पेट्रोल डीजल को रातोंरात सस्ता करने का रामबाण इलाज है जर्मनी के पास
कहां एक साल पहले पेट्रोल की कीमत 1 रुपए भी बढ़ने पर छाती पीटने लगते थे. वहीं 1 जुलाई 2017 से आज तक में पेट्रोल की कीमत 63 रुपए से बढ़कर 76 रुपए हो गई है. यानी 10 महीने में 13 रुपए की बढ़ोतरी और हम चुप हैं.
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भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं. राजधानी दिल्ली में पेट्रोल की कीमत अपने सबसे उच्चतम स्तर (76.57 रुपए) पर दर्ज की गई और डीजल (67.82 रु.) भी इस होड़ में पेट्रोल को मात देने में लगी हूई है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में तो ये लगभग 85 रुपए तक पहुंच गया है. इसके पहले पेट्रोल इतना महंगा साल 2013 में हुआ था जब दिल्ली में इसकी कीमत 76.24 रु/ली और मुंबई में 84.07 रु/ली हो गई थी. इनकी कीमतें बढ़ने के पीछे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल की कीमतों में उछाल को माना जा रहा है. सरकार बढ़ती कीमतों को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही हैं और आम जनता बेहाल है.
चलिए आपको एक कहानी सुनाएं. 2008 में जर्मनी में तेल की कीमत रातोंरात तेल की कीमतों में 30 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई. सुबह लोग पेट्रोल पंप पर पहुंचे तो 1.21 यूराे वाला पेट्रोल 1.50 यूरो पर बिक रहा था. डीजल भी उसी कीमत के आसपास आ खड़ा हुआ था. इसके बाद वहां के नागरिकों ने जो किया वो चौंकाने वाला था. कम से कम सरकार को तो उसकी उम्मीद कभी नहीं थी. तेल की कीमत आग की तरह फैली. एक घंटे के अंदर ही नागरिकों ने जर्मनी की सड़कों पर अपने वाहन छोड़ दिए. और काम पर निकल गए. चारों तरफ अफरातफरी मच गई. ट्रैफिक जाम लग गया. सरकार में खलबली मच गई. आखिर फैसला वापस लेना पड़ा.
जर्मनी में यदि पेट्रोल की कीमतें बढ़ने पर लोग गुस्सा होते हैं, तो सरकार की मजाल नहीं कि वो उन्हें नजर अंदाज कर दे. (चित्र सन् 2000 में हुए प्रदर्शन का)
अब एक नजर डालिए सन् 2000 से 2017 तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों पर-
सरकार को जवाब देना है तो जाग जाइए
ये कोई पहला वाकया नहीं था. इसके पहले सन् 2000 में भी जर्मनी सहित यूरोप के कई देशों में सरकारों द्वारा ईंधन की कीमतों को बढ़ाने का विरोध करने के लिए यही तरीका अपनाया गया था. सन् 2000 में जब जर्मनी में तेल की कीमतें बढ़ाई गई थी तो दूर दराज के गांवों से लगभग 250 ट्रक के मालिकों, टैक्सी ड्राइवरों और किसानों ने राजधानी बर्लिन की सीमा पर 5 किलोमीटर तक अपने वाहन ले जाकर खड़े कर दिए. शहर से आवाजाही पर विराम लगा दिया और तेल की कीमतों को कम करने की मांग करने लगे. तब भी सरकार को घुटने टेकने पड़े और बढ़ी हुई कीमतों को वापस लेना पड़ा था.
इसी तरह स्पेन और पोलैंड में भी लोगों ने सरकार द्वारा ईको टैक्स के नाम पर ईंधन की कीमतों की वृद्धि का भरपूर विरोध किया. स्पेन में ट्रक ड्राइवरों, किसानों और मछुआरों ने सड़कों पर कछुए की रफ्तार से गाड़ियां चलानी शुरू की, जिससे मीलों लंबा जाम लग गया. इसके साथ ही तेल रिफाइनरियों और बंदरगाहों पर भी लोग धरना देने लगे. कृषि मंत्रालय के आगे प्रदर्शन शुरु हो गए. और विरोध का ये सिलसिला देश के कई शहरों में जोर पकड़ने लगा.
इन सभी उदाहरणों से पता चलता है कि सरकार की मनमानी को सिर झुकाकर स्वीकार करने के बदले उसका यदि सही तरीके से विरोध किया जाए तो जीत जनता की ही होती है. क्योंकि ऐसा नहीं है कि हमारी सरकार तेल की इन बढ़ती कीमतों पर लगाम नहीं लगा सकती. इसका एक उदाहरण हम गुजरात और कर्नाटक चुनावों के समय भी देख चुके हैं. जब सरकार को पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से चुनावी खतरा नजर आया, तो उसने कीमतें थाम ली थीं. और वोट डाले जाने के अगले ही दिन कीमतें बढ़ा दी गईं. यानी होशियार सिर्फ सरकार है, हम नहीं ?
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