पश्चिम बंगाल में सिद्ध हुआ कि सबसे बड़ी मर्दाना कमज़ोरी है 'अहम्'!
बाहर काम कर के आया पुरुष एक प्याली गरम चाय पूरे हक़ से मांगता है. वहीं बाहर से काम कर के आयी स्त्री घर से दूर रहने के अपराध बोध को लिए हुए आती है और दोगुने जोश से घर में खटती है ताकि कोई उस पर लापरवाही, पैसों की अकड़ का इलज़ाम न लगा पाए. और कहीं ये ताना-बाना बिगड़ जाए, तो उसकी जान के भी लाले हैं.
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उफ़ ये मर्दाना कमज़ोरी... शर्मिंदगी तो होती ही है लेकिन सबके सामने आये तो कैसे? स्वीकारे तो भला कैसे? मर्द का सबसे कमज़ोर हिस्सा जिस पर चोट चच्च च्च्च इतनी बुरी तरह की तिलमिला उठता है. पागल हो जाता है गुस्से में और बस चले तो मार डाले. काट डाले. अहम. मर्द का अहम्. आप क्या समझे? मर्द का सबसे कमज़ोर हिस्सा है उसका अहम् और ये मर्दाना कमज़ोरी और भी ज़ोरों से सर उठाती है जब उसके अहम् को किसी स्त्री से चोट लगती है. पश्चिम बंगाल के पूर्वी बर्दवान जिले के शेर मोहम्मद को भी इसी हिस्से पर चोट लगी वो भी उसकी अपनी बीवी यानि रेनू खातून से और उसने गुस्से में उनके हाथ काट दिए. जी सही पढ़ा. हाथ ही काट दिए गए. मामला ये है की शेर मोहम्मद एक किराने की दुकान चलाता था और वहीं रेनू नर्सिंग की ट्रेनिंग कर रही थी और असिस्टेंट नर्स के तौर पर पास के दुर्गापुर के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में काम भी कर रही थी. इसी बीच उसे राज्य सरकार की ओर से नियुक्ति भी मिल गयी.
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क्रोनोलॉजी समझिये!
नर्स बीवी. ज़ाहिर है ज़्यादा पढ़ी लिखी होगी. उस पर दूसरे शहर कमाने जाती तो उस पर शक करना तो हक़ बन गया शौहर का. तिस पर सरकारी मुलाज़िमत तौबा तौबा. अब तो नखरे दिखायेगी और शौहर से बेहतर काम कैसे मिल सकता है? 'एक औरत हो कर मुझसे बेहतर काम नहीं मिल सकता.' - नतीजा, रेनू के हाथ पर तकिया रख कर उसका हाथ काट दिया. उसके बाद उसे अस्पताल ले गया लेकिन हाथ का कटा हुआ टुकड़ा घर छोड़ कर, ताकि डॉक्टर उसे जोड़ न पाए!
ये है मर्दाना कमज़ोरी का घिनौना सड़ा बदबूदार रूप जहां अपने साथी का एक कदम आगे क्या साथ साथ सर उठा कर चलना भी मंज़ूर नहीं. रेनू खातून के भाई का कहना है की जबसे रेनू को सरकारी नौकरी की नियुक्ति की खबर मिली तभी से शेर मोहम्मद उनसे इसे न करने की ज़िद किये बैठा था. वहीँ रेनू अपने सपने के ओर की गयी अपनी मेहनत को जीना चाहती थी.
रेनू की कोई गलती नहीं थी. गलती थी तो बस इतनी की वो किसी की बीवी थी और हमारे समाज में पत्नी पति से दो कदम पीछे चले तो अच्छा, साथ चले तो भी गुज़ारा कर लेते हैं लेकिन एक कदम भी आगे चले तो बवंडर मच जाता है. हमारी फिल्मों में भी इस किस्म के किरदार खूब मिले हैं और हीरो के इस अहम् को प्रेम की चाशनी में डूबा कर 'इनसिक्योरिटी' का जामा पहना दिया जाता है.
1973 में आयी फिल्म अभीमान में इसी एहसास को बड़ी खूबसूरती से अमिताभ और जया के किरदारों में पिरोया, जहां संगीत की दुनिया में चमकता सितारा सुबीर अपनी पत्नी की कला के आगे फीके पड़ने लगते हैं और प्रोफेशन उनके आपसी रिश्तों पर गाज बन कर गिरता है. हालांकि यह एक फिल्म थी तो इसका अंत एक आशा पर हुआ किन्तु असल ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता.
भारतीय समाज पितृसत्ता के इर्द गिर्द ही बीना गया है जहां पर स्त्री की परिधि हर घर-गांव- शहर अपने आप तय करता है लेकिन किसी में भी स्त्री को प्रमुखता नहीं और लीड करने की आज़ादी नहीं है. आप कह सकते हैं की स्तिथि बदल रही यही किन्तु ये बदली हुई स्थितियां गिने चुने घरों की हैं. बाहर काम कर के आया पुरुष एक प्याली गरम चाय पूरे हक़ से मांगता है वही बाहर से काम कर के आयी स्त्री घर से दूर रहने के अपराध बोध को लिए हुए आती है और दुगने जोश से घर में खटती है ताकि कोई उस पर लापरवाही, पैसों की अकड़ का इलज़ाम न लगा पाए.
उसे कोई ऐसी सहूलियत नहीं मिलती जहां उसे उसके काम उसके मेहनत की शाबाशी या धन्यवाद कहा जाये बल्कि देर से आने, शाम रात फोन आने और किसी छुट्टी के दिन के एक्स्ट्रा काम को उसके चरित्र पर शक करने की वजह माना जा सकता है. इस मुद्दे पर बात नहीं होती क्योनी इसे ही बदलाव का हिस्सा मन गया है. बदलाव कब आएगा नहीं पता.
साथ ही बड़े बड़े सशक्तिकरण के समागम के दौर में पुरुष किस कमज़ोरी में डूब रहा है इसका भी अंदाज़ा नहीं हमे. फ़िलहाल तो स्त्री साथ चलने की कवायद में ही उलझी है आगे जाने का उसका कोई इरादा नहीं किन्तु ऐसे में भी कभी कहीं कोई पुरुष स्त्री से शिक्षा या नौकरी में कमतर हो तो उसका बरसों से सींचा हुआ अहम् किसी न किसी रूप में बाहर आ जाता है - इस मर्दाना कमज़ोरी का इलाज कब और कैसे होगा, नहीं पता.
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