ट पहनकर जाएंगे तो वे सुनकर समझने की कोशिश करेंगे. (ऐसा स्त्री/पुरुष दोनों के मामले में कह रही हूं) आप किस मंच और किस मानसिकता के लोगों के बीच जा रहे हैं उसके. अनुसार कपड़े पहन लेना यह आपके विवेक की बात है. इससे आपकी आधुनिकता या पिछड़ापन नहीं दिखता.
कपड़े हमारे शरीर, जगह, मौसम, माहौल, पसंद की ज़रूरत होते हैं. हमारे चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं, हमारी आधुनिकता की पहचान नहीं, हमारे पिछड़े होने का तमगा नहीं, ना ही इस बात की गारंटी देते हैं कि साड़ी पहनने वाली स्त्री ही सही संस्कार दे सकती है, और जीन्स पहनने वाली नहीं. बस इतनी सी बात समझनी है. क्योंकि हमने इसी समाज में देखे हैं धोती-कुर्ते, कुर्ता-पायजामा, पेंट-शर्ट वाले बलात्कारी भी और साड़ी पहनकर बहुओं को जलाने वाली भी.
हमने देखी हैं साड़ी पहनकर ट्रक चलाने वाली, मंगलयान बनाने वाली और शॉर्ट्स पहनकर देश के लिए विजय पताका लहराने वाली. इसलिए संस्कारों की बात समझ से करें, कपड़ों से नहीं.
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